Book Title: Sachitra Sushil Kalyan Mandir Stotra
Author(s): Sushilmuni, Gunottamsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्ध्याध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः। पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं,
किं नाम नो विषविकारमपाकरोति।।१७।। हे प्रभो ! मनीषी पुरुष अपनी आत्मा को आपसे अभेदरूप में अर्थात् परमात्मारूप में ध्यान करते हैं, तो उनकी वही साधारण आत्मा भी आप जैसी महान बन जाती है। पानी को भी यदि सर्वथा अभेद बुद्धि से अमृत समझकर उपयोग में लाया जाए तो क्या वह अमृत के समान विष विकार को दूर नहीं करता है ?।
હે પ્રભુ ! મનીષી પુરુષ પોતાના આત્માને આપથી અભેદરૂપે અર્થાત્ પરમાત્મારૂપ માં ધ્યાન ધરે છે, ત્યારે તેમનો સાધારણ આત્મા પણ આપના જેવો મહાન બની જાય છે. પાણીને પણ જો સર્વથા અભેદ બુદ્ધિથી અમૃત સમજીને ઉપયોગમાં લેવામાં આવે તો શું તે અમૃત સમાન વિષ વિકારને દૂર નથી કરતું?
0 Jineshvar ! The sagacious ever indulgent in spiritual contemplation meditate upon your image as inalienable from their own soul. Undergoing this process of meditation they make their soul as supreme as you. Does ordinary water not act as ambrosia for detoxification when it is used with an absolutely unalterable belief that itisambrosia?
| चित्र-परिचय
जैसे मणि मंत्र के श्रद्धा पूर्वक स्मरण से पानी को अमृत तुल्य बना दिया और सर्प-विष से मृत व्यक्ति को पिलाकर जिन्दा कर दिया, उसी प्रकार साधु पुरुष आपके स्वरूप का चिन्तन करके ही परमात्मा पद को प्राप्त कर लेते हैं।
H-
6
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org