Book Title: Raman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Author(s): Aathar Aasyon
Publisher: Shivlal Agarwal and Company

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Page 190
________________ पन्द्रहवां अध्याय भक्तजन सामान्यत भक्तजन बहुत सामान्य लोग थे। सभी विद्वान या बौद्धिक नहीं थे। तथ्य तो यह है कि बहुधा ऐसा देखने में आता था कि अपने सिद्धान्तों में लीन कोई बुद्धिवादी जीवित सत्य के दान करने में असफल हो जाता और मटक जाता । जवकि कोई सरल और सीधा-सादा व्यक्ति स्थिर रहता, पूजा करता और अपनी सच्ची लगन से भगवान का कृपा-भाजन बनता । आत्म-अन्वेपण को शान-माग कहते है, इसलिए कभी-कभी ऐसा ख्याल किया जाता है कि बुद्धिवादी ही केवल इसका अनुसरण कर सकते हैं । परन्तु जिस चीज़ की आवश्यकता है वह हार्दिक भाव है न कि सैद्धान्तिक ज्ञान । सैद्धान्तिक ज्ञान सहायक हो सकता है परन्तु यह बाधक भी मिद्ध हो सकता है। श्रीभगवान ने लिखा "उन व्यक्तियो के ज्ञान का क्या लाभ जो अपने से यह प्रश्न नहीं करते कि 'हम शिक्षितो का जन्म कहाँ से हुआ है ?' और इस प्रकार भाग्य-रेखाओ को मिटाने का प्रयास नहीं करते। उन्होंने अपने को एक ग्रामोफोन के समान बना दिया है। अरुणाचल ! इसके अतिरिक्त वे और क्या हैं ? ज्ञान के वावजूद जिनका अहमाव नहीं गया उनकी मुक्ति नहीं होगी परन्तु अशिक्षित व्यक्तियों की मुक्ति हो जायगी।" (सप्लीमेण्टरी फॉर्टी प्रसिज, ३५-३६) । भाग्य रेखाओ को मेटने का अभिप्राय यह है कि हिन्दू विचारधारा के अनुसार, मनुष्य का भाग्य उसके मस्तक पर लिखा है और उसे कम बन्धन से मुक्त होना है। पांचवें अध्याय मे जो कुछ कहा गया है, उसकी इससे पुष्टि होती है कि भाग्य के सिद्धान्त से प्रयल की सम्भावना या इसके लिए आवश्यकता का लोप नहीं हो जाता। मान म्वय में देय नहीं है, जिस प्रकार कि भौतिक सम्पत्ति और मानमिक शक्लियो नहीं है, किन्तु इनके लिए इच्छा और इनमे आसक्ति निन्दनीय है। ये व्यक्ति को अन्धा बना देती हैं और सच्चे लक्ष्य से पथभ्रष्ट कर देती हैं। जमा कि एक पूर्वोदघृत प्राचीन ग्रन्थ मे मानसिक शक्तियो के सम्बन्ध में कहा गया है, वे पशु को बांधने के लिए रज्जु के सदृश हैं । साधना के लिए प्रतिभा

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