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रमण महपि
जैसे-जैसे श्रीभगवान् यह गीत निखते जाते थे उनके नेग्रो से आनन्दात्रु बहते जाते ये । कई वार उनकी आंखो के आगे धुन्ध छा जाता था और गला ऊँध जाता था । भक्तो के लिए यह कविता महान् भक्ति म्फुरणा का स्रोत वन गयी। इसके मुन्दर प्रतीको मे मिलन-उत्कण्ठा की पीडा और उत्कण्ठापूर्ति का आनन्द प्रतिविम्वित है। ज्ञान की पूणता के माथ-साथ भक्ति का आनन्दातिरेक है। परन्तु यह मर्वाधिक मार्मिक कविता जिज्ञासु भक्त के दृष्टिकोण मे लिखी गयी थी। इस कविता के १०८ पद तमिल वणमाला के अमिक अक्षरो से प्रारम्भ होते हैं । अन्य कोई कविता इतनी अधिक स्वत स्फूत नही है। कई भक्तो ने श्रीभगवान् से कुछ पदो की व्याख्या करने के लिए कहा और उन्होंने उत्तर दिया "आप भी इस पर विचार करें और मैं भी विचार करुंगा। मैंने इसकी रचना करते समय इस पर विचार नहीं किया, जैसे-जैसे भाव मेरे मन मे आते गये तैसे-तैसे में उन्हे लिपिवद्व करता गया।"
हे अरुणाचल | मेरे घर मे प्रवेश करके और मुझे आकर्पित करके, तू मुझे अपनी हृदय-गुहा मे कैदी क्यो बनाये हुए है ? ।
क्या तूने अपनी प्रसन्नता के लिए या मेरे लिए मेरे हृदय को जीता? हे अरुणाचल, अगर अब तू मुझे दूर हटा देगा तो मसार तुझे दोपी ठहराएगा।
हे अरुणाचल | इस दोप को अपने पर आरोपित न होने दो। तुम वार-वार मुझे क्यो म्मरण आते हो ? मैं तुम्हे अब कमे छोड मकता हूँ?
हे अरुणाचल | तुम माता से भी वढकर दयालु हो । ह अरुणाचल | क्या यह तेग प्रेम है?
हे अरुणाचल | मेरे मन मे सदा विगजमान रहो ताकि कही मेग मन पथभ्रप्ट न हो पाये ।
हे अरुणाचल | अपने सौन्दय को उद्घाटित करो ताकि मेरा चचल मन तुम्हारे दर्शन कर सके और उसे शान्ति का वग्दान प्राप्त हो ?
हे अरुणाचल । मुझे अपने प्रेम-पाश मे आवद्व कर लेने के बाद अगर तू मुझे अब अपने चरणो मे शरण नही देगा ता तेरी वीरता कहाँ गयी?
हे अरुणाचल | जब दूमरे मुझे अपमानित कर रह हैं, आगरा इस प्रकार सोना क्या शोभा देता है ?
हे अरुणाचल । जव पांच इन्द्रिया के चोर मुझमे मा घुमे हैं, क्या आप अव भी मेरे मन में विराजमान नहीं हैं ?
हे अरुणाचल । तू एम है, तेरे ममान कोई दूमग नहीं है, तव