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श्रीरमणाश्रम
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करना पड़ता था। विशेष रूप से पाश्चात्य भक्तो को ईसाई मिशनरियो की आलोचना का सामना करना पड़ता था। एक बार का जिक्र है, एक मिशनरी सभा-भवन मे चला आया और श्रीभगवान की जोर-शोर से आलोचना करने लगा । परन्तु सभा-भवन के पीछे से मेजर चंडविक ने वक्ता द्वारा ईसाइयत की व्याख्या को चुनौती दी और उसे इतना अप्रतिम कर दिया कि वह भाग खडा हुआ। बाद के वर्षों में भी कैथोलिक पादरी आया करते थे। पहले तो वह श्रीभगवान के प्रति दिलचस्पी और सम्मान की भावना अभिव्यक्त करते और फिर इस तरीके से अपना सन्देह प्रकट करते थे कि व्यक्ति आश्चय मे पष्ट जाता था और यह सोचने लगता था कि क्या इनका हृदय वस्तुत उदार है या उनका प्रयोजन केवल अपने धम में दीक्षित करना और तथ्यो को तोड मरोड कर रखना नहीं था। ___ अगर कोई प्रश्न ईमानदारी से न पूछा जाता तो भगवान् प्राय मौन और स्थिर होकर बैठ जाते । एक वार एक धूत और वचक साधु, आश्रम मे आया
और भगवान् को मिथ्या स्तुति करते हुए उनसे पूछने लगा कि क्या वह ज्ञानी हैं या जीवन्मुक्त । यह सब स्वीकृत सिद्धान्त है कि कोई भी व्यक्ति यह नही कहगा कि "मैं ज्ञानी हूँ" क्योकि साक्षात्कार का अथ ही है अह का लोप । वह घूत, भगवान् द्वारा हो कहने पर इस सिद्धान्त को उनके विरुद्ध प्रयुक्त करना चाहता था और अगर वह कहते 'नहीं' तो वह यह व्यग्य करता "फिर आप शिष्यो को इसकी शिक्षा क्यो देते है ?" भगवान् विलकुल मौन धारण करके बैठे रहे और उन्होंने उसकी विलकुल उपेक्षा कर दी। ___ एक वार एक मुसलमान श्रीभगवान् से तर्क करने आया। उसकी चुनौती को स्वीकार करते हुए श्रीभगवान् ने अत्यन्त धैयपूर्वक उनके प्रश्नो का उत्तर दिया।
उसका पहला प्रश्न था, "क्या भगवान का रूप है ?"
श्रीभगवान् ने व्यग्य में उत्तर दिया, "कौन कहता है भगवान् का रूप होता है ?"
प्रश्नकर्ता का कहना था, "अगर भगवान् निराकार है तो क्या उमे मूनि का स्प देना और इस रूप मे उसकी पूजा करना गलत नही है ?"
उहोने उसका व्यग्याथ समझ लिया था, "कोई भी नही कहता कि भगवान् का प है।" इसका अथ ठीक वही था जो कहा गया था । अव श्रीभगवान् न इसकी व्यास्त्या करते हुए उस मुमलमान से पूछा, "भगवान् को एक ओर रहते दें, पहले आप मुझे यह बताएं कि क्या आपका रूप है ?" ___"निस्सन्देह, जैसा कि आप देख सकते हैं, मेरा रूप है, परतु में भगवान् नहीं है।"