Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ १० ]
श्री पं० रतनचन्द मुख्तार उन महापुरुषों में थे जिनमें स्वध्याय की अत्यधिक लगन थी। वे अपना अधिकांश समय स्वाध्याय, चिन्तन, मनन तथा नोट्स बनाने में लगाते थे। उनके समय में इतना स्वाध्यायशील कोई साधु, विद्वान् या श्रावक नहीं था। उनमें ज्ञान की जितनी अधिकता थी, विनय भी उतनी ही अधिक थी। उनकी समीक्षा में दूसरे की अवमानना का भाव नहीं था। बिल्कुल वीतरागचर्चा थी और वह भी सिद्धान्त के अनुसार।
प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रकाशन न केवल श्री मुख्तारजी के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन का साधन है अपितु इसमें चारों अनुयोगों का सार संकलित है । सामान्य श्रावक की बात जाने दें, अनेक ऐसी शंकाओं का समाधान इस ग्रन्थ में है जिन्हें विद्वान् भी नहीं जानते । यह ग्रन्थ एक आचार्यकल्प विद्वान् द्वारा प्रणीत ग्रन्थ की भांति स्वाध्याय योग्य है। मैंने तो निश्चय किया है कि इसमें संकलित सभी शंकाओं के समाधानों की एक-एक पक्ति पढ़गा। शंकाओं के समाधान से न केवल ज्ञान की वृद्धि होगी बल्कि धम के प्रति आस्था भी दृढ़ होगी।
सम्पादकों के अथक श्रम को जितनी प्रशंसा की जाए, कम है । मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ। दिनांक १२-१०-८८
-डॉ. कन्छेदीलाल जैन, रायपुर (म.प्र.)
आदरणीय स्व. ब्र० पं० रतनचन्दजी मुख्तार 'आगमचक्षु...' पुरुष थे। जीवराज ग्रन्थमाला द्वारा होने वाले 'धवला' ग्रन्थों के पुनर्मुद्रण में आप द्वारा निर्मित शुद्धिपत्रों का सहयोग पण्डित जवाहरलालजी के माध्यम से प्राप्त हुआ, एतदर्थ यह संस्था इन दिवंगत ब्र० पण्डितजी के महान् उपकार का स्मरण करती है। इनके पूरे जीवन चरित्र तथा शंका समाधान रूप विचार-साहित्य-संग्रह का विशाल स्मृति ग्रन्य रूप से प्रकाशन प्रशंसनीय है। दिनांक ३-११-१८
-पं० नरेन्द्रकुमार जैन, न्यायतीर्थ, सोलापुर ( महाराष्ट्र )
(७) स्व. पण्डितजी की काया कालकवलित हो चुकी परन्तु उनका पहाड़ मा विशाल, अचल, गगनचुम्बी व्यक्तित्व 'यावत्चन्द्रदिवाकरौ दीपस्तम्भ बन गया। नदी समान उनकी गतिमान धीर, गम्भीर, सुथरी कर्तृत्वसम्पन्न जीवनी अखण्ड प्रवाहित होकर जन-मन को सुजला-सुफलां-वरदां बना रही है। इस विशालकाय महाग्ग्रन्थ की संरचना, सम्पादना तथा आयोजना विलक्षण अनूठे ढंग से की गई है। पण्डितजी के उत्तग व्यक्तिमत्त्व से बातचीत शुरू होती है । श्री जवाहरलालजी ने स्व. मुख्तार सा. का जीवन चरित्र इतने नपे तुले शब्दों में अंकित किया है जैसे गगनब्यापी सुरभि को शीशी में भर दिया हो । पण्डितजी के दुर्लभ छाया चित्र देखकर वाचक लोहचम्बक वत् प्राकृष्ट होकर पन्ने उलटता-पलटता है। महाग्रन्थ की रचना में जिनवारणी के चारों अनुयोगों के शंका
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