Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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समाधान का संकलन किया गया है, यह खास विशेषता है। यद्यपि ये शंका समाधान पूर्व प्रकाशित हैं तथापि इनको अनुयोगों में विभाजित एवं सुसम्पादित करके एक खुशबूदार शोभादर्शक अनमोल 'गुलदस्ता बनाया गया है। मुख्तार सा. ने कठिन से कठिन दुर्बोध सिद्धान्तों को 'घुनिया' बन कर धुना तव सिद्धान्तों के ये स्थूलसूक्ष्म यक्षप्रश्न रुई के समान मुलायम सहज बन गये। पण्डितजी करणानुयोग के 'कम्प्यूटर' थे। उनके अभिनन्दन, स्मरण, कृतज्ञताज्ञापन के निमित्त तैयार किया गया यह ग्रंथ 'शंका समाधान गणक यंत्र' के रूप में प्रत्येक स्वाध्यायी की चौकी पर 'तत्त्वचर्चा' सुलभ करता रहेगा, ऐसा विश्वास है ।
सोलापुर
दिनांक २-११-८८
प्र० सुमतिबाई शहा -ब्र० विद्युल्लता हिराचन्द शहा
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इसमें सन्देह नहीं है कि श्री पं० रतनचन्दजी मुख्तार विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। वे प्रागममश एवं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी थे। स्वाध्याय और संयम उनका जीवनव्रत रहा है। प्राश्चर्यजनक बात तो यह है कि किसी गुरुमुख से कुछ पढ़े बिना तथा संस्कृत और प्राकृत भाषा के अध्ययन के बिना ही उन्होंने केवल स्वाध्याय के बल पर ही जैनागम के चारों अनुयोगों का अगाध ज्ञान प्राप्त कर लिया था। आप जैन गरिणत के विशिष्ट ज्ञाता थे । अनेक वर्षों तक 'जैन सन्देश' 'जैन गजट' आदि पत्रों में 'शंका समाधान' के रूप में लेखमाला द्वारा श्रापने जिज्ञासुओं को ज्ञान-दान कर उनका महान् उपकार किया है।
-ब्र०
ऐसे आगमममंश महान् विद्वान् की विद्वत्ता का लाभ उनके विरोधान के बाद भी समाज को मिलता रहे, इस प्रयोजन से मुख्तार सा० के प्रधान शिष्य श्री पं. जवाहरलालजी सिद्धान्तशास्त्री एवं सहयोगी डॉ. चेतनप्रकाश जी पाटनी ने एक बहुत ही अच्छा कार्य किया है। वह कार्य है- पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व' नामक उच्चकोटि के ग्रन्थ का सम्पादन और प्रकाशन शंका समाधान तथा पत्राचार के रूप में मुख्तार सा. का जो विशिष्ट ज्ञान था, उस ज्ञान को इस बृहदाकार ग्रंथ में भर दिया गया है ।
संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति इस ग्रन्थ का मनोयोगपूर्वक कम से कम तीन बार स्वाध्याय कर ले, वह जैनागम के चारों अनुयोगों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।
निःसन्देह, पन्द्रह सौ पृष्ठों के इस ग्रन्थ की विपुल सामग्री के संकलन करने में तथा उसे व्यवस्थित करने में सम्पादकों को महान् श्रम करना पड़ा होगा। किन्तु मुख्तार सा० की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिये उनका यह श्रम बहुत ही सार्थक और सफल सिद्ध होगा। अनेक भव्यों का उपकार तो होगा ही ऐसे उच्चकोटि के ग्रंथ के सम्पादकों की जितनी भी प्रशंसा की जाये वह अल्प ही रहेगी ।
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आज इस महान् ग्रंथ को पढ़कर मैं अपने को धन्य समझ रहा हूँ। मेरी इच्छा बार-बार इस कृति को पढ़ने की होती है। अस्तु
दिनांक १-१-८९
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- प्रो० उदयचन्द्र जैन सर्वदर्शनाचार्य, वाराणसी
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