Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 02
Author(s): Purushottamlal Menariya
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 24
________________ [ १५ ] १५० - १५१) जैसे राजस्थानी इतिहास ग्रन्थों में वर्णित प्रसंगोंकी अोर अभी तक इतिहासकारोंका ध्यान नहीं प्राकर्षित हुआ है।1 ___ उक्त संघर्षोंमें प्रकट किये गये राजस्थानी वीराङ्गनाओंके बलिदानसे प्रभावित होकर अनेक समर्थ कवियोंने काव्य-ग्रन्थोंके रूपमें अपने उद्गार व्यक्त किये और अनेक गद्यलेखकोंने वार्तामोंकी रचना की । इनमेंसे प्रमुख उल्लेखनीय प्राचीन कृतियां इस प्रकार हैं विषय चित्तोड़ युद्ध रचना १ मुहम्मद जायसीकृत पदमावत (र का. १५६७ वि० सं०) २ हेमरतनकृत गोरा वादल पदभिणी चऊपई (र. का. १६४६ वि०)३ ३ लब्धोदयकृत पद्मिनीचरित (र.का. १७०२ वि० सं०) ४ जटमलकृत-गोराबादल वार्ता (ले. का. १८२८ वि० सं०) ५ भाग्यविजयकृत गोराबादल चोपाई (ले. का. १८०३ वि० सं०) ६ अज्ञात कर्त क-गोराबादळ कथा। १ नयचन्द्रसूरिकृत-हमीर महाकाव्यम् (ले. का. १५४२ वि० सं०) २ जोधराजकृत-हमीर रासो अपर नाम हमीरायण । ___ (र. का. १७८५ वि० सं०) ३ ग्वालकविकृत-हमीर हठ ४ चन्द्रशेखरकृत-हमीर हठ रणथंभोर युद्ध - १. वांकीदासरी ख्यात (सम्पादक, श्रीयुत नरोत्तमदासजी स्वामी) और मुंहता नैरणसीरी ख्यात, भाग १ ( सम्पादक, श्रीयुत बदरीप्रसादजी साफरिया ) नामक ग्रंथोंका प्रकाशन 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत राजस्थान प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा श्रीमान् मुनि जिनविजयजी, पुरातत्त्वाचार्यके प्रधान सम्पादकत्वमें किया जा चुका है । २ श्री रुद्रकाशिकेय, प्रधान संपादक 'राजा बलदेवदास बिड़ला ग्रंथमाला', नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसीने इस कृतिका रचनाकाल भ्रमवश सं० १७६० दिया है (बिड़ला ग्रंथमालामें प्रकाशित छिताई वार्ता, परिचय पृष्ठ २२) । वास्तवमें इसकी रचना महाराणा प्रतापके दीवान भामाशाहके लघु भ्राता ताराचंद कावड़याकी प्राज्ञासे सादड़ी नामक स्थानमें वि० सं० १६४६ में हुई थी। सं० १७६० प्रतिका लेखन-काल हो सकता है। यह कृति 'राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला' में प्रकाश्यमान है । बिड़ला ग्रंथमालामें प्रकाशित उक्त वार्ताको देखनेसे प्रकट होता है कि कान्हडदेप्रबन्ध और हम्मीर महाकाव्यम् जैसे इस विषयके प्रसिद्ध ग्रन्थोंकी जानकारी भी उक्त ग्रन्थमालाके सम्पादकको नहीं है । ३ जटमल कृत 'गोरा बादळ वार्ता' को श्रीरामचन्द्र शुक्लने भ्रमवश वि० सं० १६८० की माना है। हिन्दी साहित्यका इतिहास, पृष्ठ सं० ४२३, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, दसवां संस्करण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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