Book Title: Raman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Author(s): Aathar Aasyon
Publisher: Shivlal Agarwal and Company

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Page 166
________________ उपदेश १४१ जिसे (पादरी की दीक्षा की तरह) दीक्षा और उपदेश देने का अधिकार है। वह प्राय उत्तराधिकार से गुरु होता है और आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए पारिवारिक चिकित्सक के सदृश होता है। दूसरे, गुरु वह भी हो सकता है, जिसे उत्तराधिकारी गुरु होने के अतिरिक्त कुछ आध्यात्मिक सिदि भी प्राप्त हो और जिस उच्च स्थिति तक वह स्वयं पहुंचा है, वहाँ तक ओजस्वी उपदेश द्वारा (हालांकि वास्तविक क्रियाएँ वही हो सकती हैं) शिष्यो का मार्गदशन कर सके । परतु शब्द के सर्वोच्च और सच्चे अर्थ मे, गुरु वह है जिसने विश्वात्मा के साथ एकरूपता अनुभव कर ली है। यही सत्-गुरु है । ___ इसी अन्तिम अथ मे श्रीभगवान् गुरु शब्द का प्रयोग किया करते थे। इसीलिए वह कहा करते थे, "भगवान्, गुरु और आत्मा एक है।" गुरु का वणन करते हुए उन्होंने (आध्यात्मिक शिक्षा में कहा है "गुरु वह है जो सदा आत्मा की गहराई मे रहता है। वह अपने और दूसरो के बीच कभी कोई भेद नही देखता। वह मेद की असत्य धारणाओ से पूर्णत मुक्त होता है अर्थात् वह स्वय ज्ञानी या मुक्त है जव कि उसके चारो ओर के लोग बन्धन या अज्ञान के अन्धकार से प्रस्त हैं। किसी भी परिस्थिति में उसकी दृढता या आत्म-स्वामित्व के भाव को आन्दोलित नहीं किया जा सकता और वह कभी विक्षुब्ध नहीं होता।" इस गुरु के प्रति आत्म-समपण अपने से बाहर किसी व्यक्ति के प्रति आत्म ममपण नही बल्कि वाहत अभिव्यक्त आत्मा के प्रति समपण है ताकि व्यक्ति अपने अन्तर के आत्मा को खोज सके । "स्वामी अन्दर है । चिन्ता का अभिप्राय इस अज्ञान को दूर करना है कि वह केवल बाहर है। अगर वह कोई अजनवी होता, जिसकी आप प्रतीक्षा कर रहे होते तो वह निश्चित ही लुप्त हो जाता। इस प्रकार की अस्थायी सत्ता का क्या लाभ ? परन्तु जव तक आप यह सोचते हैं कि आप पृथक हैं या आप शरीर हैं, तब तक वाय स्वामी भी आवश्यक है और वह मानो शरीरधारी के रूप में प्रकट होगा। जब व्यक्ति शारीर के साथ गलत एकरूपत्ता को अनुभव करना वन्द कर देता है तब उसे आत्मा ही स्वामी दिखाई देती है।" यह स्वत सिद्ध है कि जिस व्यक्ति ने निरपेक्ष सत्ता के साथ अपनी एकरूपता अनुभव कर ली है और जो इम सर्वोच्च अथ में गुरु है, वह ऐसा नहीं कहता क्योकि इस एकरूपता की पुष्टि के लिए उसका मह ही नहीं रहता। वह यह भी नहीं कहता कि उसके शिष्य हैं क्योकि अन्यत्व से दूर होने के फारण, उसके लिए कोई सम्बध नहीं हो सकता। यद्यपि शानी निरपेक्ष सत्ता के साथ एकरूप होता है, उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में, उसके चरित्र की विशेषताएं वाह्य रूप से बनी रहती हैं,

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