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रमण महर्षि
करें और उसकी तलाश न करें । बचे हुए दो रुपये उसने पत्र के साथ ही रख दिये । पत्र इस प्रकार था
"मैं अपने महान् पिता की आज्ञा के अनुसार, उसकी तलाश मे चल पडा हूँ। एक पवित्र कार्य के लिए इसने घर से प्रयाण किया है इमलिए इस कार्य से आप लोग चिन्तित न हो और इसकी तलाश मे पैसा वर्वाद न करें। आपकी कालेज की फीस भी जमा नही करायी
गयी। दो रुपये वापस भेजे जा रहे हैं।" यह सारी घटना श्रीभगवान् के इस कथन को स्पष्ट करती है कि शरीर के बन्धन से ऊपर उठकर वह आत्म-तत्त्व मे, जिसके माथ उन्होने अपने को एकरूप कर दिया था, स्थायी आश्रय की खोज कर रहे थे। स्कूल की विद्युत कक्षा में सम्मिलित होने का बहाना, हालाकि इससे किसी को हानि नही पहेची थी, वाद मे सम्भव न होता। न ही तलाश का विचार सम्भव होता, क्योकि जिसने पा लिया है वह खोज नहीं करता। जव भक्तगण श्रीभगवान् के चरणो मे नतमस्तक हुए, वह परमपिता के साथ एकरूप थे और अव उन्हे उसकी तलाश नहीं थी। पत्र से यह सवथा स्पष्ट हो जाता है कि प्रेम और भक्ति के माग द्वारा उन्होंने तादात्म्य का परम आनन्द प्राप्त कर लिया था । पत्र 'मैं' और 'अपने महान् पिता' से प्रारम्भ होता है तथा इसमे आज्ञा और तलाश की ओर सकेत है, परन्तु दूसरे वाक्य मे अव पत्र-लेखक की ओर से 'मैं' के रूप मे निर्देश न होकर 'यह' के रूप मे निर्देश है और अन्त मे जब हस्ताक्षर करने का समय आया तव उसने अनुभव किया कि 'अह' का लोप हो चुका है, हस्ताक्षर के लिए नाम शेष नही रहा और इसीलिए हस्ताक्षर के स्थान पर डैश (-) से पत्र समाप्त हुआ। उन्होंने फिर कभी पत्र नही लिखा और न कभी अपने नाम के हस्ताक्षर किये हालांकि केवल दो वार अपना पूव नाम लिखा था। एक बार, कुछ वर्ष वाद आश्रम मे आने वाले एक चीनी दर्शक को श्रीभगवान की पुस्तक 'Who Am I' की एक प्रति भेंट की गयी थी। चीनी दशक ने बड़े सौजन्यपूण ढग से श्रीभगवान् से पुस्तक पर हस्ताक्षर करने के लिए आग्रह किया था। श्रीभगवान् ने पुस्तक हाथ मे ले ली और इस पर सृष्टि के कण-कण मे व्याप्त आद्य ध्वनि 'ॐ' अकित कर दी। ___ वेंकटरमण ने तीन रुपये ले लिये और वाकी दो वापस कर दिये । यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वात है कि उसने तिरुवन्नामलाई की यात्रा के लिए जितनी धनराशि अपेक्षित थी, उससे अधिक नही ली। वही उसका शरण-स्थल था, एक वार वहाँ पहुँच जाने पर धन या भरण-पोपण का प्रश्न ही नही उठता था।