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रमण महर्षि
कई उदाहरणो में वे साथ-साथ चलते हैं। बहुत से भक्तो ने श्रीभगवान् से कहा कि उन्होने किसी गुरु द्वारा निर्दिष्ट इन उपायो का आश्रय लिया था या वह इनके प्रयोग के लिए श्रीभगवान की स्वीकृति चाहते थे। श्रीभगवान् ने भक्तो की वातो को कृपापूर्वक सुना तथा अपनी स्वीकृति प्रदान की । परन्तु अगर किसी भक्त को यह उपाय बाधक प्रतीत हुआ तो श्रीभगवान् ने उससे भी सहमति प्रकट की। एक भक्त ने उन्हें बताया कि अब उसे अन्य उपायो से जिनका उसने पहले प्रयोग किया, उसे कोई सहारा नही मिलता था । उसने उन उपायो का परित्याग करने के लिए उनकी स्वीकृति चाही । उन्होने उत्तर दिया, "हां, अन्य सब उपाय केवल विचार की ओर ले जाते हैं।"
___ कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता था कि बहुत कम लोग विचार का प्रयोग करने की आकाक्षा रखते थे । वस्तुत आश्रम मे आने वाले बहुत से व्यक्तियो के लिए जो जीवन के रहस्यो की व्याख्या या शान्ति या चरित्र के शुद्धीकरण और दृढीकरण के निमित्त किसी अनुशासन के लिए कहते थे, अद्वैत मिद्वान्त या आत्म-अन्वेषण की साधना के आचरण का सिद्धान्त दुरूह था। इसीलिए सतही दर्शक को यह देखकर निराशा या विक्षोभ होता था कि इन व्यक्तियो को शान्ति का प्रसाद नही मिला। परन्तु सतही दर्शको को ही ऐसा अनुभव होता था क्योकि जो व्यक्ति जितने अधिक निकट से देखता था, वह इस परिणाम पर पहुंचता था कि वास्तविक उत्तर शाब्दिक नहीं बल्कि मौन प्रभाव है जो प्रश्नकर्ता के मन को आन्दोलित करता है।
अपनी व्याख्याओ मे श्रीभगवान् अन्तिम सत्य के प्रति अनुरक्त थे जिसे केवल ज्ञानी ही जानता है। वह इस सिद्धान्त को मानते थे कि भिन्नता से, अतीत होने के कारण, ज्ञानी कोई सम्वन्व नही रखता और इसीलिए वह किसी को अपना शिष्य नही कहता । उसकी मौन कृपा, मन पर इस प्रकार का प्रभाव डालती है कि वह अपने विकास के लिए सर्वाधिक उपयुक्त उपायो को ढूंढ लेता है, पहले ऐसे भक्तो की चर्चा की गयी है जिन्होंने केवल समर्पण करने और मन को शान्त रखने का यत्न किया । “गुरु की कृपा समुद्र के समान है। अगर कोई व्यक्ति एक प्याला लेकर आता है, तो उसे केवल एक प्याला ही मिलेगा। समुद्र के दारिद्रय की शिकायत करने का कोई लाभ नही । जितना ही वहा पात्र होगा उतना ही अधिक जल उसमे आयेगा। यह पूर्णत उम पर निर्भर करता है।" ___ एक वृद्ध फ्रेंच महिला, जो एक आश्रमवामी भक्त की माता थी, आश्रम देखने आयी । न तो वह दशन ममझती थी और न उन्होंने इसके समझने की कोई चेष्टा की, परन्तु आश्रम मे आगमन के समय से ही वह मच्ची कैथोलिक वन गयी। उन्होंने यह स्वीकार किया कि यह परिवतन श्रीभगवान् के