________________
६१
पुराण और जैन धर्म जो नमूना दिया है उससे तो यही विदित है कि निस्संदेह वह श्वेताम्बर जैन मत का साधु होना चाहिये परन्तु उस मायामय के मत का कुछ भी निर्णय नहीं हो सकता, तात्पर्य कि उसके वेष
और उपदेश में बहुत अन्तर है। अब हन इसी बात की कुछ 'विस्तार मे आलोचना करते हैं। शिव पुराण में उक्त मुनि के मुख से जनता के समक्ष जो उपदेश दिलाया गया है वह सर्वथा संदिग्ध है। इसलिये हमें इस बात के समझने में बड़ी दिकत पड़ती है कि उसने किम मत का उपदेश किया ? शिव पुराण के लेख से वह चापाक मत का प्रगरक भी सिद्ध होता है, कहीं कहीं पर उसने बौद्ध मत का भी उपदेश किया है और साथ २ वह जैन मत का उपदेशक भी सावित होता है।
उदाहरणार्थ-प्रथम श्लोक से लेकर पैंतीस लोक तक जो वर्णन है उसके देखने से तो मायामय के जैन होने में कुछ मन्नेह नहीं क्योंकि उसमें उन पुरुष का जिन तरह का वेप बनलाया है वह प्रायः जैन ग्रन्यों ने मिलता और वर्तमान नमय के जैन साधुओं से कुर मिलता जुन्नता भी है । एवं प्रागे पञ्चम अध्याय के २४ श्लोकों में अहिंसा धर्म का मर्म और महत्त्व तथा संसार का अनादित्व वर्णन करते हुर भी उसे जैन ही मावित किया है परन्तु इसके विरुद्ध
इहैव स्वर्गनरकं प्राणिनां नान्यतः क्वचित् । सुखं स्वर्गः समाख्यातो दुःखं नरकमेबहि ॥२८॥