Book Title: Raman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Author(s): Aathar Aasyon
Publisher: Shivlal Agarwal and Company

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Page 209
________________ रमण महपि सत्ता के सम्बन्ध मे चालीस पदो के अनेक अनुवाद हुए हैं और इस पर टीकाएँ लिखी गयी हैं । इसमे सार्वलौकिकता और बुद्धिमत्ता की भावना निहित है, जिसको टीका की आवश्यकता है । जैसा कि उपरि उद्धृत वार्तालाप मे श्रीभगवान् ने बताया यह एक सतत कविता के रूप मे नही लिखा था अपितु पदो की रचना भिन्न-भिन्न समयो पर हुई थी । परिशिष्ट के चालीस पदो मे से कुछ की रचना स्वय श्रीभगवान् ने नही की थी, वल्कि उन्होने इन्हे अन्य स्रोतो मेलिया, क्योकि उन्हें जहाँ पहले ही कही पूर्ण पद दृष्टिगत हुआ उन्होंने नये पद की रचना करना आवश्यक नही समझा तथापि सम्पूर्ण रचना उनके सिद्धान्त का पूर्ण और विद्वत्तापूर्ण प्रतिपादन है । १८० इन दो वर्गों के अतिरिक्त कुछ छोटी कविताएं भी हैं । उनमे हास्य का अभाव नही है । एक कविता में, दक्षिण भारतीय स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ पोप्पाम के लिए आवश्यक नुस्खे के प्रतीक का आश्रय लेते हुए साधना के मम्वन्ध मे निर्देश दिये गये हैं । एक दिन श्रीभगवान् की माताजी पोप्पादुम बना रही थी । उन्होने भगवान् से इस कार्य मे हाथ बँटाने के लिए कहा । उन्होने तत्काल ही अपनी माताजी के लिए प्रतीकात्मक नुस्खा लिखा 1 कवि अव्वायार ने एक वार पेट के विरुद्ध शिकायत लिखी "तुम एक दिन भी विना भोजन के नही रह सकते, न ही तुम वक्त मे दो दिन का इकट्ठा भोजन कर सकते हो | ओह । अभागे पेट | मुझे तुम्हारे कारण जो कष्ट उठाना पडता है उसका तुम अनुमान नही लगा सकते । तुम्हारे साथ निर्वाह करना कठिन है !” 1 एक दिन आश्रम में सहभोज हुआ। सभी लोग थोडी बहुत परेशानी अनुभव कर रहे थे । श्रीभगवान् ने अव्वायार की कविता को हास्य रूप देते हुए कहा, "ऐ पेट | तुम मुझे एक घण्टे के लिए भी आराम नही लेने दोगे । प्रतिदिन प्रति घण्टे तुम्हारा खाना जारी है। ओ परेशानी पैदा करने वाले अह । तुम्हारे कारण मुझे कितना कप्ट उठाना पडता है, इसका तुम अनुमान नहीं लगा सकते । तुम्हारे साथ निर्वाह करना असम्भव है ।" 1 सन् १९४७ मे श्रीभगवान् ने अपनी अन्तिम कविता लिखी। इस बार यह कविता किसी की प्रार्थना पर नही लिखी गयी थी, परन्तु इसमे असाधारण कोशन प्रकट होता था, क्योकि पहले उन्होने इमे तमिल छन्द मे तेलुगु में लिखा और फिर इसका तमिल मे अनुवाद किया। इसका नाम उन्होंने एकात्मापचकम् ग्वा । आत्मा को भूलना, शरीर को गलती मे आत्मा ममयना, अमस्य जन्म धारण करना और अन्त मे आत्मा को पाना और आत्मम्प बनना - यह सारे मसार की परिक्रमा के स्वप्न मे जागने के समान है । जो व्यक्ति आत्मम्प होते हुए यह पूछना है कि 'मैं यौन हूँ?"

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