Book Title: Sachitra Sushil Kalyan Mandir Stotra
Author(s): Sushilmuni, Gunottamsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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उद्गच्छता तव शितद्युतिमण्डलेन, लुप्तच्छद - च्छविरशोकतरुर्बभूव। सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग!
नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि।।२४।। हे नाथ ! आपके दिव्य शरीर से ऊपर की ओर निकलने वाली किरणों के नील प्रभामण्डल से अशोक-तरु के लाल पत्ते भी अपनी रागरूप लालिमा छोड़ देते हैं। उसी प्रकार हे भगवन् ! आपके समीप रहने मात्र से कौन ऐसा सचेतन प्राणी है, जो रागरहित नहीं हो जाता हो ? अर्थात् वीतराग बन जाता है (प्रतिहार्य ६)।
હે નાથ ! આપના દિવ્ય શરીરમાંથી ઊપર તરફ નીકળનારા કિરણોના નીલરંગી પ્રભામંડળથી અશોક-તરુના લાલ પાન પણ પોતાની રાગરૂપી લાલિમા છોડે છે. તે જ પ્રકારે હે ભગવન ! આપની સમીપ રહેનારામાં કોણ એવું સચેતન પ્રાણી છે જે રાગરહિત નથી થઈ જતું? અર્થાત્ વિતરાગ બની हाय छे. (प्रतितार्थ६)
O Prabho ! Touched by the blue orb of the radiant glow rising from your divine blue body the red hue of the leaves of Ashoka tree suddenly turns yellow. In the same way, O Vitaraag The detached one)! Where is that sentient being who is not freed of his attachments (to become vitaraag) just by being in Your proximity? Nowhere, indeed. (sixth divine felicitation)
चित्र-परिचय (प्रतिहार्य ६) प्रभामण्डल
प्रभु के नील आभा मंडल से निकली किरणों के प्रभाव से अशोक वृक्ष के पत्ते भी लालिमा रहित होकर नीलवर्ण के हो गए हैं।
उसी प्रकार पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा के समीप बैठा भक्ति करता भक्त प्रभु के दिव्य प्रभाव से राग रहित हो गया है।
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