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पुराण और जैन धर्म ऋबल धारा बहने लगती है तत्र सत्य, मर्यादा और प्रेम की मजबूत दीवारें भी उमम वह निकलती हैं। इसी पुराण के अध्याय २६ में लिया है
"नवार्यपि प्रयच्छेत, नास्तिके हैतुकेपि च । पाखण्डेषु च सर्वपु, नावेदविदि धर्मवित् ।।६७॥"
अर्थात्-नास्तिक (वेदों को न मानने वाला)कुनी, पाखण्डी और वेदों के न जानने वाले को धर्मात्मा मनुष्य जल तक भी न देवे इस श्लोक का मतलब स्पष्ट है इस पर किमी प्रकार की टीका टिप्पणी करनी व्यर्थ है। मतबाद की प्रबल निरङ्गशता का इसने अधिक जीवित उदाहरण शायद ही कोई हो । परन्तु धर्म विपयिक अन्ध-विश्वास सभी कुछ करा देता है इसलिये इस पर खेद प्रकट करना अथवा इम निमित्त मे किसी पर दोष लगाना व्यर्थ है। [क्या महाभारत में जैन-मत का जिकर नहीं ?]
अन्यान्य पुराण प्रन्यों के अवलोकन के पश्चात् जब हमारा ग्यान महाभारत की ओर जाता है तब हमें वर्तमान पार्यदल के पिता, श्रद्धास्पद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के एक ऐतिहासिक पिचार का स्मरण हो पाता है। प्राप कहते हैं कि रामायण और महाभारत के जमाने में जैन-मत नहीं या, यह मत इनके बहुत पीछ 'निकला है। यदि रामायण और महाभारत के समय में इस मतता अस्तित्व होता तो गन प्रन्यों में उसका कहीं न कही पर टिकर प्रपश्य किया होता परन्तु रामायण और महाभारत में लेन-मत