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रमण महपि अपने सच्चे स्वरूप के इस अन्वेषण से बचते है परन्तु इससे बढकर और कौन-सा अन्वेपण हो सकता है ?
इस सम्पूर्ण साधना मे मुश्किल से आध घण्टा लगा । तथापि हमारे लिए यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि यह एफ साधना थी। प्रकाश-प्राप्ति का प्रयाम है, निष्प्रयास जागरण नही है। सामान्यत एक गुरु अपने शिष्यो को उमी माग पर ले जाता है, जिसका उसने स्वय अनुसरण किया है। श्रीभगवान् ने आध घण्टे के अन्दर न केवल जीवन भर की, बल्कि अधिकाश साधको के लिए अनेक जीवनो की साधना पूरी कर ली, इससे यह तथ्य नहीं बदलता कि यह आत्म-अन्वेपण का प्रयास था। उन्होने वाद मे अपने अनुयायियो से इसी का अनुसरण करने के लिए कहा था। उन्होंने अपने भक्तो को यह चेतावनी दी कि आत्म-अन्वेपण से सामान्यत सिद्धि शीघ्र नहीं मिलती। इसके लिए काफी लम्बे अरसे तक प्रयास करना पडता है। साथ ही उन्होने यह भी कहा कि “यही एकमात्र प्रत्यक्ष निर्धान्त साधन है, उस निरपेक्ष परम सत्ता की अनुभूति का जो आप स्वय वस्तुत हैं।" (महर्षोज गॉस्पल, दूसरा भाग) उन्होंने कहा कि इससे तत्काल ही रूपान्तरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, भले ही इसके पूर्ण होने मे देर ही क्यो न लगे। "परन्तु ज्यो ही अहभाव अपने को जानने का प्रयास करता है, यह शरीर मे कम से कम रमता है और आत्म-चैतन्य मे अधिक से अधिक ।"
यह भी महत्त्वपूर्ण बात है कि साधना के सिद्धान्त या व्यवहार के सम्बन्ध मे कुछ भी न जानते हुए श्रीभगवान् ने एकाग्रता के लिए प्राणायाम का आश्रय लिया। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि प्राणायाम से विचारो के नियन्त्रण मे सहायता मिलती है। उन्होने अन्य किसी प्रयोजन के लिए प्राणायाम के प्रयोग को निरुत्साहित किया और वस्तुत अपने शिष्यो को इसका कभी आदेश नही दिया
"प्राणायाम भी एक साधन है। यह उन विभिन्न विधियो म से एक है, जिनका प्रयोग चित्त की एकाग्रता के लिए किया जाता है । प्राणायाम से इधर-उधर भटकते हुए मन को नियन्त्रित करने और एकाग्रता प्राप्त करने मे सहायता मिलती है, इसलिए इसका प्रयोग भी किया जा सकता है । परन्तु व्यक्ति को यही नही रुक जाना है । प्राणायाम द्वारा मन पर नियन्त्रण प्राप्त करने के वाद, व्यक्ति को इससे प्राप्त अनुभव से ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, अपितु नियन्त्रित मन को 'मैं कौन हूँ ?' इस प्रश्न की ओर तब तक लगाना चाहिए जब तक कि मन आत्मा मे लीन न हो जाय।"
चैतन्य की इस परिवर्तित अवस्था के कारण वेंकटरमण के मूल्यो