Book Title: Raman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Author(s): Aathar Aasyon
Publisher: Shivlal Agarwal and Company

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Page 216
________________ महासमाधि १८५ जाना चाहिए और आपरेशन भी परम्परा का उल्लघन है। श्रीभगवान् ने आपरेशन को तो स्वीकार किया परन्तु अग-विच्छेद कराने से इन्कार कर दिया। “चिन्ता का कोई कारण नही है । शरीर स्वयमेव एक रोग है, इसका प्राकृतिक अन्त होना चाहिए। इसका अग-विच्छेद क्यो किया जाय ? खाली मरहम पट्टी ही पर्याप्त है।" उनके इस कथन से कि 'चिन्ता का कोई कारण नही है' भक्तो मे इम आशा का सचार हो गया कि वह ठीक हो जायेंगे, हालांकि उनके वाद के शब्द और डाक्टरो की सम्मति इसके विरुद्ध थी, परन्तु उनके लिए मृत्यु चिन्ता का कारण नही थी। __उनके इस कथन से भी लोगो की आशा बलवती हो उठी, “समय आने पर मव कुछ ठीक हो जायेगा।" परन्तु तथ्य तो यह है कि हमे घटना-चक्र की यथाथता का निरीक्षण करना था, उन्हे इसमे लेशमात्र भी सन्देह नही था। इस समय के लगभग उन्होंने तमिल पद्य मे भागवतम् (स्कन्ध ११, अन्याय १३, श्लोक ३६) के एक श्लोक का अनुवाद किया, "कर्मों के परिपाक के परिणाम स्वरूप मिलने वाला यह शरीर स्थिर रहे या चलता-फिरता रहे, जीवित रहे या इसका अन्त हो जाये, आत्म-माक्षात्कारकर्ता ऋपि को इसका उसी प्रकार भान नहीं होता जिस प्रकार कि शराबी को उन्मत्तावस्था मे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने वस्त्र धारण कर रखे है या नहीं।" कुछ समय बाद उन्होने योग वासिष्ठ के एक पद की व्याख्या की "निराकार शुद्ध आत्मा के रूप मे माक्षात्कार करने वाले ज्ञानी का शरीर यदि तलवार से काट भी दिया जाये तो भी उस पर कोई प्रभाव नही पडता । यदि मिश्री की डली को तोड़ दिया जाये या पीस दिया जाये तो भी उसका मिठास नही जाता।" __क्या थीभगवान् ने वस्तुत कप्ट अनुभव किया ? उन्होंने एक भक्त से कहा, "भक्तजन इस शरीर को भगवान् समझते है और इस पर कष्ट का आरोपण करते हैं। कितनी करुणाजनक बात है ।" और एक भक्त से उन्होने कहा, "अगर मन न हो तो पीडा कहां से आयेगी?" फिर भी उन्होंने सामान्य भोतिक प्रतिक्रियाएं और सर्दी तथा गर्मी के प्रति सामान्य सवेदना प्रदर्शित की । एक भक्त श्री एम० एम० कोहन का कथन है कि कुछ वप पूर्व भगवान् ने पहा था, "अगर नानी का हाथ चाकू से काट दिया जाये तो उसे उसी प्रकार पीडा होगी जिस प्रकार अन्य सामान्य व्यक्तियों को होती है, परन्तु चूंकि उसका मन परमानन्द में प्रतिष्ठित है, इसलिए उसे इतनी तीय पीडा अनुभव नहीं होती जितनी कि दूसरे व्यक्तियो को।" ऐसी बात नही है कि ज्ञानी को पोष्टा न होती हो, परन्तु यह शरीर के साथ अपनी एकरूपता अनुभव नहीं

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