Book Title: Sachitra Sushil Kalyan Mandir Stotra
Author(s): Sushilmuni, Gunottamsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि, कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य। बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ?।।५।।
जैसा कि बालक अपनी भुजाएँ फैलाकर छोटी बुद्धि के अनुसार समुद्र के विस्तार को बतलाता है। उसी तरह हे स्वामी ! मैं अल्प-बुद्धि होकर भी आप जैसे अनन्त गुण सागर की स्तुति करने का प्रयास करता
જેમ બાળક પોતાની ભુજાઓ ફેલાવીને ટૂંકી બુદ્ધિપ્રમાણે સમુદ્રના વિસ્તારનું વર્ણન કરે છે, તે જ પ્રમાણે હે સ્વામી! હું અલ્પ બુદ્ધિનો માનવી આપના જેવા અનંત ગુણ સાગરની સ્તુતિ કરવાનો પ્રયાસ કરું છું.
Does an ignorant child not spread both his tiny arms to show the limitless expanse of a great ocean ? In the same way, O Lord ! Though an ignorant, I hereby endeavour to sing a panegyric in praise of an ocean of infinite virtues like You.
चित्र-परिचय
जैसे, छोटा बालक अपनी छोटी भुजाएँ फैलाकर विस्तृत समुद्र का माप करने का बाल प्रयास कर रहा है।
उसी प्रकार प्रभु पार्श्वनाथ के अनन्त गुणों का वर्णन करने का प्रयास करते आचार्यश्री सिद्धसेन सूरि ।
HeGHAR
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