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रमण महर्षि हुए पूछा, "क्या मेरे दर्शन न करके आपकी स्थिति पहले से बेहतर है ।" फिर उन्होने उन्हे सत्सग के महत्त्व और प्रभाव से परिचित कराते हुए कहा कि यद्यपि शिष्य को इसका प्रभाव दिखायी नही देता और न ही अपने मे कोई सुधार दिखायी देता है, फिर भी इसका प्रभाव अवश्यम्भावी है । उन्होने इसकी तुलना रात्रि को नीद मे अपने बच्चे को दूध पिलाने वाली मां से करते हुए कहा कि अगले दिन वच्चा सोचता है कि उसने दूध नही पिया परन्तु माँ यह जानती है कि उसने दूध पिया है और वस्तुत यही दूध उसका पोषण करता है।
इस उदाहरण से यह पता चलता है कि सज्जनो की सगति से स्वत लाभ से कुछ अधिक ही प्राप्त होता है। इसका आशय है सज्जन द्वारा प्रभाव को चेतन निर्देशन । एक अवसर पर भगवान् ने इसकी विलक्षण ढग से पुष्टि की, हालांकि जिन व्यक्तियो ने इसका अनुभव किया था, उन्हे इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। सुन्दरेश ऐय्यर ने श्रीभगवान् की प्रशस्ति मे एक तमिल गीत की रचना की जिसका भावार्थ यह था कि भक्तो की रक्षा के लिए श्रीभगवान् के नेत्रो से कृपा की धारा प्रवहमान हो रही है । परन्तु भगवान् ने इसका सशोधन करते हुए कहा, "प्रवाहित नहीं हो रही बल्कि उसकी ओर प्रक्षिप्त है क्योकि यह एक चेतन प्रक्रिया है, जिसके द्वारा चुने हुए व्यक्तियो की ओर कृपा निर्देशित होती है।" ___ गुरु की कृपा का पूर्ण भाजन बनने के लिए शिष्य को भी प्रयास करना पडता है। इसके लिए श्रीभगवान् ने जिस उपाय के अपनाने पर निरन्तर बल दिया वह था अपने से यह प्रश्न करना, "मैं कौन हूँ ?" हमारे युग की आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए उन्होंने इस साधना को प्रस्तुत किया। इसके सम्बन्ध मे कोई रहस्य या गोपनीय बात नही थी। वह इसके महत्त्व और प्रभाविता के सम्बन्ध मे विलकुल सुनिश्चित थे। "अपनी अप्रतिवन्ध और निरपेक्ष सत्ता को अनुभव करने का, जो कि वस्तुत आप है, एकमात्र अचूक
और प्रत्यक्ष साधन आत्म-अन्वेपण है। आत्म-अन्वेपण के अतिरिक्त अन्य साधनाओ से अह या मन को नष्ट करने का प्रयास ऐसे है जैसे चोर, चोर को जो कि वह स्वय है, पकडने के लिए पुलिसमैन वन जाय । केवल आत्मअन्वेपण ही इस सत्य को प्रकट कर सकता है कि न तो अह की और न ही मन की वस्तुत सत्ता है। यही आत्म-अन्वेपण ही व्यक्ति को आत्मा या निरपेक्ष सत्ता के शुद्ध और अभेद्य रूप का साक्षात्कार करने के योग्य बनाता है। आत्म-साक्षात्कार के बाद कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रहता, क्याकि यह पूण आनन्द है, यही सब कुछ है। (महर्षीज गॉस्पल, भाग दूसरा)
"आत्म-अन्वेपण का उद्देश्य सम्पूण मन को इसके स्रोत पर केन्द्रित करना