________________
१४८
रमण महर्षि पर पहुंच गये थे, उनका मनोरथ सिद्ध हो गया था। उन्होने अपने आने का प्रयोजन कहा । श्रीभगवान् ने उनसे पूछा, "क्या आप दक्षिणामूत्ति के सम्बन्ध मे जानते हैं ?"
उन्होंने उत्तर दिया, "मैं यह जानता हूँ कि वे मौन उपदेश दिया करते थे।" श्रीभगवान् ने कहा, "यहाँ भी आपको यही उपदेश मिलेगा।"
तथ्य तो यह है कि यह मौन उपदेश बहुत भिन्न था। श्रीभगवान् ने विचार या आत्म-अन्वेपण के सम्बन्ध मे बहुत कुछ कहा और लिखा । इसलिए लोगो का ऐसा विचार था कि वह केवल उस ज्ञान मार्ग का उपदेश देते थे, जिसका पालन इस युग के अधिकाश लोगो के लिए अत्यन्त कठिन है । परन्तु तथ्य तो यह है कि उनका उपदेश सार्वलौकिक था। वह ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग दोनो द्वारा प्रत्येक व्यक्ति का मार्ग दर्शन करते थे। उनके लिए प्रेम और भक्ति मुक्ति के मार्ग मे आने वाली खाई के पुल है। उनके अनेक शिष्य ऐसे थे जिनके लिए उन्होंने कोई अन्य मार्ग निर्धारित नहीं किया।
कुछ समय बाद कोई साधना का कार्य न दिये जाने के कारण यही वेंकटरमण व्यग्र हो उठे और उन्होने शिकायत की।
भगवान् ने पूछा, "आपको कौन-सी चीज यहां खींचकर ले आयी?" "स्वामी, आपका विचार ।" "तब यही आपकी साधना भी है। यही पर्याप्त है।"
वस्तुत भगवान् का विचार या स्मृति सदा सवत्र वेंकटरमण के साथ रहने लगी, वह उनसे पृथक नही की जा सकती थी।
भक्ति का मार्ग भी वस्तुत समर्पण का मार्ग है । सारा भार गुरु पर डाल दिया जाता है । भगवान् का भी यही उपदेश था। एक भक्त से उन्होने कहा था, "मेरे प्रति समर्पण कर दो और मैं तुम्हारे मन को शान्त कर दूंगा।" एक दूसरे भक्त के प्रति उनकी उक्ति थी, "आप केवल शान्त रहे। शेप सव काय भगवान् कर लेंगे।" उन्होन अपने एक अन्य भक्त देवराज मुदालियर से कहा था, "आपका कार्य केवल समर्पण करना है, शेप मब आप मुझ पर छोड दें।" वह प्राय कहा करते थे, "दो ही माग हैं या तो आप अपने से यह पूछे कि 'मैं कौन हूँ?' या गुरु के प्रति समपण कर दें।" ।
परन्तु ममपण करना, मन को शान्त रखना, और गुरु की कृपा को पूणत ग्रहण करना सरल नहीं है। इसके लिए निरन्तर प्रयास और स्मरण की आवश्यकता होती है। यह केवल गुरु की कृपा से ही मम्भव है। बहुत से भक्तो ने भक्ति मार्ग या अन्य साधनो का आश्रय लिया। श्रीभगवान् ने इसकी स्वीकृति दी और इस प्रकार के माधनो को उचित ठहगया, परन्तु उन्होने स्वय वहुत कम इन माधनो वा निर्धारण किया।