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रमण महर्षि
माँ के शरीर को ठिकाने लगाने का प्रश्न उठा। स्वय भगवान् इस बात के साक्षी थे कि मां का आत्मा मे लय हो गया था और अह के मिथ्या बन्धन मे उनका पुनर्जन्म नही होना था, परन्तु इस सम्बन्ध मे कुछ सन्देह था कि महिला-सन्त का शरीर जलाया न जाकर दफनाया जाय । तव लोगो ने स्मरण किया कि सन् १९१७ मे भी गणपति शास्त्री और उनके दल ने श्रीभगवान के सम्मुख इसी प्रकार के प्रश्न रखे थे जोर श्रीभगवान् ने इनका हाँ मे उत्तर दिया था । "चूंकि लिंग-भेद के कारण ज्ञान और मुक्ति मे कोई अन्तर उपस्थित नही होता इसलिए महिला सन्त का शरीर जलाया नही जाना चाहिए। उसका शरीर भी भगवान् का पवित्र मन्दिर है।" ___ भक्तो को यह बात नहीं सूझी कि सन् १९१४ मे अपनी माता के स्वास्थ्यलाभ के लिए रचित इस प्रार्थना मे भगवान् ने पहले ही इस प्रश्न का उत्तर दे दिया था । "मेरी मां को तूं अपने प्रकाश से आवृत्त कर ले और उसे अपने माथ एकरूप कर ले । फिर जलाने की क्या आवश्यकता है ?" भगवान् स्वय सदा की भांति सभी प्रकार की हलचल और सस्कार के विरोधी थे । उन्होने कुछ भक्तो से कहा कि वह चुपचाप रात को माता के शरीर को ले जायें और इसे कही पहाडी पर किसी गुम स्थान पर दफना दें। वह ऐसा करने के लिए राजी नहीं हए और अगले दिन इसे नीचे पहाडी पर ले जाया गया और इसे बडे समारोह के साथ दक्षिणी किनारे पर पालितीथम सरोवर और दक्षिणामूर्ति मण्डपम् के मध्य दफना दिया गया । भगवान् मौन भाव से यह सब कुछ देखते रहे। समारोह में भाग लेने के लिए मिय और मम्बन्धी तथा नगर से वडी सख्या में लोग आये । जिस गढे मे शरीर को दफनाया गया उसमे शरीर को दफनाने से पूर्व उसके चारो ओर पवित्र भस्म, कपूर और सुगन्धित पदार्थ डाले गये। इस पर एक प्रकार का म्मारक बनाया गया और वनारस से लाया गया एक पवित्र लिंग इस पर स्थापित किया गया । वाद मे इम स्थान पर एक मन्दिर का निर्माण किया गया। यह मन्दिर सन् १६४६ मे बनकर तैयार हुआ और मातृभटेश्वर मन्दिर अर्थात् माता के रूप में अभिव्यक्त भगवान् के मन्दिर के नाम से विख्यात है ।
जिस प्रकार माता के आगमन से आश्रम के जीवन मे एक मुन्दर युगारम्भ हुआ था, उसी प्रकार उनके प्रयाण से भी एक युगारम्भ हुआ । विकास रकने के स्थान पर गतिशील ही हुआ। ऐसे भक्त थे जो यह अनुभव करते थे कि मृजनात्मक शक्ति के रूप में माता की उपस्थिति पहले की अपेक्षा अधिर प्रभावशालिनी थी। एक अवसर पर श्रीभगवान् ने कहा था, वह वहाँ गयी है ? "वह तो यही है।"
निरजनानन्द स्वामी पहाडी के नीचे स्मारक के पास एक फूस की कुटिया