Book Title: Raman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Author(s): Aathar Aasyon
Publisher: Shivlal Agarwal and Company

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Page 174
________________ उपदेश १४६ सत्संग की शक्ति अत्यन्त प्रबल किन्तु अदृश्य है । इसका शाब्दिक अर्थ है, 'सत्ता के साथ सर्गात' परन्तु साधना के साधन रूप मे इसका प्रयोग 'सत् या सत्ता का साक्षात्कार करने वाले व्यक्ति के साथ सगति' के रूप मे किया जाता है । श्रीभगवान् इसकी बहुत प्रशसा किया करते थे । 'पूरक चालीस पदो' मे से पहले पाँच पद इसकी प्रशसा में हैं । इनके समावेश की कहानी अत्यन्त विलक्षण है । भगवान् की गोद ली हुई पुत्री अचम्माल को एक कागज पर, जिसमे मिठाई का एक पैकेट लिपटा हुआ था, एक श्लोक संस्कृत मे लिखा हुआ दिखायी दिया । वह इस श्लोक से इतनी अधिक आन्दोलित हुई कि उसने इसे कण्ठस्थ कर लिया और श्रीभगवान् के सामने जाकर सुनाया । श्रीभगवान् ने इसका तमिल मे अनुवाद कर दिया । उस समय वे चालीस पूरक पदो का सकलन कर रहे थे, कुछ वह लिख रहे थे और कुछ का अनुवाद कर रहे थे । उन्होने इस श्लोक को संस्कृत से लिये गये चार अन्य श्लोको के साथ सम्मिलित कर लिया। तीसरे पद मे गुरु की संगति को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है । " अगर सत्सगति का लाभ प्राप्त हो जाये तो आत्म-अनुशासन के विभिन्न उपाय व्यर्थ है । अगर शीतल, मन्द समीर बह रही हो तो पखे का क्या लाभ ?" भगवान् की सर्गात का सूक्ष्म प्रभाव अवश्य पडता था, भले ही यह वर्षो वाद दृष्टिगोचर हो। वह कभी-कभी स्पष्टत भक्तो को इसके महत्त्व से परिचित कराते थे । तीसरे अध्याय मे चर्चित अपने स्कूल के मित्र रगा ऐय्यर से एक वार उन्होने कहा था, "अगर माप ज्ञानी की सगत करेंगे तो वह आप को पूणरूपेण तैयार वस्त्र दे देगा ।" इसका आशय यह था कि अन्य उपायो से आपको धागा मिलता है और आपको स्वय बुनना पडता है । सुन्दरेश ऐय्यर १२ वर्ष की आयु में ही श्रीभगवान् के भक्त वन गये थे । जव उनकी आयु लगभग १६ वप की हुई वह अपने से असन्तुष्ट हो उठे । वह ऐसा अनुभव करने लगे कि साधना के लिए अधिक चेतन और गहन प्रयासो की आवश्यकता है । वह गृहस्थ थे मौर नगर मे रहते थे, परन्तु प्राय प्रतिदिन श्रीभगवान् का दान करने माते । अब उन्होने कठोर अनुशासन के रूप में यह निर्णय किया कि जब तक उनमें ऐसी आसक्ति और उद्देश्य के प्रति पूण आस्था का भाव विकसित नहीं हो जायेगा जिससे कि वह श्रीभगवान् की संगति के पात्र सिद्ध हो सकें, तब तक वह उनके पास नही जायेंगे । सौ दिन तक वह श्रीभगवान् के पास नही गये और तब उनके मन मे यह विचार आया, "श्रीभगवान के दर्शनो से अपने को वचित करके मेरा सुधार तो नही हो रहा 1" इस विचार के उदय होते ही वह भगवान् के दर्शनो के लिए चल दिये । भगवान् उन्हें स्कन्दाश्रम के प्रवेश द्वार पर मिले । उन्होने उनका स्वागत करते

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