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उपदेश
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उसके लिए गुरु शिष्य सम्बन्ध वास्तविकता है। उसे वास्तविकता का ज्ञान कराने के लिए गुरु की कृपा की आवश्यकता होती है । उसके लिए दीक्षा के तीन प्रकार हैं-स्पर्श द्वारा, दशन द्वारा और मौन द्वारा। (श्रीभगवान ने यहाँ मुझे सकेत किया कि उनका दीक्षा का तरीका मौन द्वारा दीक्षा देने का था, जैसे कि उन्होने अन्य अनेक व्यक्तियो को अन्य अवसरो पर मौन-दीक्षा दी है)।
चैडविक तो फिर भगवान् के शिष्य हैं !
भगवान् जैसा कि भगवान ने कहा, भगवान् के दृष्टि-बिन्दु से शिष्य नहीं है, परन्तु शिष्य के दृष्टि-विन्दु से गुरु की कृपा समुद्र के सदृश है । अगर शिष्य एक प्याला लेकर आयेगा तो उसे केवल एक प्याला भर मिलेगा। समुद्र की कृपणता की शिकायत करना व्यथ है, जितना बडा पात्र होगा, उतनी ही अधिक वस्तु उसमे आयेगी । यह पूर्णत शिष्य पर निर्भर करता है।
चंडविक तव यह जानना कि भगवान् मेरे गुरु हैं या नही, केवल विश्वास का विषय है।
भगवान् (सीधे होकर बैठते हुए, दुभापिए की ओर मुंह करते हुए और वल देकर अपनी बात कहते हुए) उनसे पूछे, क्या वह यह चाहते हैं कि मैं उन्हे इस सम्बन्ध में दस्तावेज लिख कर दूं।
जिस तरह मेजर चैडविक ने श्रीभगवान् के आश्वासन पर बल दिया, उस तरह का हठ करने वाले वहुत कम लोग थे। श्रीभगवान् ऐसा कोई वक्तव्य नही देते थे जिससे द्वित्व की स्वीकृति अभिव्यक्त हो, परन्तु साथ ही वह प्रज्ञावान और शुभेच्छु भक्तो को स्पष्टत कहते थे कि वह उनके गुरु हैं और कई शाब्दिक पुष्टि के बिना भी इस तथ्य को जान जाते थे।
श्री एस० एस० कोहेन के कथनानुसार, एक वगाली उद्योगपति श्री ए. वोस ने श्रीभगवान से एक यथाथ वक्तव्य लेने का प्रयास किया। उन्होंने कहा, "मुझे विश्वास है कि साधक के प्रयासो की सफलता के लिए गुरु आवश्यक है।" फिर उन्होंने परिहास करते हुए कहा, "क्या भगवान् को हमारा खयाल है ?"
परन्तु श्रीभगवान ने उन्हें ही उत्तरदायी ठहराते हुए कहा, "आपके लिए अभ्यास आवश्यक है, कृपा तो सदा ही रहती है।" थोडी देर मौन रहने के वाद थीभगवान ने कहा, "माप पानी मे गदन तक हवे हुए हैं और फिर भी आप चिल्ला रह हैं कि आप प्यासे हैं।" ___ अभ्याम का भी वस्तुत यही अभिप्राय था कि व्यक्ति कृपा के लिए ग्रहणगोल बने । श्रीभगवान कभी-कभी सूय का उदाहरण देते हुए कहते थे कि यद्यपि मूय चमक रहा है तथापि अगर आप इसे देखना चाहते हैं तो आपको