Book Title: Puratana Prabandha Sangraha Author(s): Jinvijay Publisher: ZZZ UnknownPage 34
________________ प्रास्ताविक वक्तव्य। ३३ पन्नोंका अभाव है। ७५ मेंसे ४२ पन्ने विद्यमान हैं। पन्नोंका नाप, प्रायः लंबाईमें १०१ इंच और चौडाईमें ४ इंच है। प्रत्येक पृष्ठि (पार्श्व) पर १५-१५ पंक्तियां लिखी हुई हैं। अक्षर सुवाच्य और लिखान प्रायः शुद्ध है । अन्तिम भाग अप्राप्य होनेसे, यह प्रति कब लिखी गई थी इसके जाननेका कोई निश्चित साधन नहीं रहा । प्रतिकी स्थितिको देखकर अनुमानसे यह कहा जा सकता है कि कमसे कम कोई च्यार सौ वर्ष पहले की यह लिखी हुई जरूर होगी। ६७. B संग्रहका आन्तरिक परिचय जैसा कि ऊपर सूचित किया गया है, इस संग्रहका अन्तिम भाग अनुपलब्ध होनेसे, इसका संग्रहकर्ता या संकलनकर्ता कौन है और उसका क्या समय है इत्यादि बातें जाननेका कोई उपाय नहीं है । वैसे ही यह भी ठीक नहीं जाना जा सकता कि इस संग्रहमें सब मिला कर ऐसे कितने प्रबन्ध या प्रकरण संगृहीत थे। जो अन्तिम पत्र (७५ वां) विद्यमान है उसमें नीलपटवधप्रबंध [देखो प्रस्तुत ग्रन्थका पृष्ठ १९, प्रबन्धांक १०, प्रकरणांक ६३३] समाप्त हुआ है और आगे फिर देवाचार्यप्रबन्ध प्रारंभ हुआ है। नीलपटवधप्रबन्धका क्रमांक इसमें ६६ दिया हुआ है, लेकिन, जैसा कि आगे दी हुई सूचिसे प्रतीत होता है, उसका वास्तविक क्रमांक ७० होना चाहिए। यदि, इसके आगे लिखे हुए देवाचार्यप्रबन्धके साथ ही इस संग्रहकी समाप्ति होती हों तो, इस प्रकार इसमें कमसेकम ७१ प्रबन्धोंका संग्रह होगा। इस संग्रहगत प्रबन्धोंका आकार-प्रकार देखनेसे हमारा अनुमान होता है कि, उपदेशतरंगिणी ग्रन्थके कर्ता रत्नमन्दिरगणीने, महामात्य वस्तुपालके कीर्तिदान प्रबन्धोंका वर्णन करते हुए, तद्विषयक विशेष ज्ञापनके २४(चविंशति) प्रबन्ध अर्थात प्रबन्धकोश नाम ग्रन्थके साथ, (उसके जैसे ही विषयवाले) ७२ (द्वासप्तति) प्रबन्ध और ८४ (चतुरशीति) प्रबन्ध नामक जिन और दो ग्रन्थोंका सूचन किया है,* उन्हीं में से यह एक ग्रन्थ हों। यदि यह अनुमान सही हों तो, कमसेकम विक्रम संवत् १५०० के पहले इसका संकलन हुआ होना चाहिए। क्यों कि रत्नमन्दिर गणीके १६ वीं शताब्दीके प्रथम पादमें विद्यमान होनेके प्रमाण पाये जाते हैं।। अतः उनके सूचित ७२ या ८४ प्रबन्धोंके संग्रह अवश्य ही उनके पूर्व की रचनायें होनी चाहिए। लेकिन हमारा यह अनुमान तबतक विशेष बलवान् नहीं माना जा सकता, जबतक, कहींसे इसका समर्थक और कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । ३८. इस प्रतिमें प्रबन्धोंका संग्रह-क्रम कैसा है और हमने प्रस्तुत संग्रहमें उनको किस क्रममें मुद्रित किया है, इसका क्रमपूर्वक परिचय होनेके लिये यहां पर दोनों-लिखित और मुद्रित-संग्रहोंकी पृष्ठ-पंक्ति-आदि सूचक विस्तृत सूचि दी जाती है और उसके नीचे पाद-टिप्पनीमें जो कुछ विशेष ज्ञातव्य वस्तु मालूम दी, वह भी, सूचित कर दी गई है। _ * उपदेशतरंगिणीमें यह उल्लेख इस प्रकार है-'इत्यादि श्रीवस्तुपालकीर्तिदानप्रबन्धाः शतशो यथाश्रुताः खयं वाच्याः ८४,२४, ७२ प्रबन्धेभ्यः । [यशोविजयजैनग्रन्थमाला, बनारस, में मुद्रित प्रति, पृ. ७९] यद्यपि रत्नमन्दिर गणीने, उपदेशतरङ्गिणीमें, अपना समय-सूचक कोई उल्लेख नहीं किया है, लेकिन इन्हींका बनाया हुआ एक भोजप्रबन्ध नामका प्रन्थ है उसके अन्तमै जो प्रशस्ति पद्य है उसमें, उस प्रन्थके बननेके समय आदिका निर्देश इस प्रकार किया हुआ हैजातः श्रीगुरुसोमसुन्दरगुरुः श्रीमत्तपागच्छपस्तत्पादाम्बुजषट्पदी विजयते श्रीनन्दिरत्नो गणी। समन्दिरगणिभोजप्रबन्धो नवस्तेनाऽसौ मुँनि-भूमि-भूत-शशंभृत् संवत्सरे निर्मितः॥ * इस पद्यसे ज्ञात होता है कि वि० सं० १५१७ में रत्नमन्दिरगणीने भोजप्रबन्धकी रचना पूरी की थी। सिवा, इसके उपदेशतरंगिणीकी वि० सं० १५१९ के चैत्र शु. के दिनकी हस्तलिखत प्रति पूनेके, भाण्डारकर रीसर्च इन्स्टीट्यूट में, संरक्षित राजकीय प्रन्थसंग्रहमें विद्यमान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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