Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
प्राद्य वक्तव्य (१) सन् १९७६ में मेरा यह भाव बना था कि पूज्य व्रती गुरुवर्य श्री रतनचन्द मुख्तार को उनके गौरव के अनुरूप 'अभिनन्दन ग्रन्थ' भेंट कर समाज द्वारा उनका अभिनन्दन किया जाना चाहिए। महामनीषियों श्रतसाधकों का अभिनन्दन यथार्थ में उनका नहीं अपितु जिनवाणी का अभिनन्दन है।
प्रथम सोपान : अभिनन्दन ग्रंथ
विचार बनते ही मैंने शीर्षस्थ जैन विद्वानों से 'अभिनन्दन ग्रंथ' हेतु लेखादि प्रेषित करने के लिए पत्राचार किया, फलस्वरूप लेख पाने लगे। जब करीब पन्द्रह लेख आ गये तब सन् १९७८ में मैंने जैन पत्रों ( जैन गजट, जैन मित्र, जैन सन्देश आदि ) में भी 'आवश्यक निवेदन' शीर्षक से यह प्रकाशित करवा दिया कि जिन त्यागी, साधर्मी, विद्वान्, श्रीमान् प्रादि को सिद्धान्त मर्मज्ञ गुरुवर्य रतनचन्द मुख्तार के सम्बन्ध में संस्मरण, श्रद्धासुमन, लेख आदि भेजने हों वे यथाशीघ्र भेज दें। इसके साथ ही बहुत से साधु-साध्वियों एवं मनीषियों को और भी व्यक्तिगत निवेदन कर दिया । फलतः अभिनन्दन ग्रन्थ हेतु विपुल सामग्री एकत्र हो गई। सम्पूर्ण सामग्री चार महाधिकारों में समाहित की गई-(१) श्रद्धासुमन, संस्मरण अधिकार (२) रत्नत्रयाधिकार (३) शंकासमाधानाधिकार और (४) विविध अधिकार ।
इस अभिनन्दन ग्रंथ की योजना को क्रियान्वित करने और समय-समय पर योग्य सुझाव देकर मुझे प्रोत्साहित करने में तीन महानुभावों का प्रमुख योग रहा-पं० विनोदकुमारजी शास्त्री एम. कॉम., सी. ए. सहारनपुर, श्रीमान् रतनलालजी जैन, पंकज टैक्सटाइल्स, मेरठ सिटी और श्रीमान् सेठ बद्रीप्रसादजी सरावगी पटना सिटी । इन सबका गुरुवर्य श्री से निकट का सम्बन्ध रहा है। इन्होंने गुरुजी से प्रत्यक्षतः स्वाध्याय द्वारा एवं पत्राचार द्वारा भी ज्ञान-लाभ प्राप्त किया है । सामग्री-फोटो लेख आदि जुटाने में श्री विनोदजी ने मेरी सहायता की तो ग्रंथ के प्रकाशन हेतु अर्थ संकट के निवारण में सेठ बद्रीप्रसादजी सरावगी एवं श्री रतनलालजी ने मुझे सतत सान्त्वना एवं अन्य सक्रिय सहयोग दिया, अन्यथा मैं अब तक किया गया कार्य कदापि सम्पन्न नहीं कर पाता। अन्य सहयोगी बने श्रीमान् पं० मिश्रीलालजी शाह ( हाल मुकाम लाडनू ) तथा सहारनपुर निवासी श्री अनिलकुमारजी गुप्ता एम. एस सी. व श्री सुभाषचन्द्रजी जैन इंजिनीयर सा.।
- मुझ प्रज्ञ पर परम पूज्य १०८ आ. कल्पश्री श्रुतसागरजी महाराज ( समाधि ६ मई, १९८८ ) एवं पूज्य १०८ श्री वर्धमानसागरजी महाराज का वरद हस्त रहा, इसी से मैं सम्बल प्राप्त कर आगे बढ़ता गया।
इस प्रकार उक्त सब सज्जनों व मुनिराजों के सहयोग, सम्बल व आशीर्वाद से मैंने पं० रतनचन्द मस्तार अभिनन्दन ग्रंथ की उक्त सामग्री संकलित कर व्यवस्थित की। इसकी वाचना हेतु १७ अक्टूबर १९८० को मैं पूर्वानुमति लेकर संघ में बाड़ा ( पद्मपुरा-जयपुर ) पहुंचा जहाँ प्रा. कल्पश्री श्रु तसागरजी महाराज मुनि वर्धमानसागरजी एवं प्रा. आदिमतीजी, प्रा. श्रेश्रमतीजी व प्रा. श्र तमतीजी सहित वर्षायोग हेतु विराजमान थे । वाचना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org