Book Title: Puratana Prabandha Sangraha
Author(s): Jinvijay
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 30
________________ प्रास्ताविक वक्तव्य । भिन्न-कर्तृक । हमारा अनुमान है, कि प्रबन्धकोशकी अपेक्षा प्रस्तुत प्रतिवाले इन प्रकरणोंकी रचना पुरातन है । राजशेखर सूरिने शायद कुछ थोडा बहुत भाषा-संस्कार करके इनको अपने ग्रन्थमें सन्निविष्ट कर लिया है। क्यों कि, प्रस्तुत संग्रहगत इन प्रकरणोंकी भाषा, अधिक लौकिक ढंगकी-परिष्कार विहीन और शिथिल स्वरूपमें है; और प्रबन्धकोशमें वह परिष्कृत और सुश्लिष्ट रूपमें है । अतः, इससे यह सूचित होता है, कि राजशेखर सूरिके पहले, किसीने, इन प्रकरणोंको, किसी प्रथमाभ्यासी विद्यार्थीके पढनेके लिये, इस प्रकारकी बहुत ही सीधीसादी भाषामें लिखा, और फिर राजशेखर सूरिने उनमें उक्त प्रकारका कुछ संशोधन-परिमार्जन किया। प्रबन्धकोशके कर्ताने अपने पहलेकी कृतियोंमेंसे ऐसे कई प्रकरण ज्यों के त्यों, अथवा कुछ थोडा फेरफार कर, अपने ग्रन्थमें किस प्रकार सम्मिलित कर लिये हैं, इसकी कुछ आलोचना हमने उस ग्रन्थकी भूमिकामें की है। - इसी प्रकार यदि, प्रस्तुत संग्रहके कुछ प्रकरणोंका मिलान, प्रबन्धचिन्तामणिगत उन उन प्रकरणोंके साथ किया जाय तो उनमें भी कुछ ऐसी शाब्दिक और आर्थिक समानता जरूर दिखाई देगी। यद्यपि वह समानता प्रबन्धकोशके जितनी विपुल और विशेषरूपमें नहीं है, जिससे यह स्पष्टताके साथ निर्णीत किया जा सके कि प्र० चिं० के कर्ताने भी इस संग्रहके कुछ प्रकरणोंका अनुसरण किया है; तथापि उसके लिये कुछ अनुमान अवश्य किया जा सकता है । प्र० चिं० ग्रथित मुञ्जराज प्रबन्ध, प्रस्तुत संग्रहलिखित उस प्रबन्धके साथ बहुत ही सदृशता रखता है। इसी तरह कुछ और और प्रबन्धोंमें भी परस्पर कितनाक साम्य दिखाई देता है। निम्न सूचित प्रकरण इस दृष्टिसे मिलान कर देखने योग्य हैंप्रबन्धनाम प्र० चिं० प्रस्तुत ग्रन्थ उदयन प्रबन्ध रैवततीर्थोद्धार प्रबन्ध ६१०७ सोनलवाक्य ६६४ अंबड प्रबन्ध ६८१ अजयपाल प्रबन्ध ६१०४ इस तुलनासे यह बात सूचित होती है कि-प्रस्तुत संग्रहमें कुछ प्रकरण या प्रबन्ध तो ऐसे हैं जो प्रबन्धचिन्तामणि या प्रबन्धकोशमेंसे लिखे हुए या उद्धृत किये हुए हैं, अतएव उनसे अर्वाचीन हैं; लेकिन कुछ प्रकरण ऐसे हैं जो उन प्रन्थोंसे भी पुरातन हो कर, उक्त ग्रन्थोंके कर्ताओंने, शायद इन्हीं परसे अपने प्रकरण गुम्फित किये हों । यह बात तभी सिद्ध हो सकती है जब इसका प्रमाणभूत कोई उल्लेख इस संग्रहमें दृष्टिगोचर होता हो । प्रस्तावित ग्रन्थके पृष्ठ १३६ पर जो दो प्राकृत गाथाएं मुद्रित हैं वे, इस कथनके लिये, प्रमाणभूत कही जा सकती हैं। ये दोनों गाथाएं, इस संग्रहके ३० वें पत्रके प्रथम पृष्ठमें, सबसे नीचेकी पंक्तिमें, हासियेमें लिखी हुई हैं । इसके प्रारंभमें 'x' ऐसा चिन्ह दिया हुआ है जिसका मतलब होता है कि यह पंक्ति, ऊपर चालू लिखानमें, लिखते समय, भूलसे छूट गई है जिससे इसको यहां पर हासियेमें लिखा गया है। लेकिन, ऊपर चालू लिखानमें, यह किस जगह छूटी हुई है इसका सूचक कोई चिन्ह कहीं नहीं दिखाई देता । इससे यह निश्चिततया ज्ञात नहीं होता कि यह पंक्ति यथार्थमें किस प्रकरणके या प्रबन्धके अन्तमें होनी चाहिए; तथापि, जैसा कि इस संग्रहकी पृष्ठवार दी हुई सूचिसे ज्ञात होता है, इस अन्तिम पत्रके प्रथम पार्श्व पर कुमारपालराज्यप्राप्ति-प्रबन्ध समाप्त होता है, और उसके बाद कर्णवाराविषयक उदाहरणभूत प्रबन्ध लिखा हुआ है। सो इस पंक्तिका स्थान, नियमानुसार, उक्त कुमारपालराज्यप्राप्ति-प्रबन्धके अन्तमें होना चाहिए। परंतु, हमारा अनुमान है कि इसका वास्तविक स्थान, या तो उसके आगेके कर्णवारा प्रबन्धके अंतमें होना चाहिए या उसके बाद जो राणी सोनलदेवीके वाक्यरूप १०-११ प्राकृत पद्य लिखे हुए हैं उनके अन्तमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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