Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
यह पद्य ग्रन्थतोकी आस्तिकताको प्रकट करता है। क्योंकि इसमें नमस्य व्यक्तिक जिन तीन गुणों का वर्णन किया गया है उनसे युक्त जीवतवको जो नहीं मानता या जो निर्वाण अवस्था और उसके असाधारण कारणरूप इन धर्मों को स्वीकार नहीं करता इस तरहका नास्तिक बुद्धिका व्यक्ति उनको नमस्कार करके अपनी श्रद्धा भी अभिव्यक्त नहीं कर सकता | अतः इस पद्यके द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि ग्रन्थकर्ता को यह बात सर्वधा मान्य है कि सर्वज्ञता वीतरागता और हितोपदेशकदारूप गुणों का धारक कोई एक व्यक्ति अवश्य है। साथ ही वह हम सब छद्मस्थ संसारी जीवों के लिये आदर्श है। निर्वाणक मार्गका प्रदर्शक है । अत एक वह हमारे लिये नमस्य ( नमस्कार करने योग्य ) हैं ।
वह कौन है इस बात को समझाने के लिये यहा दृष्टांत रूप में नामोल्लेख भी कर दिया हैं कि जिस तरह श्री वर्धमान भगवान । वे नमस्य क्यों है अथवा मैं उनको नमस्कार क्यों करता हूँ ? इसका विशेष युक्तिपूर्वक उत्तर तो अपने आप्तमीमांसा नामक ग्रन्थमें स्वयं ग्रन्थकारने देदिया है उसीका संक्षिप्त श्राशय इस पद्य में तथा भागे चलकर श्राप्तका लक्षण बताते हुए स्पष्ट कर दियागया ग्रन्थकी है जो कि विद्वानों को स्वयं घटित करलेना चाहिये । इस गुणके कारण अपनी लघुता, सर्वज्ञोवज्ञता और प्रामाणिकता पर भी प्रकाश पड़ता हैं ।
२ | कृतज्ञता - अपने प्रति किये गये उपकार को मानना, तथा कृतोपकारीके प्रति सम्मान प्रकट करना, और उसका निलव न करके गौरव के साथ उसके नाम श्रादिका उल्लेख करना आदि 'कृतज्ञता' कहलाता है। यह एक महान गुण हैं जो कि वक्ता के शुद्ध सरल गुणग्राही स्वभाव की स्पष्ट तो करता ही है साथ ही प्रकृत विषय के मूल वक्ताके प्रति दृष्टि दिलाकर उसकी ऐतिहासिकता भी प्रकट कर देता है। यही कारण हैं कि शिष्ट ग्रन्थकर्ता अपनी रचना के प्रारम्भ में अपने उस उपकारी का स्मरण करना परम कर्तव्य समझते हैं और श्रद्धापूर्वक उनका नामोल्लेख क्रिया २ करते हैं ।
इस ग्रन्थमें जो कुछ वर्णन किया गया है उसके अर्थतः मूल वक्ता श्रीवर्धमान स्वामी हैं। उन्होंने जो श्रीमार्ग का उपदेश दिया वही उसकी ग्रन्थ रचना करने वाले गणधर देव तथा अन्य माचायोंके द्वारा श्रम तक चला आरहा है । श्रतएव कृतज्ञ ग्रन्थकर्त्ता श्री आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने उनका यहां स्मरण किया हैं ।
३ | श्राम्नाय ---- यद्यपि इस शब्द के अनेक अर्थ होते हैं लेकिन यहां पर आचार्य परम्परागत (प्राचीन आचार्यों के द्वारा चली आई प्रवृत्ति) अर्थ ग्रहण करना चाहिये । मर्यादा का रक्षण महान् गुण हैं। और उसका भंग करना महान् दोष है । ऊपर लिखे कारणों से अभिमत कार्य के प्रारम्भ
--दोषावरणयोर्हानिर्निःशेषास्त्यतिशायनात् । कचिश्था स्वहेतुभ्यो बाहरग्तलक्षयः । स त्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधों यक्षिन्ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ आप्तमीमांसा ४-६ ॥ २ - अमित फलमिद्धेरभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रातस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तरासादात प्रमुख नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥ ३- देखो आदिपुराण ||