Book Title: Raman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Author(s): Aathar Aasyon
Publisher: Shivlal Agarwal and Company

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Page 206
________________ लिखित रचनाएँ १७७ वाले अरुणाचल, तूं सूय के समान मेरे हृदय-कमल को आनन्द मे विकसित कर। हे अरुणाचल | तुझ मे ही ससार का निर्माण, स्थिति और लय है । इस पहेली मे सत्य का आश्चर्य निहित है। तूं ही अन्तरात्मा है जो हृदयो मे 'मैं' के रूप मे नृत्य करता है। हे भगवान् । हृदय ही तेरा नाम है। हे अरुणाचल | जो व्यक्ति शान्त मन से यह जानने के लिए अन्तराभिमुम्ब होता है कि 'मह' की चेतना कहाँ से उत्पन्न होती है, वह आत्मा को जान लेता है और जिस प्रकार नदी समुद्र मे लय हो जाती है उसी प्रकार वह तुझ मे लय हो जाता है। हे अरुणाचल । योगी वाह्य ससार का परित्याग करके, तेरा चिन्तन करने के लिए मन और प्राण पर नियन्त्रण करके, तेरे प्रकाश के दशन करता है और आनन्द विभोर हो उठता है। हे अरुणाचल ! जो व्यक्ति अपना मन तुझे समर्पित कर देता है और सदा तुझे दृष्टिसम्मुख रखते हुए विश्व को तेरा रूप समझता है, जो मदा तेरो प्रशस्ति करता है और तुझे आत्मा समझ कर तुझसे स्नेह करता है, वह ऐमा शिक्षक है जिसके समान कोई दूसरा नही, वह तेरे साथ एकरूप है और तेरे आनन्द मे लीन है। ये स्तोत्र अन्य चार की अपेक्षा अधिक सैद्धान्तिक हैं और साधना के तीन मुख्य मार्गों का वणन करते हैं। वाद मे इनके सम्बन्ध में चर्चा करते हुए श्रीमगवान् ने कहा, "तीसरे स्तोत्र मे सत्, चौथे में चित् और पांचवें मे आनन्द के मम्बन्ध में वताया गया है। ज्ञानी सत या सत्ता के साथ उसी प्रकार एकरूप हो जाता है, जिस प्रकार नदी समुद्र के साथ । योगी चित् के प्रकाश को देखता है । भक्त या कर्मयोगी आनन्द के समुद्र में निमग्न रहता है। ___ पांचों स्तोत्रो मे से मर्वाधिक हृदयस्पर्शी और प्रिय मरीटल गारलैण्ड ऑफ ए हर एण्ड एट वसिम टू श्री अरुणाचल या अरुणाचलशिव है। श्रीभगवान के विरूपाक्ष-वास काल के प्रारम्भिक वर्षों में पलानीस्वामी तथा अन्य भक्त नगर मे भक्तो के लिए मिक्षा मांगने जाया करते थे। एक दिन जब वे भिक्षाटन के लिए जाने लगे उन्होने श्रीभगवान् से एक भक्ति-गीत गाने के लिए कहा। उन्होने उत्तर दिया कि ऋपियो ने कई सुन्दर गीतों की रचना की है इसलिए किमी नवीन गीत-रचना की अब कोई आवश्यकता नही है। फिर भी भक्तो ने उनसे अनुनय करना जारी रम्बा। कुछ दिनो वाद पेंसिल और कागज लेकर उन्होंने पहाडी को प्रदक्षिणा प्रारम्भ की और प्रदक्षिणा करते समय १०८ पदो की रचना की।

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