________________
रमण महर्षि
मेरा ध्यान 'अह' पर केन्द्रित था। इससे पहले मुझे अपनी आत्मा की स्पष्ट अनुभूति नहीं हुई थी और मैं इसकी ओर चेतन स्प से आकृप्ट नही हुआ था । मुझे इसमे कोई प्रत्यक्ष दिलचस्पी अनुभव नही हुई, इसमे स्थायी रूप से रहने की तो और भी कम इच्छा हुई ।"
बिना किसी आडम्बर और वाक्-प्रपच के अगर सीधे-सादे शब्दो मे कहे तो यह अवस्था अहभाव से भिन्न नही, परन्तु इमका एकमात्र कारण 'मैं' और 'आत्म' शब्दो की अस्पष्टता है। मृत्यु के प्रति हमारी धारणा के कारण यह अन्तर पैदा होता है जिसका ध्यान 'अह' मे केन्द्रित होता है, जो 'अह' को एक पृथक् व्यक्ति के रूप मे देखता है, वही मृत्यु से भयभीत होता है । मृत्यु हमारे अह के विनाश की धमकी देती है। परन्तु यहाँ तो मृत्यु के भय का सवथा लोप हो चुका था। महर्षि ने यह अनुभव कर लिया था कि 'अह' उस सावलौकिक अमर आत्मा के साथ एकरूप है जो प्रत्येक व्यक्ति में विराजमान है। यह कथन भी ठीक नही कि वह यह जानते थे कि वह विश्वात्मा के साथ एकरूप है। इससे तो ऐसा लगता है कि 'अह' की पृथक् सत्ता है जो इसे जानता है जवकि महर्षि ने यह अनुभव कर लिया था कि वे आत्मा हैं।। ___कुछ वप वाद श्रीभगवान् ने एक पाश्चात्य जिज्ञासु श्रीपाल व्रण्टन के सम्मुख इस अन्तर की इस प्रकार व्याख्या की थी'
ब्रण्टन-"उस आत्मा का स्वरूप क्या है जिसकी आप चर्चा करते हैं ? आप जो कुछ कहते हैं, अगर वह सत्य है, तो उस स्थिति मे मनुष्य मे एक दूसरी आत्मा होनी चाहिए।"
श्रीरमण-"क्या एक व्यक्ति के दो स्वरूप, दो आत्माएँ सम्भव हैं ? इस विपय को समझने के लिए पहले यह आवश्यक है कि मनुष्य अपना विश्लेषण करे । चूंकि वह लम्बे अरसे से अन्य लोगो की तरह सोचता आया है, इसलिए उसने कभी सच्चे ढग से 'अह' का सामना नही किया है। उसके सम्मुख अपनी सही तस्वीर नही है, उसने लम्बे अरसे से शरीर और मस्तिष्क के साथ अपने को एकरूप अनुभव किया है। इसलिए मैं आपसे कहूँगा कि आप इस सत्य का अन्वेपण करें कि 'मैं कौन हूँ' ? ___ "आपने इस यथार्थ आत्म-तत्त्व का वणन करने के लिए मुझसे कहा है। इसके बारे मे क्या कहा जाय ? यह वह तत्त्व है जिसमे से 'मैं' की भावना पैदा होती है और इसी मे इसे लय होना है।"
इस पुस्तक में दिया गया श्रीपाल मण्टन का यह तथा अन्य उखरण राहगर एण्ड को०, लवन द्वारा प्रकाशित 'A Search in Secret India' पर आधारित है और आश्रम ने श्रीपाल मण्टन की अनुमति से उद्धृत किया है।