Book Title: Raman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Author(s): Aathar Aasyon
Publisher: Shivlal Agarwal and Company

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Page 188
________________ उपदेश प्रभाव के कारण है। शाब्दिक व्याख्याओ की अपेक्षा इस प्रकार के विकास श्रीभगवान् की शिक्षा के सार तत्त्व थे । श्रीभगवान् की सदा वद्धमान कृपा भक्तो को उनके अधिकाधिक निकट ला रही थी और इस प्रकार भक्ति के माध्यम से उनके हृदयो को विचार के लिए तैयार कर रही थी। न केवल भक्तो का बल्कि आकस्मिक आगन्तुको का भी ऐसा अनुभव था कि अन्तिम वर्षों में श्रीभगवान का चेहरा अत्यन्त कोमल और दीप्तिमान हो गया था। प्रेम के माध्यम से वह ज्ञान की ओर ले जाते थे, जिस प्रकार कि ज्ञान के माध्यम से विचार प्रेम की ओर ले जाता है। उनके प्रति भक्ति मन को आत्मोन्मुख करती थी जिस प्रकार कि आत्मा की तलाश व्यक्ति के हृदय में असीम प्रेम को जागरित करती है। एक भक्त ने श्रीभगवान का इस प्रकार वणन किया है "उनके चेहरे को देखें, यह इतना आकर्षक, इतना सदय और इतना बुद्धि वैभव सयत है, परन्तु साथ ही इस पर नवजात शिशु का भोलापन झलकता है। वे जो कुछ ज्ञातव्य है, सब जानते हैं। उनके दशनो से हृदय मे एक तरग उत्पन्न होती है। ऐसा लगता है मेरे अस्तित्व का, मेरे बाह्याभिमुख हृदय का रूपान्तरण हो रहा है। हृदय में बार-बार यह भावना उठती है कि मैं कौन हूँ? और इस प्रकार प्रेम अत्वेपण की ओर ले जाता है।" जिम प्रकार भगवान् वाणी और लेखन द्वारा साधना के तकनीक का वणन करते थे, उस प्रकार अन्य शिक्षक नहीं करते। इसका कारण यह है कि इस प्रकार का तकनीक केवल तभी प्रभावशाली होता है जब इस तकनीक के प्रयोक्ता को, उसके गुरु द्वारा वह उपदेश रूप में दिया जाये। इस विषय मे श्रीभगवान् की नवीन पद्धति के कारण यह प्रश्न पैदा होता है कि विचार कैसे व्यक्ति में प्रवेश कर सकता है, गुरु द्वारा व्यक्तिगत रूप मे अनुपदिष्ट साधना किस प्रकार भक्त में प्रवेश कर सकती है। __ श्रीभगवान् ने स्वयं इस सावलौकिक परम्पग की पुष्टि की कि साधना की पद्धति केवल तभी उचित है जब कि गुरु द्वारा उपदिष्ट हो । जब एक वार उनसे यह प्रश्न किया गया कि क्या व्यक्ति किसी प्रकार सीले गधे मन्त्री से लाभ उठा सकता है। तो उन्होंने उत्तर दिया, "नहीं, उसे मन्त्री की दीक्षा दी जानी चाहिए।" फिर कैसे उन्होने खुले रूप में विचार की व्याख्या की और कभी-कभी जिनासुओ से अपने अथो में लिखित व्याख्याओ का अध्ययन करने के लिए महा ? इसका एकमात्र उत्तर यही है कि वह तिरुवन्नामलाई में उनके निकट जाने वाले कुछ व्यक्तियो के गुरु मात्र ही नहीं हैं। वे गुरु से बढकर हैं । उनषा अपने भक्तों पर अधिकार है, इसलिए उन्होंने इसकी स्वीकृति दी।

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