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रमण महर्षि
प्रयास करना लिखा हो, जैसे कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन से 'भगवद्गीता' मे कहा था कि उसकी अपनी प्रकृति ही उसे प्रयास करने के लिए प्रेरित करेगी। __माता वापस घर लौट आयी और स्वामी यथापूर्व रहे । सवा दो साल की अवधि मे, जो स्वामी ने तिरुवन्नामलाई के देवालयो मे गुजारी, वाह्य सामान्य जीवन मे वापस आने के प्रथम चिह्न स्वामी मे पहले ही प्रकट हो रहे थे। उन्होने पहले ही नियमित समय पर दैनिक भोजन लेना प्रारम्भ कर दिया था
और वह किसी दूसरे पर निर्भर न रहकर स्वय भोजन की तलाश मे वाहर जाने लगे थे । उन्होंने कई बार वातचीत भी की थी। उन्होने भक्तो के प्रश्नो के उत्तर देना, पुस्तकें पढना और अपनी शिक्षा के सार-तत्व की व्याख्या करना प्रारम्भ कर दिया था।
जब वह सर्वप्रथम तिरुवन्नामलाई आये, वे ससार और शरीर की सवथा उपेक्षा करके आत्मानन्द मे लीन हो वैठ गये। वह केवल उसी समय भोजन करते जब यह उनके हाथो या मुख मे डाला जाता और तव भी केवल उतना ही भोजन लेते जितना शरीर-धारण के लिए पर्याप्त होता। इसे तपस की मज्ञा दी गयी है परन्तु तपस् का वहुत व्यापक अर्थ है । इसमे ध्यान का भाव समाहित है, जो व्यक्ति को तपश्चर्या के मार्ग पर ले जाता है। सामान्यत यह तपश्चर्या गत आसक्ति के लिए प्रायश्चित के रूप में होती है, इस आसक्ति की पुनरावृत्ति का वह समूलोन्मूलन करना चाहती है और मन तथा इन्द्रियो के माध्यम से बाहर निकलने वाली शक्ति पर अकुश लगाना चाहती है। कहने का भाव यह है कि तपस् का सामान्यत अर्थ है प्रायश्चित्त और तपश्चर्या के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार के लिए प्रयास करना । श्रीभगवान् मे सघर्प, प्रायश्चित्त और वलात्कृत नियत्रण का सवथा अभाव था। चूंकि शरीर के साथ 'मैं' की असत्य एकानुभूति और इसके परिणामस्वरूप समुद्भूत शरीर के प्रति आसक्ति के वन्धन को स्वामी पहले ही तोड चुके थे । उनके दृष्टिकोण से तो तपश्चर्या का प्रश्न ही पैदा नही होता था क्योकि उन्होने उस शरीर के साथ अपने को एकस्प अनुभव करना ही वन्द कर दिया था जो तपश्चर्या करना है। उन्होने वाद के वर्षों में इसकी इन शब्दो मे पुष्टि की, "मैं भोजन नही करता था, इसलिए लोग कहते थे मैं उपवास कर रहा है, मैं नही वोलता था. इसलिए वे कहते थे मे मौनी हूँ।" इसे अगर सरल शन्दो मे कहे तो दिखायी देने वाली तपश्चर्या आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति के लिए नही थी बल्कि आत्म-साक्षात्कार के परिणामस्वरूप थी। उन्होने स्पष्ट शब्दो मे कहा कि मदरा में अपने चाचा के घर पर आध्यात्मिर जागरण के बाद उन्होंने और कोई साधना नहीं की।
भगवान् इन मामान्य अर्थों में मौनी नही ये कि उन्होंने दूमगे के माथ सम्पर्क