________________
उपदेश
१५३ पूछता है, "क्या मैं दौडकर जाऊँ और आपके लिए पुस्तक ले जाऊँ ?" तव वह क्या उस सिर की ओर सकेत करता है जिसने ठीक सवाल निकाला या वह उन टांगो की ओर सकेत करता है, जो उसे पुस्तक लेने के लिए जल्दी से जल्दी ले जायेंगी? नही, दोनो हालतो मे उसकी अंगुली स्वभावत छाती की दाहिनी ओर को उठ जाती है और इस प्रकार इस महान् सत्य की अभिव्यक्ति करती है कि उसमे मैं का स्रोत वही है । यह एक निर्धान्त स्फुरणा है, जो इस प्रकार उसे स्वय अपनी मोर, हृदय की ओर जो कि आत्मा है, निर्देश कराती है । यह काय विलकुल अनैच्छिक और सार्वलौकिक है, अर्थात प्रत्येक व्यक्ति के सम्बन्ध मे यह सत्य है । भौतिक शरीर मे हृदय-केन्द्र की स्थिति के सम्बन्ध में इससे वडा प्रमाण आपको और क्या चाहिए ?
श्रीभगवान् यह उपदेश दिया करते थे कि व्यक्ति दाहिनी ओर हृदय पर घ्यान केद्रित करते हुए बैठे और अपने से यह पूछे कि 'मैं कौन हूँ ?' जव चिन्तन के समय विचार उत्पन्न हो तो व्यक्ति को उनका अनुसरण नही करना चाहिए, अपितु उन्हें देखना चाहिए और पूछना चाहिए, "यह विचार क्या है ? यह कहाँ से आया ? और किसे आया ? मुझे और मैं कौन हूँ ?' इस प्रकार आलोचना करने पर प्रत्येक विचार लुप्त हो जाता है और उस मूल 'मैं' के विचार की ओर अभिमुख होता है। अगर अशुद्ध विचार उत्पन्न हो, उनके साथ भी इसी प्रकार का व्यवहार करना चाहिए । साधना भी वही कार्य करती है, जिसे करने का दावा मनोविश्लेषण करता है-यह अवचेतन मे से अशुद्धता को स्वच्छ करता है, इसे दिन के प्रकाश में लाता है और इसका विनाश कर देता है।" हां, सभी प्रकार के विचार चिन्तन मे पैदा होते हैं । यही केवल ठीक है, क्योकि आप मे जो कुछ गुप्त होता है, वह वाहर आ जाता है। जब तक यह ऊपर न आये, इसका किस प्रकार विनाश किया जा सकता है ?" (महर्षोज गॉस्पल)
इस प्रकार के चिन्तन के लिए सभी विचार-रूप विरोधी होते हैं । कभी- . कभी कोई भक्त श्रीभगवान से यह प्रश्न करता कि क्या वह आत्म-अन्वेपण के दौरान 'मैं वह हूँ' इस सूत्र का या किसी अन्य सूत्र का उपयोग कर सकता है, परन्तु वह हमेशा इसका निषेध करते थे। एक अवसर पर जब एक भक्त ने एक के बाद दूसरा सूत्र सुझाया तो उन्होंने कहा, "साक्षात्कार के साथ सभी विचार असगत हैं। सही माग तो यह है कि अपने और अन्य मभी विचारो को निष्कासित कर दो। विचार एक चीज है और साक्षात्कार विनकुल दूसरी।"
_ 'मैं कौन हूँ', इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है। इसका कोई उत्तर हो भी नहीं मकता। यह तो 'मैं' के विचार का विनाश करता है, जो कि सभी