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रमण महपि
प्रति समर्पित कर दे तथा आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयास करे। उन्होन उससे कहा, "देखो मेरे छोटे भाई की आय १० हजार रुपये है, और मेरी १ हजार रुपये है, तुम कम से कम १०० रुपये की आय के लिए तो कोशिश करो ।" 'छोटा भाई' से उनका अभिप्राय रमण स्वामी से और 'आय' से अभिप्राय आध्यात्मिक उन्नति से था । परन्तु जब सुब्रह्मण्य न माने, शेपाद्रिस्वामी ने हठ किया और उन्हें चेतावनी दी कि वे ब्रह्म हत्या का पाप कर रहे हैं । सुग्रह्मण्य को श्रीभगवान् मे अधिक आस्था थी इसलिए उन्होंने उनसे पूछा कि क्या यह सत्य है । श्रीभगवान् ने कहा, "हाँ, आप अपने ब्रह्म स्वरूप को भूलकर ब्रह्म हत्या के भागी वन रहे हैं ।"
एक बार का जिक्र है कि शेपाद्रिस्वामी आम्र - कन्दरा मे श्रीभगवान् के विचारो को जानने के लिए उन पर दृष्टि स्थिर करके बैठ गये । परन्तु श्रीभगवान् तो आत्मा की अनन्त शान्ति मे लीन थे, उनमे विचार की कोई तरंग उठती ही न थी । इससे शेषाद्रिस्वामी चकित हो गये और उन्होने कहा, "यह स्पष्ट नही है कि श्रीभगवान् क्या सोच रहे हैं ।"
श्रीभगवान् मौन रहे । कुछ देर रुकने के बाद शेषाद्रिस्वामी ने कहा, “अगर कोई भगवान् अरुणाचल की पूजा करे तो उसे मुक्ति मिल जायगी ।" और तव भगवान् ने प्रश्न किया, "वह कौन है जो पूजा करता है और किसकी पूजा की जाती है ।"
शेषाद्रिस्वामी हँस पडे, "यही वात तो स्पष्ट नही है ।"
तब श्रीभगवान् ने विस्तार से उस एक आत्मा के सम्बन्ध मे बताया जो विश्व के सब रूपो मे अभिव्यक्त हो रही है और फिर भी अनभिव्यक्त है और अभिव्यक्ति से उसमे जरा भी परिवर्तन नही आता । यही एकमात्र सत्य है । शेषाद्रिस्वामी ने वडे घ्यान से इसे सुना, अन्त मे वह उठ खडे हुए और उन्होने कहा, "मैं कुछ नही कह सकता । यह सब मेरी समझ से परे है तथापि मैं पूजा करता हूँ ।"
इतना कहकर उन्होने गिरिशृग की ओर मुंह किया, बार-बार वह इमे साष्टांग प्रणाम करने लगे और फिर वहाँ से चले गये ।
शेषाद्रिस्वामी भी कभी-कभी उस एकता के दृष्टिकोण से भाषण करते, वह सव वस्तुओं को आत्मा की अभिव्यक्ति समझते, परन्तु वह जिस भी दृष्टिकोण से भाषण करते, उसमे शुष्क और व्यग्र परिहास का पुट होता । एक दिन किसी नारायणस्वामी ने उन्हें एक भैंस की ओर घूरते हुए देखा और पूछा, "स्वामी, किसे देख रहे हैं ?"
"मैं इसे देख रहा हूँ ।"
उसने आग्रहपूर्वक कहा, "क्या यह भैस है, जिसे स्वामी देख रहे हैं ?"