Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
[ १२ ]
स्व० स्वनामधन्य श्री रतनचन्दजी मुख्सार जिनवाणी माता के यशस्वी सपूत थे। पार्ष परम्परा के शास्त्ररूपी सागर में अवगाहन कर जो रत्नराशि उन्होंने इकट्ठी की, उसे उन्होंने अपने पास ही सीमित नहीं रखा, अपितु खुले हाथ से सुटाया। 'जैन सन्देश' व 'जैन गजट' के माध्यम से जैन तत्त्वज्ञान से सम्बद्ध विविध गूढ़ प्रश्नों के प्रमाणपुष्ट समाधान उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये । उनके समाधानों की विशेषता यह है कि वे प्रत्येक समाधान को संक्षिप्त व सरल शब्दों में प्रस्तुत करते हुए उसे शास्त्रीय वाक्यों से प्रमाणित भी करते हैं। संक्षेप में, 'नामूलं लिख्यते किञ्चित्, नानपेक्षितमुच्यते' की उक्ति उनके समाधानों के लिये चरितार्थ होती है। स्व. श्री मुख्तार सा. के द्वारा प्रस्तुत समाधानों का यह संग्रह वास्तव में एक सन्दर्भग्रन्थ है जिसमें धवला, जबधवला आदि श्रुतसागर को भर दिया गया है । जैन विद्या के अध्येताओं के लिए यह संग्रह पठनीय व मननीय है। दिनांक २१-१२-८८
-डॉ० दामोदर शास्त्री, सर्वदर्शनाचार्य, दिल्ली
(१०) बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्वाध्याय की दिशा में दिगम्बर जैन समाज में अभूतपूर्व उत्क्रान्ति हुई है । अनेक अप्रचलित और दुरूह ग्रन्थों के वेष्टन सैकड़ों सालों के बाद खोले गये और उनके विषय को समझने की कोशिश की गई है। श्री गणेशप्रसादजी वर्णी से लेकर श्री जिनेन्द्रवर्णी तक होती हुई पागम के स्वाध्याय की यह प्रक्रिया आगे बढ़ी है । इसी श्रृङ्खला में एक उल्लेखनीय नाम है-स्व. पं० रतनचन्दजी मुख्तार का। मुख्तार सा० ने सम्भवतः स्वप्रेरणा से ही स्वाध्याय के क्रम को अंगीकार किया था, जिसे उन्होंने एकान्तसाधना की तरह सिद्ध किया और जीवन के अन्त समय तक अपने आपको उसमें लगाये रखने का प्रयास किया।
मुख्तार सा० ने स्वाध्याय से अजित अपने ज्ञान, चिन्तन और अनुभव को अपने तक ही सीमित नहीं रखा अपितु वे उसे उदारतापूर्वक-चर्चा, तर्कपूर्ण ऊहापोह, शंका समाधान आदि के माध्यम से जिज्ञासुनों को सौंपते रहे। उनका अध्ययन और लेखन इसलिए भी कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण रहा कि वे एक संक्रान्ति काल में उदित हुए। ऐसे काल में जब निश्चय और व्यवहार को लेकर, निमित्त और उपादान को लेकर तथा शुभोपयोग
और शुद्धोपयोग को लेकर संभ्रम का वातावरण बन रहा था। धर्म और पुण्य को एक दूसरे का विरोधी और विघातक बता कर आमने-सामने खड़ा कर दिया गया था। इतिहास इस बात के लिये उनका ऋणी रहेगा कि उन्होंने दृढ़तापूर्वक प्रागम की कथनी को नाना प्रकार की युक्तियों से प्रकाशित करके संभ्रम के उस कोहरे को बारबार निरस्त करने का प्रयास किया। उनके द्वारा ज्योतित यह दीपशिखा दीर्घकाल तक मुमुक्षजनों का पथ प्रदर्शित करती रहेगी।
मुख्तार सा. के सुयोग्य शिष्य और आगम ज्ञान के क्षेत्र में उनके अप्रतिम उत्तराधिकारी श्री जवाहरलाल जी ने जिस निष्ठा और समर्पण भाव से अपने गुरु-स्व. मुख्तार सा.-के प्रति इस स्मृतिग्रन्थ के रूप में अपनी जो श्रद्धाञ्जलि प्रस्तुत की है वह सचमुच साधुवाद के योग्य है।
यह विशाल ग्रन्थ-पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व' अपनी विस्तृत और प्रामाणिक सामग्री के कारण सहज ही 'पागम ग्रन्थ' की कोटि में रखा जा सकता है। इसे स्व. मुख्तार सा. की स्मृति में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org