Book Title: Raman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Author(s): Aathar Aasyon
Publisher: Shivlal Agarwal and Company

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Page 138
________________ श्रीरमणाश्रम ११७ करते थे कि हमे केवल यही करना है मन को शान्त रखो और जानो कि 'मैं हूँ' भगवान् है, यही सार है। ईसाइयत में कुछ उच्च कोटि के रहस्यवादी ही हैं जिन्होंने अद्वैत के दर्शन और उसकी घोषणा की है, जैसे कि मोस्टर एकहाट कहता है, "भगवान् की सत्ता मेरी सत्ता है ।" सभा भवन मे प्रतिदिन वेदमन्त्रो का पाठ होता था परन्तु भगवान् ने स्पष्टत कह दिया था कि वेदमन्त्रों का अर्थ जानने की कोई आवश्यकता नही है । मन्त्रोच्चारण मन की शान्ति और चिन्तन में सहायक है । यही पर्याप्त था । वेदमन्त्रो के अथ के सम्बन्ध मे किसी विचार की अपेक्षा यह अधिक महत्त्वपूर्ण था | आध्यात्मिक शिक्षा सिद्धान्त नही है बल्कि एक तकनीक है, एक मार्ग है, आन्तरिक रस-सिद्धि है । आश्रम मे भी जो भक्तजन चिन्तन की अपेक्षा क्रियाशील जीवन को अधिक पसन्द करते थे, वह कार्यालय, उद्यान, पुस्तको की दूकान, पाकशाला, या किसी अन्य विभाग में सेवा काय करते, अपने को भगवान् के निकट समझते और उसके लिए काय करते थे । अत्यन्त सौभाग्यशाली भक्तो मे ब्राह्मण विधवाएं थी जो पाकशाला मे काय करती थी। जीवन के अन्तिम वर्षों मे भी, जब तक वृद्धावस्था के कारण श्रीभगवान् का स्वास्थ्य बिलकुल क्षीण नही हो गया, वह उनके साथ कार्य किया करते थे । वह प्रात काल ३-४ बजे जाते और एक-दो घण्ट सब्जी काटने तथा पत्तलें बनाने मे लगाते (केलो के पत्तो के प्रयोग से पूर्व ) । वह प्रतिदिन रसोई का निरीक्षण करते और भोजन तैयार करने मे हाथ बंटाते । कोई भी चीज व्यथ नहीं फेंकी जाती थी । एक वार जब एक भक्त पहाड़ से पैशन-फूट की एक टोकरी भर कर लाया तो उन्होने खोलो को उबालने का भी आग्रह किया ताकि शोरवे के जल मे वृद्धि हो सके । जो लोग श्रीभगवान् के साथ पाकशाला मे काम करते थे वह क्रियाशीलता के माग का अनुसरण करते थे । श्रीभगवान् कम-भाग के अनुरूप उन्हे काय के सम्बन्ध मे विस्तृत निर्देश देते थे और उनसे विना नतुनच के आदेश के पालन की अपेक्षा करते थे । वह निरन्तर उनका निरीक्षण किया करते थे, उनके दोपो के लिए उन्ह झिडकते और उनके प्रयासों की सराहना करते थे । वह परमानन्द की स्थिति में रहते थे, परन्तु उस गलत कदम के प्रति सदैव सचेत रहते थे, जिससे उन्ह श्रीभगवान् का कोपभाजन न बनना पडे । खाना बनाना आश्रमवासियो के लिए एक कला थी और भगवान इस पलामे पारगत थे । यह साधना का भी साधन थी और भगवान् उन्हें उनके विभिन्न कार्यों के प्रतीकवाद की ओर निर्देश करते थे । प्रत्येक कार्य सुचार रूपेण सम्पन्न किया जाता था । वह परोसने से पूर्व प्रत्येक खाने की चीज का निरीक्षण करते थे और इसे स्वयं चखते थे । कोई यह सोच सकता है कि यह

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