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पुराण और जैन धर्म
तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः । दद्याच्छ्राद्धं श्रद्धयान्नं न वहेयुः प्रवाग्निः ||२८||
-इत्यादि
मायामोहेन ते दैत्याः प्रकारैर्बहुभिस्तथा । व्युत्थापिता यथा नैषांत्रयीं कश्चिद्ररोचयत् ॥२६॥ इत्यमुन्मार्गयातेषु तेषु दैत्येषु तेऽमराः । उद्योगं परमं कृत्वा युद्धाय समुपस्थिताः ॥ ३० ॥ ततो देवासुरं युद्धं पुनरेवाभवद्विज ! | हताश्वतेऽसुरा देवैः सन्मार्गपरिपन्थिनः ||३१||
[ ० १८ अंश ३]
भावार्थ:- एक वक्त देवता और असुरों का बड़ा भारी युद्ध -हुआ उसमें देवों का पराजय और असुरा की जीत हुई । परानित हाकर देवता लोग विष्णु भगवान की शरण में आये और आकर विष्णु की बहुत सी स्तुति करने के बाद, श्रमुरा पर विजय प्रा करने के लिये उनसे प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना को सुन विष्णु ने
अपने शरीर से "माया मोह" नाम के एक पुरुष का उत्पन्न करके देवताओं से कहा कि प्रान इसे ले जाइये | यह "मायामोह " सभा दैत्यों का मोह लेगा, फिर वेद मार्ग से भ्रष्ट हुए दैत्य लोग (आपके द्वारा) बब किये जा सकगे । हे देवों ! देव अथवा दानव जितने भी वेद मर्यादा के विरोधी हैं वे सभी मेरे द्वारा वध करने के योग्य