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-The TFIC Team.
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श्रीमद्विजयानन्दसूरि यो नमः ।। पुराण और जैनधर्म
लेखक-- पं० हंसराज जी शर्मा।
प्रकाशक
श्री श्रात्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक-मण्डल,
रोशनमुहल्ला-आगरा।
वीर सम्वत् २४५३ विक्रम सम्वत् १९८४
आत्म सम्बत् ३२ ईश्वी सन् १९२७
प्रथमवार १०००
मुल्य )
330 पा० कपूरचन्दजैन के प्रबन्धसे महावीर प्रेस,किनारोबाज़ार आगरा में मुदिन ।
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"जैनाचार्य न्यायांभोनिधि श्रीमद्विजयानन्दसूरि(ENCAIUAÂÎÌ AGITA)”
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renlerly identified himself with the interests of the Huni Atmarami. He is one of the noble band sworn *• day of putation to the end of life to work day & night for the
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they base tndertaken. He is the high priest of the Jain dreemured as the highest living authority on Jain 1erture by Oriental Scholars"
(700 sparkle Parlement of Religions Chikago in America Page 21)
स्वर्गवास सम्वत्
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वक्तव्य। प्रिय पाठको!
इस पुस्तक के अवलोकन से आपको स्वयं ही ज्ञात हो जावेगा कि यह अपने विपय और ढङ्ग की एक अनोखी पुस्तक है । देश, काल और समय को देख कर ऐसी पुस्तको की अत्यन्त आवश्यकता थी, जिनसे सत्य वातों का विकाश हो कर भ्रम-जनक वातों का नाश होता रहे । इसी कारण से यह पुस्तक अथवा अन्य ऐसी ही सम्बन्ध रखने वाली पुस्तकें तय्यार करा के इस मण्डल ने भविष्य में प्रकाशित करने का निश्चय किया है। जिससे जैन और जनेतर सव ही लाभ उठा सकें। विशेष कर इस विषय मे बहुत से जैनेतर भाइयों का आग्रह था कि ऐसी पुस्तकें अवश्य निकलनी चाहिये।
प्रकाशित होने से पहिले यह पुस्तक अवलोकनार्थ श्री १००८ श्री विजयवल्लभ-सूरि जी महाराज, लाला कन्नोमल जी जज व पं० सुखलाल जी के पास भेज दी गई थी और उनकी सम्मति मिलने पर ही हमने इसको छापने का साहस किया है। आशा है कि पाठकगण इसे अपना कर लेखक महाशय के परिश्रम को कृतार्थ करेगे और मण्डल के कार्य को उत्तेजना देगे।
परिश्रम और खर्च को देखते हुये इस पुस्तक का मूल्य अल्प ही रक्खा गया है। कारण कि ऐसी पुस्तकों के प्रकाशन में खर्च बहुत करना पड़ता है। फिर भी यदि हमारे पाठकों ने इसका सदुपयोग किया तो हम अपने कार्य को सफल समझेंगे। रोशनमुहल्ला आगरा। । दयालचन्द जौहरी १ सितम्बर १९२७ मंत्री-श्रीआत्मानन्द जैन
पुस्तक-प्रचारक मण्डल
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प्रस्तावना। [पुराण लक्षण और संख्या] सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चेति, पुराणं पंच लक्षणम् ॥
[मत्स्य पुराण] जगत् सृष्टि, प्रलय, महानुभावां का वंश मनुओ के अधिकार और समय तथा उक्त वंश वालो के चरित्र इन पांच विषयों का जिसमें वर्णन हो उसको पुराण कहते हैं। 'पुराणों की संख्या
और नाम का उल्लेख भी पुराण अन्यों में दिया है उनकी संख्या अठारह और नाम ये हैं
अष्टादश पुराणानि पुराणज्ञाः प्रचक्षते । ब्राझं पाझं वैष्णवं च शैवं भागवतं तथा ॥
(१) ऐतिरेय ब्राध्यण के उपक्रम में सायणाचार्य ने इतिहास और पुराण का लक्षण इस प्रकार लिया है-"देशमुरा. मंयत्ता प्रासन्" इत्यादि इतिहासा. “इदं वा श्रौ नैव किंचिदासीदित्यादि फ" जगतः प्रागवन्धानुरक्रम्प सर्गप्रतिपादक वाक्यजात पुराण । अर्थात देवासुर संग्राम वर्णन का नाम इतिहास और पहले यह असव था और कुछ नहीं था इत्यादि जगन की प्रथम अवस्था का प्रारम्भ कर मुष्टि प्रक्रिया के वर्णन को पुगर कहते हैं।
महामति शकराचार्य ने भी रहदारण्योपनिर के भाग्य में इनिहाय पुराण का लक्षण प्राय इसी प्रकार से किया है। यथा-"इतिहास इन्युवंशी पुररवतोः सम्बादादि रुर्वशीहाप्सरा इत्यादि प्राममेव । पुरागमसद्वाइट. मग्र प्राप्तीदिन्यादि।
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( २ ) तथान्यन्नारदीयंच मार्कंडेयं च सप्तमम् । श्राग्नेयमष्टमं चैव, भविप्यं नवमं स्मृतम् ॥ दशमं ब्रह्मवैवर्त लैङ्गमेकादशं स्मृतम् । वाराहं द्वादशं चैव स्कान्दं चात्र त्रयोदशम् ॥ चतुर्दशं वामनं च कौमपंचदशं स्मृतम् । मात्त्यं च गारुडं चैत्र ब्रह्माडं च ततः परम् ॥
[विष्णु पु०३ अं०६०] अर्थात्-त्राह्म, पद्म, विष्णु, शिव, भागवत, नारदीय, मारकण्डेय, आग्नेय, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, स्कन्ध, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़ और ब्रह्माण्ड ये अठारह पुराण प्रन्थ हैं। इनको श्लोक संख्या का परिमाण भी भागवत और मत्स्य पुराण में दिया है। पाठक वहां देख लें।
[पुराणों की प्राचीनता]
पुराण शब्द पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि पुराण अत्यन्त प्राचीन हैं वेद-मंत्र ब्राह्मण-स्मृति इतिहास और पुराण सत्र में पुराण शब्द का उल्लेख देखने में आता है। अथर्व वेद, शतपथ ब्राह्मण वृहदारण्य और छांदोग्यादि उपनिपदों तथा मनुप्रादिस्मृतियों एवं मह भारत आदि इतिहास पुराण प्रन्यों में पुराण शब्द का सट उल्लेख पाया
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जाता है । (१) इससे उसकी प्राचीनता निर्विवाद है। परन्तु वर्तमान समय में पुराण नाम से जो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं वे कितने प्राचीन हैं इसका निर्णय करना कठिन है । यद्यपि कतिपय ऐतिहासिक विद्वानों ने पुराणों के पौर्वापर्य तथा काल निर्णय के लिये
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१-(क) ऋचः सामानि छंदासि पुगणं यजुपासह । [अथर्व ११-७-२४] (स) सहती दिगमनुव्यात, नितिहासभ पुगणं च गाथाश
नराशसोक्षानुव्यचलन् । [अथर्व कां० १५ अनु० १ मा ६
में० १०-११] (ग) अरेऽम्य महतो भनम्य निश्वसितमेत दृग्वेटो यजुर्वेदः सामवंटो
ऽथ गिग्म इतिहास पुराग सियादि [ का १४
६ त्रा० ६ ० ११] (घ) “सहोवाचावेद भगवोध्येमि यजुर्वेद सामवेदमधर्वग्ण चतुर्थ मिति
हासपुराण पचन वेदानां चं" [छा० ३० प्र०७ सनत्कुमार
नारद सम्बाद] (४) "अरेम्प महतो भूतस्यनि श्वासिनमंतटग्वेटो यजुर्वेद, सामवंटोऽ
धर्वागिरस इतिहास पुगणम् । [२०३० अ०० प्रा० ४
म. १०] (च) स्वाध्याय श्रावयेन पिरे धर्मशागणि चैत्रहि ।
श्राख्यानानीतिहासाश्च पुराणानि खिलानिच । [मनु० प्र० ३
मो० २३.] (छ) पुगण मानवो धर्म सानो वेदनिमित्सतम् ।
श्राक्षा सिद्धानिचवारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥ [म० भा०] इन लेखों से प्रतीत होता है कि इन ग्रन्थों के निर्माण कान्त में पुराण नाम के कोई ग्रन्थ अवश्य विद्यमान रहे होंगे। परन्तु उन नाम और संख्या तथा परिमाण का कुछ पता नहीं चलता।
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वहुव कुछ उहापोह किया है तथापि निश्चित रूप से इनका समय निर्णीत नहीं हो सका। इतना वो निर्विवाद है कि मंत्र ब्राह्मण
और स्मृति आदि में जिन पुराणों का केवल पुराण नाम से-जिकर याता है वे पुराण इन पुराण अन्यों से अवश्य भिन्न है। ये पुराण उन्दी पुराणों के आधार पर लिखे गये हों ऐसा कदाचित् संभव हो सकता है । परन्तु इस विषय में तथ्य क्या है इसका निश्चय ऐतिहासिक विद्वान ही कर सकते हैं हमारा अल्प प्रयास तो केवल इतने के ही लिये है कि इन पुराणों में जैन धर्म के विपय में जो कुछ लिखा है उसका संग्रह करके सभ्य संसार के सामने परामर्श के लिये उपस्थित कर देना इससे उस समय की, समाज की धार्मिक परिस्थितिका सभ्य जनता को अच्छी तरह से परिचय मिल सकता है। इसी उद्देश से हम ने इस निबन्ध को लिखकर पाठकों की सेवा में उपस्थित किया है किसी मत या सम्प्रदाय की वृथा ही निन्दा अथवा प्रशंसा करने का हमारा अभिप्राय न कभी हुआ और न है । केवल वस्तु स्थिति से परिचय करा देना ही हमारा इस निबन्ध के लिखने का उद्देश है।
जितने पुराणों का उल्लेख ऊपर किया है उन सब में जैन-धर्म का जिकर नहीं। जिनमें है उन्ही में से हम ने जैन-धर्म सम्बन्धी वाक्यों का उल्लेख किया है।
हमारा यह विश्वास है कि वर्तमान समय में जैन धर्म विपयिक जो भ्रम फैल रहा है उसका कारण पुराणों में दिये गये जैन-धर्म सम्बन्धी इति वृत्त ही हैं। इसी विषय पर हमने अपने विचार
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जनता के समक्ष रखे हैं। वे अच्छे हैं या बुरे, इसका विचार पाठक स्वयं करें।
बहुत समय से यह निवन्ध लिखा पड़ा था उसके बाद समय की गति के अनुसार बहुत कुछ परिवर्तन भी हो चुका परन्तु हमने इसमें कुछभी परिवर्तन न करके इसे वैसेका वैसाही प्रकाशित करा दिया अन्त में सभ्य पाठकों से हमारा सविनय निवेदन है कि
गच्छतः स्खलनं कापि भवत्येव प्रमादतः । हसंति दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जनाः ॥
इस वाक्य के अनुसार हमारे लिखने अथवा विचार करने में कोई त्रुटि रह गई हो। [जिसका रहना स्वाभाविक है]-तो कृपा करके उसे स्वयं पूर्ण करलेवें।
जैन-धर्म के धार्मिक और सात्विक सिद्धांत अभी अन्धकार में पड़े हुए हैं उनका वास्तविक स्वरूप अभी संसार के सामने बहुत कम आया है। जैन-धर्म के अतिरिक्त उसके प्रतिवादी सम्प्रदाय के अन्यों में जैन धर्म का जिस रूप में वर्णन कहीं कही पर आता है उस पर से जैन-धर्म के सिद्धांतों का निश्चय करना कभी अनुरूप नहीं हो सकता इस लिये जैन-धर्म के सिद्धांतों का निश्चय केवल प्रामाणिक जैन अन्धो से ही करना उचित होगा, अन्यथा, भ्रम का होना अनिवार्य है परन्तु सभ्य संसार अब इस तरफ मुका है वह दिन अव बहुत ही समीप है जब कि जैन-धर्म के सिद्धांतो का वास्तविक स्वरूप उसी के धार्मिक ग्रन्या के अनुसार संसार के
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गमने आयेगा और तटस्य संसार उसके महत्त्व को अच्छी तरह ने समझने के योग्य होगा।
किसी धर्म या सम्प्रदाय का इसलिये तिरस्कार कर देना कभी उचित नहीं कि उसके विचारों से हमारे विचार भिन्न हैं किन्तु उसके विचारों को मनन करके अपने विचारों के साथ उनकी मध्य धभाव से तुलना करनी और तुलना करके उचित विचारों को अपनाना ही एक तटस्थ विद्वान के प्रशस्त जीवन का मुख्य उद्देश होना चाहिये।
अन्त में सज्जनो से प्रार्थना है कि वे हमारे इस अल्प प्रयास का किसी न किसी रूप में सहयोग करने की ही कृपा करें।
-विनीत हंस। .
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मध्यस्थ वाद मालाया द्वितीयम् पुप्पम्
पुराण और जैन धर्म
नमोभूयान्महेशाय, परेशायात्मने नमः । जगद्धिताय देवाय, वीत दोषाय वेधसे ॥१॥
महिन्दू जनता को पुराणों के विषय में अधिक परिचय RAN देना अनावश्यक है धर्म में अभिरुचि और श्रद्धा SM उत्पन्न करने वाले उनके कल्पित और ऐतिहासिक
वृत्तान्त, आज भी उसकी हिन्दूजनता की नस नस
में व्याप्त हो रहे हैं। पुराणों में कही २ जैन धर्म का भी वर्णन पाया जाता है । उसमे अधिकांश उसकी उत्पत्ति का ही उल्लेख है परन्तु वह बड़ा ही अद्भुत और विचित्र है इस लेख में हम उसी विषय की तरफ पाठको का ध्यान बँचत है आशा है पाठक उसके अवलोक्न की अवश्य कृपा करेंगे।
वर्तमान समय में पुराण नामसे प्रसिद्धभागवतादि अन्धों में जैन धर्म की चर्चा करते हुए, जन समाज को उससे घृणा दिलाने का वा
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पुराण और जैन धर्म प्रयत्न किया गया है । यद्यपि पुराण लेखकों को इस प्रयत्न में कुछ नानना तो प्रान अवश्य हुई मगर इस प्रकार का कृत्य प्रतिष्ठित पुरुषों के लिये कितना शोभासद है यह भी विचार करने के योग्य है।
हमारे विचार में पुराण वेदों से किसी प्रकार भी कम महत्त्व के नहीं। वे हिन्दू-संसार के लिये बड़े मोल की वस्तु हैं ! उनके शिक्षा-प्रद वाक्य बड़े हो कीमती है। प्राचीन हिन्दु-सभ्यता के वे पय-प्रदर्शक हैं, इसलिये हिन्दू जनता की उन पर जितनी श्रद्धा हो उतनी कम है, परन्तु इतना स्मरण रखना जरूरी है कि कहीं अद्वादेवी का दिव्य सिंहासन, अन्य श्रद्धा के पादस्पर्श से अपवित्र न होने पावे । अन्यथा बड़े ही अनर्थ को संभावना है। आज कल संसार में सत्यासत्य का निर्णय इसी लिए कठिन हो रहा है। अन्ध श्रद्धा मनुष्य के विचार स्वातन्त्र्य में बहुत वाधक है। हमारे ख्याल से विशुद्ध श्रद्धा का पक्षपाती और अन्ध श्रद्धा का विरोधी होना विचारशील मनुष्य का सब से पहला कर्तव्य होना चाहिये । इसी में उसको और जन समुदाय को लाभ है आशा है हमारे इस विचार में पाठकगण भी अवश्य सहमत होंगे।
[विरोध मूलक किम्बदन्ति ] "हस्तिना ताड्यमानोपिनगच्छेज्जैन मन्दिरम्"
यह उक्ति आवाल गोपाल प्रसिद्ध है। भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक में इसका प्रचार देखा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि " सामने से यदि हस्ती आता हो और उससे प्राण बचाने के लिये जैन मंदिर के सिवा और कोई स्थान न हो
सजनो।
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पुराण और जैन धर्म बो, प्राण रक्षा के लिये जैन मन्दिर में घुसने की अपेक्षा हस्ती के नीचे आकर मर जाना बेहतर है परन्तु जीवन बचाने की खातिर भी जैन मंदिर में घुसना अच्छा नहीं !" इस उक्ति से जैन धर्म के साथ अन्य धमानुयायियों को किस सीमा तकप्रेम रखने का उपदेश मिलता है, इसकी कल्पना हमारी बुद्धि से बाहर है। इसमें संदेह नहीं कि इस प्रकार की उक्तियों का प्रचार उस समय में होता है जब कि परस्पर की विरोधाग्नि, कल्पनातीत दशा तक पहुंच जाती है । परन्तु इसमें भी संदेह करना निरर्थक है कि उक्त किं वदन्ती के मूलोत्पादक पुराण-वर्णित जैनमत सम्बन्धी विचित्र इतिहासही हैं। यदि इनमें, जैन अन्यों में उल्लेख किये गये परमत विरोधी इतिवृत्त भी सम्मिलित हो तो कुछ आश्चर्य नहीं । अस्तु अब हम इस अनधिकार चर्चा को यहीं पर समाम करते हुए प्रस्तुत विपय की ओर अपने पाठको का ध्यान खेचते हैं।
[श्रीमद्भागवत और जैन धर्म ] आज कल अठारह पुराणों के नाम से जो जो अन्य उपलब्ध होते हैं उनमें भागवत का नाम सर से अधिक प्रसिद्ध है। इस पुराण के लिये जनता के हृदय में जितना आदर है उतना अन्य पुराणों के विषय में नहीं। लोग इसकी कया
(6) अधदश पुराणानि पुराणनाः प्रचक्षते । प्राय पाप पैशवंच शैवं भागवत तथा ॥ प्रधान्यनारदीयं च माकण्डेयं च सनर्म। भाग्य मटन चैत्र भविष्य नव तया ॥ दश मब वैवर्त लैंगमेकादशं स्मृतम् । धाराएं द्वादशं चैव स्वान्दं चारप्रयोदशन ॥ चतुर्दशं वामनंच को पदशं स्मृतम् मात्स्यं च गारुडं चैव प्रमाण्ड चतत. परन् ॥ [विष्णु पुराण ३ घंश ०६]
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पुराण और जैन धर्म बड़ी ही श्रद्धा से मुनते हैं। इसमें जैनों के परमादरणीय भगवान् ऋषभदेव का चरित्र घड़ी ही सुन्दरता और विस्तार से वर्णन किया है । चरित यद्यपि जैन ग्रन्थों में उल्लेख किये गये ऋषभ चरित से भिन्न है (वस्तुतः होना भी चाहिये क्योकि भागवत के रचयिता ने उन्हें विष्णका अवतार मानकर चरित वर्णन किया है) परन्तु है बड़ा मनोहर और शिक्षाप्रद । उसमें भगवान ऋषभदेव के मुन्दर उपदेश और अनुकरणीय वैराग्यमय जीवन का चित्र बड़ी खूवी से खींचा है, उक्त ग्रन्थ के पांचवे स्कन्ध में चरित वर्णन के अनन्तर कुछ जैन धर्म का भी जिकर किया है। जिकर क्या उसकी उत्पत्ति का उल्लेख किया है। उल्लेख वड़ा विचित्र है अतः पाठकों के अवलोकनार्थ हम उसे यहां पर उद्धृत करते हैं। यस्य किलानु चरितमुपाकये कोङ्क वेक कुट कानां राजा अर्हन्नामो पशिक्ष्य कला वधर्म उत्कृष्यमाणे भवितव्येन विमोहितः स्वधर्म पथ मकुतो भय मपहाय कुपथ पाखण्ड मसमंजसं निजमनीषया मन्दः सम्प्रवर्तयिष्यते ॥६॥
येन सह वाव कलौ मनुजापसदा देव माया मोहिताः स्वविधिनियोग शौच चारित्र विहीना देव हेलना न्यपव्रतानि निजेच्छया गृहाना अस्नानाचमन शौच केशोल्लुं चनादीनिकलिनाऽधर्मवहु लेनो पहतधियो ब्रह्म ब्राह्मण यज्ञ पुरुष लोक विदूपकाः मायण भविष्यन्ति ॥१०॥
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पुराण और जैन धर्म . ५ ते च स्वह्यक्तिनया निज लोकयात्रयान्धपरम्परया श्वस्तास्तमस्यन्धे स्वयमेव प्रपतिष्यन्ति ॥१॥ ___ 'अयमवतारोरजसोपप्लुत कैवल्यो पशिक्षणार्थः।। (स्कं० ५ अ० ६)
भावार्थ-जिस ऋषभदेव के चरित्र को सुन कर कोङ्कवेङ्क और कुटकादि देशों का ईनाम का राजा, श्रीऋपभदेव की शिक्षा को लेकर पूर्व कर्मों के अनुसार जब कलियुग में अधर्म अधिक हो जायगा तब अपने श्रेष्ट धर्म को छोड़ कर कुपथपाखंड मत जोकि सब के विरुद्ध होगा को निजमति से चलानेगा ।९। जिसके द्वारा कलियुग में प्रायः ऐसे नीच मनुन्य हो जायेंगे जोकि देव माया से मोहित हो कर अपनी विधि शौच और चारित्र से हीन एवं जिनमें देवताओं का निरादर हो ऐसे कुत्सिा व्रतों-स्नान, आचमन और शौच न रखना और केशलुञ्चन करना इत्यादि-को अपनी इच्छा से धारण करेंगे। जिसमें अधर्म अधिक है ऐसे कलियुग से नष्ट बुद्धि वाले, वेद, ब्राह्मण, यज्ञपुरुप (विष्णु) और संसार के निन्दक होंगे ॥ १०॥ जिनके मत का मूल वेद नहीं है ऐसे वे पुरुप अपनी इच्छा के अनुसार चलने और अन्य परम्परा में विश्वास रखने से आप ही श्राप घोर नरक में पड़ेगे ॥ ११ ॥ भगवान् का यह ऋषभावतार रजोगुण-ज्यान मनुष्यों को मोक्ष मार्ग सिखलाने के लिये हुया । ।
विवेचक-पाठको ने हमारे परमादरणीय भागवत पुराण के, जैन धर्म की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाले भविष्य कथन को
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पुराण और जैन धर्म सुन लिया। हम नहीं कह सकते कि इसमें सत्यांश कितना है। क्योकि इतिहास के साथ तुलना करने पर उक्त कथन की सत्यतामें बहुत कुछ सन्देह होता है। अतः विचारशील पुरुषों को इस पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। [क्या यह कथन वेदव्यास जी का होगा ?]
बहुत से लोगों का कथन और विश्वास है कि उक्त लेख एक आपकाम ऋषि व्यासदेव के विशुद्ध मस्तिष्क की उपज है । भगवान ऋषभदेव के पवित्र चरित का वर्णन करते हुए सर्वज्ञ कल्प महर्षि व्यासदेव ने अपने दिव्य ज्ञान से देखा कि "जब अधर्मवर्द्धक घोर कलिकाल का प्रारम्भ होगा तब भगवान् ऋपभदेव के चरित को सुन और उनकी शिक्षा को ग्रहण कर कोङ्क वेदादि देशों का अर्हन नाम का राजा सर्वतः श्रेष्ठ निज धर्म को त्याग कर स्वमत्यानुसार वेद विरुद्ध पाखंड मत को चलावेगा। उसके प्रभाव से बहुत से ऐसे नीच मनुष्य उसके मत में शामिल होंगे जो स्नान
आचमन आदि शौच क्रिया को त्याग देंगे, केशो को अपने हाथों से नोचा करेंगे और वेद,ब्राह्मण तथा विण श्रादि की निन्दा करेंगे एवं स्वेच्छाचारी होने से अन्त में वे घोर नरक मे पड़ेंगे" यह जान कर ऋषि के विशुद्ध अन्तःकरण मे दया का स्रोत उमड़ पाया। (सन्य है ऋपि जन स्वभाव से ही दयालु होते हैं) इसलिये अनन्य कृपालु ऋपि ने कई सहन वर्प प्रथम ही इसे प्रकाशित कर दिया. जिससे कि विवेकशील पुरुप सचेत रहै । इसमें ऋपि का कुछ दोप नहीं । उनको अपने दिव्यज्ञान में भावी परिस्थिति का जैसा भान
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पुराण और जैन धर्म हुआ वैसा ही उन्होंने संसार के समक्ष रख दिया, तदनुसार कलियुग के आरम्भ में अर्हन नाम के राजा द्वारा एक वेद विरुद्ध पाखंड मत की उत्पत्ति हुई जो कि वर्तमान समय में जैन मत कहा जाता है इत्यादि । इस पर बहुत से लोग यूं कहते हैं कि इस प्रकार । के प्रमाण शून्य और महत्त्व विना के लेख को महर्षि वेदव्यास जैसे विशुद्धात्मा के दिव्य ज्ञान की उपज बतलाना उनके पवित्र नाम पर सरासर अत्याचार करना है। जो लोग उक्त कयन रूप मुलम्मे को महर्षि वेदव्यास के नाम की मोहर लगा कर सौटच का सोना दिखा कर बाजार में बेचना चाहते हैं, वे कम से कम इतना तो सोच लें कि जब इसको इतिहास और सत्तर्क रूप कसौली पर लगाया गया तब भी वह मोहर काम देगी या नहीं ? कोई भी कथन हो उसकी सत्यता के लिये सर्व मान्य किसी प्रमाण विशेष की आवश्यकता हुआ करती है परन्तु भागवत के उक्त कथन में सिवाय भागवत के अन्य कोई प्रमाण नहीं जिससे कि उक्त कथन की सत्यता प्रमाणित हो सके। कोई ऐतिहासिक ग्रन्थ उक्त कथन में सहमत नहीं । कोङ्क वेकादि देशों का कोई अर्हन नाम का राजा हुआ हो ऐसा किसी इतिहास ग्रन्य में देखने में नहीं आया एवं अर्हन नाम के राजा ने जैन धर्म की नीव डाली हो ऐसा भी सिवा भागवत के अन्यत्र कहीं लिखा हुआ देखने में नहीं आता, हां! जैनों के माने हुए ऋपभादि तीथकरही अहन्नामसे प्रसिद्ध हैं उन्हीं के द्वारा जैन धर्म का प्रचार संसार में हुआ, जैन लोग मानते हैं।
जैनों का विश्वास और कथन है कि इस अवसर्पिणी काल में श्री ऋषभ देवजी से लेकर अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी तफ
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पुराण और जैन धर्म
जितने तीर्थकर हुए हैं उन्होंने हो समय समय पर जैन धर्म का प्रचार किया और वे ही अर्हन के नाम से कहे जाते हैं इनके सिवाय अर्हन् नाम का कोई अन्य राजा जैन धर्म का प्रवर्त्तक नहीं हुआ । [ जैनों के कथन की जांच ]
श्री मदभागवत में जैन धर्म की उत्पत्ति के विषय में जो कुछ लिखा गया है वह महर्षि व्यासदेव का कथन है या अन्य किसो का, इसकी तरफ दृष्टि न देते हुए उक्त लेख को भागवत के रचयिता का ही समझ कर उस पर विचार करना हमारे ख्याल में उचित प्रतीत होता है परन्तु उस पर विचार करने से पहले जैनों के कथन की जांच कर लेनी हमें कुछ अधिक उचित प्रतीत होती है । जैन लोग इस सर्पिणी काल में जैन धर्म के आद्य प्रवर्त्तक ऋपम देव को मानते हैं। भगवान् ऋषभ देव से जैन धर्म का वही सम्बन्ध है जो कि एक सूत्रधार का भजनीय किसी नाटक से । जिस तरह नाटक की शुरूआत प्रथम सूत्रधार करता है, उसी तरह इस वमर्पिणी में जैन धर्म का प्रारम्भ भी प्रथम, ऋषभदेव से हुआ है । भगवान् ऋषभदेव के अनन्तर श्री महावीर स्वामी तक तेईस तीर्थकर धर्म प्रवर्त्तक- अवतार और हुए हैं जिन में से पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी का नाम अधिक प्रसिद्ध है । इन चौबीस तीर्थकरों कोही अन् या अरिहन्त कहते हैं । जैन मन्दिरों में प्रतिष्ठित जोर मूर्ति देखी जाती हैं वे सब इन्हीं तीर्थंकरों की हैं। तात्पर्य यह कि जैन धर्म के प्राय प्रवर्तक ऋषभदेव हैं उन्होंने ही संसार में जैन धर्म का प्रथम प्रचार किया येही जिन अर्हन् या अरिहन्त के नाम में प्रसिद्ध हैं इन के सिवा अन्य कोई अर्हन् नाम का राजा जैन
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पुराण और जैन धर्म “धर्म का प्रवर्तक नहीं हुआ । यही जैन धर्म की सभी शाखाओं का सिद्धान्त है। ___ परन्तु जैनों के इतने कयन मात्र से ही इस विषय का निश्चय नहीं हो सकता, सम्भव है उन्होंने अपने गत को अधिक प्राचीन
और विशेष प्रामाणिक सिद्ध करने के लिये ही अपने आधुनिक ग्रन्थों में ऋपभदेव के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ दिया हो एतावन मात्र से भागवत का उक्त कथन मिथ्या नहीं हो सकता इसलिये किसी विशिष्ट प्रमाण की तलाश करनी चाहिये । इस प्रकार की शंकाओं को दूर करने के लिये, जैनों की तरफ से जो अन्य प्रबल प्रमाण पेश किये जाते हैं उनका यहां पर दिग्दर्शन कराना हम
आवश्यक समझते हैं। आशा है कि उससे भागवत पुराण के उक्त लेख पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ेगा। [जैन धर्म का ऋषभदेव से सम्बन्ध बतलाने
वाले शिला लेख] भगवान् ऋपभदेव के साथ जैन धर्म का विशिष्ट सम्बन्ध बतलाने वाले अन्यान्य प्रमाणों में से मथुरा के शिला लेख कुछ अधिक विश्वासार्ह प्रतीत होते हैं ये लेख अनुमान दो हजार वर्ष के पुराने बतलाये जाते हैं। इनका प्रादुर्भाव न्वनाम धन्य डाक्टर फुहरर (Fuhrer) के अगाध परिश्रम से हुआ है प्रोफेसर बुलहर (Bulher) ने एपो ग्रेफिया इन्डिका (Lpigraphra Indica) नाम की एक पुस्तक प्रकाशित की है उसको प्रथम और द्वितीय जिल्द में जैन धर्म से सम्बन्ध रखने वाले वहत से शिलालेख प्रका
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पुराण और जैन धर्म
शित हुए हैं। उन में से इस समय सिहम दो शिलालेख यहां पर. उद्धत करते हैं । आशा है पाठक उनसे हा बहुत कुछ नतीजा निकाल सकेंग?
नं०२८ (A) भगवतो उसमस वारणे गणे नाडिके कुले...सा (पं) (B) दुक सवायक समिसिनर सादिता एनि
भा०-भगवान् उपभ (ऋपभ) की जय हो सादिता की प्रार्थना पर जो वारणगण के उपदेश, नांदिक कुल ओर शाखा के-धुक की चेली थी
[जिल्द दूमरी पृ० २७६-२७७]
नं०८ (A' मिद्धन म (हा) रा (ज) स्य र (T जा) तिराजन्य देवपुत्रम्य हुबकस्य स ४० (६०१) हेमंतमासे ४ दि १० एतस्यां पूर्वायां को दिये गणे स्यानिकीये कुज अय्य (वेरी) पाण शाखाया वाचस्यार्थ वृद्ध हस्ति (स्य) (B) शिव्यत्य गणिस्य आर्यस्त्र (ण) स्य पुय्यम (न)
(स्य) (व) तकस्य (C) मकत्य कुटुम्बिनी ये दत्ताये-न धर्मो महा भागो गताय प्रीयनाम्भगवानृपम श्रीः
भा०---जय ! प्रसिद्ध राजा महाराजाधिराज देव पुत्र हुवस्क के संवत् ४० (६०१) में हेमंत के चतुर्मास की दशमी को इस उपर लिखी हुई मिति को यह उन्कृष्ट दान वनिता निवासी का........ पानक की स्त्री दत्ताने पूज्य वृद्ध हस्ति आचार्य जो कोत्तियगण, शाकिनीय कुल और आर्यवत्री शाखा में से था उसके शिष्य मान
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पुराण और जैन धर्म नीय रचरन गणी की प्रार्थना पर किया था भगवान् श्री ऋषभ प्रसन्न हों।
[जिल्द पहली पृष्ट ३८६] ___इन शिला लेखों से मालूम होता है कि दो हजार वर्ष के करीब जैनधर्म में ऋपभदेव जी की पूजा प्रचलित थी, वे जैनधर्म के श्राद्य प्रवर्तक समझे जाते थे, जैसा कि आज कल के जैनों का विश्वास है। कुछ भी हो इन लेखों से जैनधर्म के श्राद्य प्रवर्तक कोई ऋपभदेव अवश्य सिद्ध होते हैं, वे चाहे भागवत में उल्लेख किये गये ऋषभ देव हों या कोई अन्य हों, परन्तु अर्हन नाम का कोई अन्य राजा जैनधर्म का प्रवर्तक नहीं हुआ। इसी बात पर और भी प्रकाश डालने वाला, उक्त दोनो शिला लेखों में भी प्राचीन और विस्तृत हाथी गुफा का शिलालेख है परन्तु वह इस माला के किसी अन्य पुष्प मे उद्धत किया जावेगा । भागवत के लेख की मीमांसा के लिये तो इतना ही पर्याम है।
[श्रीमद् भागवत के लेख पर विचार ]
अब रहा श्रीमद्भागवत का लेख, सो एक प्रकार से ता उसकी जांच हो चुकी उसकी सत्यता अनिश्चित है । अर्हन नाम की किसी राजव्यक्ति द्वारा जैन धर्म को उत्पत्ति का कथन सर्वथा कल्पित प्रतीत होता है । इसमें कोई प्रबल प्रमाण नहीं प्रत्युत उसके विरुद्ध ही प्रमाण मिलते हैं। जिनका कि ऊपर दिग्दर्शन कराया गया है। परन्तु बहुत से विद्वानो का ख्याल इस विषय में विचित्र है, उनके विचार का अनादर करना भी हमारे लिये उचित नहीं। अतः उनके विचार की आलोचना के लिये भी प्रकारान्तर से उक्त लेखपर विचार करना हमें प्रावश्यक और उचित प्रतीत होता है।
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पुराण और जैन धर्म
[ पुराण ग्रन्थ धार्मिक हैं ऐतिहासिक नहीं ]
पुराणों के विषय में बातचीत होने पर हमारे एक सुयोग्य विद्वान् ने कहा कि- “हम पुराणों को ऐतिहासिक प्रन्थ नहीं मानते। हमारी धार्मिक पुस्तकें हैं। जो लोग पुराणों को ऐतिहासिक ग्रन्थ समझ रहे हैं वे बड़ी भारी गलती पर हैं। उनके द्वारा पुराणों का बड़ा भारी अनादर हा रहा है और प्रतिदिन उनका महत्त्व कम हो रहा है ।" पाठक, इस कथन के मर्म को अच्छी तरह समझ गये होंगे अब हम इस पर कहे तो क्या कहें ? इस हालत में तो भागवन के उक्त लेख पर कुछ विचार करने के लिये प्रवृत्त होना मानो उसकी अवहेलना करना है क्योंकि श्रीमद्भागवत धर्म ग्रन्थ है और धर्मग्रन्थ के उल्लेख के सामने प्रामाणिक से प्रामाणिक इतिहास भी कुछ कीमत नहीं रखता । इतिहास और धर्म में बड़ा अन्तर है क्योंकि इतिहास मनुष्य कृत हैं और इन धार्मिक ग्रन्थों के रचयिता ऋषि हैं। ऋषि बुद्धि के सामने मनुष्य की तीक्ष्ण से तीक्ष्ण बुद्धि भी कुंठिन हो जाती है । वह ऋषि बुद्धि के समक्ष इतनी हैसियत भी नहीं रखती जितनी कि सूर्य के सामने जुगनू के प्रकाश की होती है । सम्भव है इतिहास में कुछ भूल हो, सम्भव है इतिहास के लेखकों ने स्वार्थवश कुछ गोलमाल करदी हो । तथा उपलब्ध ऐतिहासिक प्रभागों को तो अमाणिक कहने में हम स्वतन्त्र हैं और उनमें गलनी भी हो सकती है परन्तु धर्म ग्रन्थों में किसी प्रकार की भूल या बुद्धि का होना सम्भव है, कदापि हो तो हमें अविरार नहीं कि हम उनके विषय में कुछ कह सकें। क्योंकि वे
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पुराण और जैन धर्म धर्म प्रन्य हैं उनमें भूल या त्रुटि का ख्याल करना पाप है, इस प्रकार के पाप से सदा वचते रहना ही धर्मात्मा बनने का. सुन्दर उपाय है इसलिये जैन धर्म के प्रवर्तक चाहे ऋषभदेव ही हों, वह-जैन धर्म-चाहे प्राचीन हो और उसके सिद्धान्त भी भले उत्तम हों तथापि उसके विषय में भागवत में जो कुछ लिखा गया है वही सत्य और सर्वथा मानने योग्य प्रतीत होता है इसलिये उसी पर विश्वास रखना धार्मिक सज्जनों को. उचित है।
सज्जनो ! जिन धर्मात्माओके इस प्रकार के विचार है उनके धर्म विश्वास की तुलनानीचे लिखे एक उदाहरण से बहुत अच्छी तरह हो सकती है । "एक भद्र पुरुप को किसी कार्य के निमित्त कुछ समय के लिये विदेश जाना पड़ा, घर में उसकी एकमात्र खी थी वह जितनी गञ्ज भाषिणी थी उतनी ही व्यभिचार प्रिया भीथी इसलिये पति के विदेश जान के थोड़े ही दिन बाद उसने किसी दूसरे सजन से अपना नाता जोड़ लिया, परन्तु अपने निज पति से सदा के लिये छुटकारा पाने की उसे बहुत फिकर रहती थी। एक दिन उसने अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिये एक बड़ा ही सुन्दर उपाय हूँ निकाला । उसके दूसरे ही दिन वह अपने उपपति को साथ लेकर कहां के न्याय मन्दिर कचहरी मे पहुची और बड़ी नम्रतापूर्वक न्यायाधीश-जज से कहने लगी कि न्यायावतार ! मुझ हत भागिनी का प्राणधन-पति विदेश में जाकर कुछ दिन हुग इन संनार से सदा के लिये चल बसा ? मेरा एक मात्र सर्वत्व वही था, अब मैं सर्वथा असहाय हूं लाचार होकर अब मुझे भरने धर्म पर प्रहार
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पुराण और जैन धर्म
करना पड़ता है ! धर्मावतार इस सहाय हीन किङ्करी को आज्ञा दें नो मैं आपके सामने खड़े हुए इस भद्र पुरुष को अपना आश्रयदाता बनालूं ? उस रमणी की बनावटी दोनता से न्यायाधीश महोदय का भी दयालु हृदय पिघल गया इसलिये उन्होंने उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर उसे वैसा करने के लिये आज्ञा दे दी और क़ानून के सुताविक इस सारी राम कहानी को क़लम बन्द कर लिया ( सब वृत्तान्त की मिसल बन गई ) कुछ दिन के बाद उसके असली पतिराम भी विदेश से लौटे, और जब वे घर में आये तो वहां उनको और हो रंग नजर आया ! वह गुड़िया जिसको वह अपने प्राणों से अधिक समझता था वह अब दूसरे के हाथों में खेल रही है, उसकी तरफ अत्र नजर उठाकर भी देखने का अधिकार नहीं रहा ! समय को बलिहारी है ! अन्ततो गत्वा उस विचारे ने भी उसी न्यायालय की शरण ली । और न्यायाधीश से गिड़गिड़ा कर बोला कि धर्मावतार ! मेरे साथ बहुत अन्याय हुआ, मेरे विदेश जाने पर मेरी स्त्री को किसी अन्य पुरुष ने जबरदस्ती अपने कावू में कर लिया है और मेरी सारी धन सम्पत्ति लूट ली है इसलिये सरकार उसे वापिस दिलाने की कृपा करें ? यह सुन न्यायाधीश महोदय बोले कि तुम तो विदेश में जाने के कुछ दिन बाद ही मर गये थे फिर तुम्हारा यहां पर आगमन कैसे ? यह सुन वादी को बहुत विस्मय हुआ और वह बड़े ही गदगद स्वर मे बोला कि नहीं महाराज ! यह कथन सर्वथा असत्य है यह गरीब तो आपके सामने सड़ा है ? इस पर न्यायाधीश महोदय जरा चुपके से होकर बोले कि हां ! बात तो ठीक है लेकिन मिमल में लिखा हुआ है
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१५ कि तुम विदेश में जाकर मर गये हो । मुझे अफसोस है कि मैं
तुम्हारे जिन्दा होने पर भी अब कुछ नहीं कर सकता क्योंकि मिसल कहती है कि तुम मर गये ? अतः विवश होकर मुझे तुम्हारा मुकदमा खारिज करना पड़ता है । बस यही दशा इन धर्म प्रेमियों की है जिनके विचारों का उल्लेख हमने ऊपर किया है परमात्मा ऐसे सज्जनों को सुमति दे। (भागवत के उक्त लेख पर प्रकारान्तर से विचार)
श्री मद्भागवत में जैन धर्म की जिस प्रकार से उत्पत्ति वतलाई गयी है वह यद्यपि इतिहास से सर्वथा विरुद्ध अतएव अप्रमाणिक प्रतीत होती है तथापि एक ऋषि प्रणीत अन्य के उल्लेख को किसी इतिहास के आधार पर मिथ्या ठहरा देना उचित नहीं क्योंकि इस से श्रद्धादेवो का बड़ा अपमान होता है ! इसलिये ऐतिहासिक मार्ग को छोड़ कर भागवत और उसके समतोल अन्य पुराण ग्रन्थों से ही उक्त लेख की मीमांसा करनी हमारे ख्याल में ठीक होगी। ___ रेवा खण्ड में लिखा है कि "अष्ठा दशपुराणानां वक्ता
सत्यवतीसुतः" अठारह पुराणों के वक्ता व्यासदेव हैं। यदि यह कथन सत्य है तब तो अन्यान्य पुराणों का कथन भी भागवत के उल्लेख के समान ही हमें मान्य है एवं अन्य पुराण अन्य भी भागवत की तरह ही हमारे धर्म प्रन्य और विश्वाल भूमी होसकते हैं। यदि ऐसा ही है तब तो भागवत के उक्त लेख की जांच पुराणान्तर से करनी चाहिये अर्थात् पुराणान्तर में जहां जैन मत की उत्पत्ति का जिकर किया है उसकी तुलना भागवत के उक्त लेख से
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करनी चाहिये, यदि श्रन्यान्य पुराणों में भी भागवत के लेखानुसार ही जैन मत की उत्पत्ति का कथन हो तब तो श्रद्धालु पुरुषों का, भागवत के उक्त लेख में सन्देह करना व्यर्थ है परन्तु मत्स्य और शिव पुराण के देखने से पता लगता है कि उनमें जैन धर्म की उत्पति का उल्लेख, भागवत के उक्त कथन से सर्वथा भिन्न है । पाठकों को आगे चल कर यह बात स्पष्ट हो जावेगी । इस दशा में श्रीमद्भागवत का उक्त कथन कहाँ तक विश्वासाई हो सकता है यह पाठक महोदय स्वयं विचार लें ? अस्तु अ भागवत के कथन पर ही कुछ दृष्टि पात करना चाहिये । भागवत के रचयिता का कथन है कि, अर्हन् है नाम जिसका ऐसा कोङ्क वेक और कुटकादि देशों का राजा ऋषभ के चरितको सुन और उसकी शिक्षा को ग्रहण कर निजमति से कलियुग में जैनमत के चलाने वाला होगा उसके मानने वाले वेद, ब्राह्मण और विष्णु आदि के निन्दक होगे और अन्ध परम्परा में विश्वास रखने से घोर नर्क में पड़ेंगे इत्यादि । इस कथन में सत्यांश कितना है इसकी परीक्षा तो पाठक कर चुके हैं परन्तु इस पर एक विचारक के हृदय में जो सन्देह उत्पन्न होते हैं उनका समाधान किस प्रकार हो सकता है । इसका. ख्याल भी रखना जरूरी है । तथा
(प्रश्न १ - ) - भगवान् ऋषभ देव का चरित्र यही है जो कि भागवत मे लिखा है या और कोई ? यदि यही है तो उसे और भी किसी ने सुना है या कि नहीं ? यदि अन्य भी सुनने वाले थे तो उनमे से किसी ने वेद विरुद्ध (जैन) मत का प्रचार क्यों न किया ? यदि ऋषभचरित्र कोई और है तो कहां ? और किस ग्रन्थ में लिखा है ?"
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१५
पुराण और जैन धर्म (प्रश्न-२)-पभदेव के चरित्र में कोई ऐसा अंश भी है. जो कि वेद से विरुद्ध हो ? यदि है ? तो-अहो भुवः समसमुद्रवत्या द्वीपेयु वर्पस्वधिपुण्यमेतत् । गायन्ति यत्रत्यजना मुरारः कर्माणि भद्राण्यवतारवन्ति ॥१३॥ अहोनुवंशोयशसावदात. प्रैयव्रतो यत्र पुमान्पुराणः । कृतावतारः पुरुपः स प्रायवचारधर्म यदकम हेतुप॥१४॥ कान्वम्य काष्टामग्रानुगच्छेन्मनोरयेनाप्यभवन्य योगी। यो योगमाया:स्पृहयत्युहम्ता हसत्तया येन कृतप्रयत्नाः ॥१५॥ "इति ह स्म सकलदलोकदेवब्राह्मणगवां परमगुरोर्भगवत
अपभाख्यस्य विशुद्धाचरितमोरितं पुंसां समस्तदुचरितामिहरणं परममहामङ्गलायनमिदमनुनद्धयोपचितयानुशृणोत्याश्रावयति वा चहितो भगवति तस्मिन वासुदेव एकान्ततो भक्तिरनयोरपिसमनुवर्तन। [१६- स्कं०५ अन्या०६] इस कथन की क्या गति होगी ? इसमें
अहो मतमागर पग्विष्टिन पृथिवी के द्वार सरह में यह भाग्न पडा ही पुण्यशाली है,जहा किलाग भगवान मुगरि ऋषभावनार के ममम्त मगलमय कमी का गायन करते है। श्रो! पुराण पुकर भगगन, नियमन कं. वंश में जन्म लेकर मनुष्यों के लिये मान धर्म का प्राचरण कर गये। इससे नियरत का वश या द्वारा बदन ही पिशुद्धि को पास हुमा है। श्रन थे, मनोरय द्वारा भी कोई योगी उनका अनुगमन नहीं पर ताने. भयन्तु सनम कर वे जिन सनम्न योग विभूतियों को संबा कर गये हैं. अन्य योगी जन उन्हीं की प्राति के निये बहुन पन करने हैं। राजन् ! प्रपदेव, लोक, वेद, प्रामण और गो परम गुरु धे, भगवान कारभदेव का यह पिन चरित्र (जो प्रकागित मा है ) पुगों के मनन्त दुचरित्र का नागर पौर परम महब महल का भागार है, अन. जो लोग एकाप चित्त ने श्रद्धापूर्वक इमे मुनते और मुनवाते हैं उनको वासुदेव में गात हद भनिन रोना है।
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१८ पुराण और जैन धर्म तो उनके चरित्र की बहुत प्रशंसा की गई है। यदि ऋषभदेव के चरित्र में ऐसा कोई भी अंश नहीं जो कि वेद और शास्त्र से विरुद्ध हो, तो उसी को सुनकर अर्हन नाम के किसी राजा ने जैन मत का प्रचार किया, इसका क्या तात्पर्य ? क्या ऋषभदेव का चरित और उनकी शिक्षा जैन धर्मके अनुकूल है ? अथवा क्या जैन धर्म के सिद्धान्त ऋषभचरित और शिक्षा के अनुसार हैं ? यदि नहीं तो फिर समझ में नहीं आता कि अर्हन नाम के किसीराजा द्वारा चलाये जाने वाले जैन धर्म का हेतु ऋषभदेव के चरित और शिक्षा के श्रवण और मनन को ही कैसे ठहराया जा रहा है ! यदि अनुकूल है तो उसे वेद विरुद्ध कहना असंगत होगा। यदि कहा जाय कि अर्हन नाम के किसी राज व्यक्ति ने अपनी स्वतन्त्र कल्पना से जैन मत का प्रचार किया ? तब फिर ऋषभदेव के चरित और शिक्षा को बीच में लाना निरर्थक है ? वस्तुतः भगवान् ऋपभदेव का जो सम्बन्ध बतलाया जाता है उससे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि वर्तमान जैन धर्म का सम्बन्ध भगवान् ऋषभदेव से ही है
और वे ही अर्हन हैं। अनेक यत्न करने पर भी भागवत के रचयिता से इस सत्य पर पर्दा न पड़ सका। "अयमवतारोर जसोपप्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थः" यह कथन इस आशय को अच्छी तरह स्फुट कर रहा है। अस्तु कुछ भी हो जैन धर्म को अर्वाचीन बनाने और जन समाज को उससे घृणा दिलाने के लिये भागवत के नाम से किसी धर्मात्मा ने जो यह षड्यन्त्र रचा है। वह संसार में बुद्धिमत्ता का एक नमूना है ।
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पुराण और जैन धर्म १९ जैन-मत की उत्पत्ति और आग्नेय पुराण।
BIHAR
EN कु छ समय पहले वहुत से विद्वानों का ख्याल था कि
जैन धर्म कोई स्वतन्त्र धर्म नहीं, वह बौद्ध धर्म
से निकला हुश्रा, उसकी शाखा मात्र है । परन्तु.
स जव से जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान् प्रोफेसर जैकोबी तथा कितने एक अन्य विद्वानों ने इस विषय की पूरी पूरी शोध की
और प्रबल प्रमाणों द्वारा इस बात (जैन धर्म बौद्ध धर्म की • शाग्वा है) को मिथ्या सिद्ध कर, जैन धर्म को बौद्ध धर्म से सर्वथा स्वतन्त्र और बहुत प्राचीन सिद्ध कर दिखाया तब से यह भ्रम बहुत अंश में ता दूर हो चुका है। मगर ऐसे सज्जनों की भी अभी तक कुछ कमी नहीं है जो कि अपनी उसी तान में मस्तान हैं ! श्रोरा के विषय में तो क्या कहना है मगर हमारे, वर्तमान समय के सुप्रसिद्ध हिन्दी मुलखक और सुकषि श्रीमान् बाबू मैथिलीशरण जी गुप ने भी अभी तक इस सन्देह को दूर नहीं किया। आपने अपनी सुप्रख्यात पुस्तक "भारतभारती" में जैन धर्म को बौद्ध धर्म की ही शाखा बतलाया है जैसे:प्रकटित हुई थी बुद्ध विभु केचित्त में जो भावनापर-रूप में अन्यत्र भी प्रकटी वही प्रस्तावना । फैला अहिंसा बुद्धि वर्द्धक जैन पन्थ समाज भी, जिसके विपुल साहित्य की विस्तर्णिता है आज भी॥
[२०८ भारत-भारती]
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२० . पुराण और जैन धर्म
और तो कुछ नहीं मगर गुम महोदय जैसे सत्य-प्रेमी और निष्पक्ष सुलेखकों को लेखिनी के यह अनुरूप प्रतीत नहीं होता। ____एक इतिहास लेखक सन्जन तोवहॉ तक आगे बढ़े हैं कि उन्होंने जैन धर्म को बौद्ध-धर्म को शाखा बतलाते हुए, गौतम बुद्ध को ही(जैनों के अन्तिम तीर्थङ्कर)महावीर स्वामी के नाम से उल्लेख किया है । तथाहि
(बौद्ध धर्म भारतवर्ष से बिलकुल ही निर्वाचित नहीं हो गया। वर्तमान पौराणिक धर्म पर उसने जो प्रभाव डालाहै वह कुछ कम नहीं, अपने पीछे उसने एक विशेष सम्प्रदाय को छोड़ा जो जैन नाम से अब तक भारतवर्ष में प्रचलित है । लगभग १५ लाख जैन इस समय इस देश में पाये जाते हैं। ......... ....... भारतवर्ष के जैन प्रायः सौदागर वा साहूकार हैं। उनका सिद्धान्त है कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से भी पुराना है और बुद्ध की शिक्षा का आधार जैन मत ही था । परन्तु भारत के ऐतिहासिक निरीक्षण से यही पता चलता है कि बौद्ध और जैन धर्म वास्तव मे एकही हैं और गौतमबुद्ध जैन धर्म में महावीर स्वामी के नाम से परिचित हैं।) भारतवर्ष का सच्चा इतिहास पृष्ट २०८] '
हमारे विचार में इस प्रकार के संराय और भ्रम के प्रचलित होने का कारण भी पुराण ग्रन्थों में, जैन धर्म विपयिक किये गये
(१.) लेखक रघुवीरशरण डबलिस, मिलने का पता मैनेजर भास्कर प्रेस मेरठ शहर। पाठकों को स्मरण रहे कि यह दशासच्चे इतिहास की है। अगर कहीं सच्चा न होता तब तो ईश्वर जाने इसमें क्या क्या लिखा जाता। भगवान ऐसे इतिहास लेखकों का भला करें।
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__ . पुराण और जैन धर्म उल्लेख ही हैं। उदाहरणार्थ आग्नेय पुराण में से कुछ लेख यहां पर उद्धत किया जाता है पाठक उसे खूब ध्यान से पढ़ें ? तथाहि
अग्निरुवाचवो बुद्धावतारं च पठतः श्टणुतोऽर्थदम् । पुरा देवासुरे युद्धे दैत्यैर्देवाः पराजिताः ॥१॥ रक्ष रक्षेति शरणं वदन्तो जग्मुरीश्वरम् । मायामोहस्वरूपोऽसौ शुद्धोदनसुतोऽभवत् ॥२॥ मोहयामास दैत्याँस्तान् त्याजता वेदधर्मकम् । तेच बौद्धा वभूवुर्हि तेभ्योऽन्ये वेदवर्जिताः ॥३॥
आहेतः सोऽभवत्पश्चादाहतानकरोत्परान् । एवं पापारीडनो जाता, वेदधर्मादिवर्जिताः॥
[अग्नि पुराण अध्याय ४९] (आनन्द आश्रम सिरिझ का अग्नि पु० अ० १६शोक. १-४) आलोचक--
पाठको ने जैन धर्म के विपय में श्रीमद्भागवत के अनन्तर अग्नि पुराण के कथन को भी सुन लिया ? कथन, एक से एक बढ़कर है।
अनि पुगण के ऊपर दिये ग्रोकों का तात्पर्य इस प्रकार है-घनिदेर बोले, कि घर में युद्ध के प्रबनार को रहता है। यह पढ्ने घोर मुनने में मन.. कामना पूर्ण करने वाला है। पूर्व शिसी समय में देवों और दैन्यों का यहाभार्ग गुहला उसमें देवता लोग दैत्यों से हार गये। वे सब मिलकर अपनी रक्षा के
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पुराण और जैन धर्म भागवत में तो लिखा है कि ऋषभदेव के चरित्र को सुन और उनको 'शिक्षा को ग्रहण कर अर्हन नाम के किसी राजा ने जैन मत का प्रचार किया, और यहां अमिपुराण का कथन है कि बुद्ध भगवान् ने ही पश्चात् जैन बनकर उक्त मत को चलाया । अब हम दोनो में से सत्य किसे कहें और मिथ्या किसे ठहरायें । इस बात की पाठक खुद आलोचना करें ? हमारे ख्याल में तो इस प्रकार के लेखों में परस्पर विरोध का देखना, और उनमें सन्देह का उत्पन्न करना ही हमारे अधिकार से बाहर है । क्योंकि ये ग्रन्थ ऋषि प्रणात कहे जाते हैं, अतः ऋषियों के रहस्य भरे लेखों को ऋषि ही समझ सकते हैं। हमारे जैसे स्वल्प मेधावी मनुष्यों का उनकी आलोचना में प्रवृत्त होना छोटे मुंह बड़ी बात कहने के मानिन्द है अतः इस विषय में हमें तो 'मौन-सर्वार्थसाधक' ही ठीक जचता है। परन्तु धन्य है उन लोगों को जो इस प्रकार के आधारों पर ही जैन धर्म का इतिहास लिखने बैठ जाते हैं।
लिये विन्णु भगवान् की शरण को पार हुए। तब भगवान् ने मोह और माया के स्वरूप शुद्धोदन सुत (बुद्द ) के अवतार को धारण किया और दैत्यों को मोह कर उनसे वेद धर्म का परित्याग करा दिया। उसके उपदेश से वे दैत्य तथा वेद मार्ग से भ्रष्ट अन्य लोग चौद्धमतानुयायी वने पश्चात वह (बुद्ध) आहेत (जैन) वना और उसने जैन बनाये । इस प्रकार वेद धर्म से भ्रष्ट पारिड लोगों की स्पत्ति हुई।
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¿
- विष्णुपुराण में लिखा है कि:
इत्युक्तो भगवांस्तेभ्यो मायामोहं शरीरतः । समुत्पाद्य ददौ विष्णुः प्राहचेदं सुरोत्तमान् ॥ ४१ ॥ महामोहोयमखिलान् दैत्यांस्तान्मोहयिष्यति । ततो वध्या भविष्यन्ति वेदमार्ग वहिष्कृताः ॥ ४२ ॥ स्थितौ स्थितस्य मे वध्या पावन्तः परिपन्थिनः । ब्रह्मणो ये ऽधिकारस्था देवदैत्यादिकाः सुराः ॥ ४३ ॥ तद्गच्छत न भीकार्या महामोहोयमग्रतः । गच्छत्वद्योपकाराय भवतां भविता सुराः ॥ ४४ ॥
पुराण और जैन धर्म
[ विष्णु पुराण ]
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नाराशर उवाच:
इत्युक्ताः प्रणिपत्येनं ययुर्देवा यथागतम | महामोहोऽपि तैः सार्द्धं ययौ यत्र महासुराः ||१५||
[ अंश ३ अध्याः १७ ] [बंगवासी एलेक्ट्रो मशीन प्रेस में मुद्रित बंगला श्रावृत्ति विष्णुपुराण अंश ३ अध्याय १७-१८ जैन धर्म ]
पाराशर उवाच:
तपस्यभिरतान् सोऽथ महामोहो महासुरान् ।
मैत्रेय ! ददृशो गत्वा नर्मदा तीरंसंश्रितान् ॥ १ ॥
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पुराण और जैन धर्म
ततो दिगम्बरो मुण्डो वर्हिपत्रधरो द्विज ! मायामोहोऽसुरान् श्लक्ष्णमिदंवचनमब्रवीत् ॥ २ ॥
महामोह उवाच:भो दैत्यपतयो ! व्रत यदर्थं तप्यते तपः ॥ ऐहिकं वाथ पारत्र्यं तपसः फलमिच्छथ || ३ ||
"
असुरा ऊचु:
पारत्र्यफललाभाय तपश्चर्या महामते ।
अस्माभिरियमारब्धा किं वा तेऽत्र विवक्षितम् ॥ ४ ॥
}
महामोह उवाच:--
कुरुध्वं मम वाक्यानि यदि मुक्तिमभीप्सथ | ध्वं धर्ममेतंच मुक्तिद्वारमसंवृतम् ॥ ५॥ . धर्मो विमुक्तेरहोंयं नैतस्मादपरः परः । वावस्थिताः स्वर्गं विमुक्तिं वा गमिष्यथ ॥ ६ ॥ श्रध्वं धर्ममेतं च मर्वे यूयं महावलाः । एवं प्रकारैर्बहुभिर्युक्तिदर्शनवर्द्धितैः मायामोहेन दैत्यास्ते वेदमार्गादपाकृताः । धर्मायैतदधर्माय सदेत्तन्नसदित्यपि ॥ ८ ॥ विमुक्तयेत्विदन्नैतद्विमुक्ति सम्प्रयच्छति ।
॥ ७ ॥
परमार्थोयमत्यर्थं परमार्थो न चाप्ययम् ॥ ६ ॥
"
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पुराण और जैन धर्म कार्यमेतदकार्य च नैतदेवं स्फुटत्विदम् ।
दिग्वाससामयं धर्मो धर्मोयं बहुवाससाम् ॥ १० ॥ इत्यनैकान्तवादं च मायामोहेन नैकधा । तेन दर्शयता दैत्याः स्वधर्मात्त्याजिता द्विज ! || ११|| थेमं महाधर्मं महामोहेन ते यतः । प्रोक्तास्तमाश्रिता धर्ममार्हतास्तेन तेऽभवन् ॥ १२ ॥ त्रयीधर्मसमुत्सर्गं मायामोहेन तेऽसुराः । कारितास्तन्मया ह्यासं तथान्ये तत्प्रबोधिताः ॥ १३ ॥ तैरप्यन्ये परतैश्च तैरप्यन्यं परे च तैः ।
अल्पैरहाभिः सन्त्यक्ता तैर्दैत्यैः प्रायशस्त्रयी ॥ ११ ॥ पुनश्चरक्ताम्बरधृङ् मायामोहो जितेक्षणः ।
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अन्यानाहासुरान् गत्वा मृद्रल्पमधुराक्षरम् ॥ १५ ॥ स्वगार्थ यदि वाञ्छावो निर्वारणार्थमथासुराः । तदलं पशुधातादि दुष्टधर्मैर्निबोधत ॥ १६ ॥ विज्ञानमयमेवैतदशेषमवगच्छथ ।
बुध्यध्वं मे वचः सम्यग बुधैरेवमुदीरतम् ॥१७॥ जगदेतदनाधारं भ्रान्तिज्ञानार्थतत्परम् । रागादिदुष्टमत्यर्थं भ्राम्यते भवसंकटे ॥१च'
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२६
पुराण और जैन धर्म पाराशर उवाच:एवं बुध्यत बुध्यत्वं बुध्यतैवमितीरयन् । महामोहः स दैतेयान् धर्ममत्याजयन्निजम् ॥१६॥ नानाप्रकारवचनं स तेषां युक्तियोजितम् । तथा तथा च तद्धर्म तत्यजुस्ते यथा यथा ॥२०॥
तेप्यन्येषां तथैवोचु रन्यैरन्ये तथोदिताः । • मैत्रेय ! तत्यजुर्धर्म वेदस्मृत्युदितं परम् ॥२१॥
अन्यानप्यन्यपाखंडप्रकारैर्बहुभिर्द्विज! । दैतेयान् मोहयामास मायामोहोतिमोहकृत् ॥२२॥ स्वल्पेनैव हि कालेन मायामाहेनतेऽसुराः । मोहितास्तत्यजुःसा त्रयीमार्गाश्रितां कथाम् ॥२३॥ केचिद्विनिन्दां वेदानां देवानामपरे द्विज!। यज्ञर्कमकलापस्य तथान्ये च द्विजन्मनाम् ॥२४॥ नैतयुक्तिसहवाक्यं हिंसाधर्माय नेष्यते। हवींष्यनलदग्धानि फलायेत्यर्भकोदितम् ॥२५॥ -यशैरनेकैर्देवत्वमवाप्येन्द्रेण भुज्यते । शम्यादि यदि चेत्काष्टं तद्वरं पत्रभुपशुः ॥२६॥ निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते । । स्वपिता यजमानेन किंतुकस्मान्नहन्यते ॥२७॥
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पुराण और जैन धर्म
तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः । दद्याच्छ्राद्धं श्रद्धयान्नं न वहेयुः प्रवाग्निः ||२८||
-इत्यादि
मायामोहेन ते दैत्याः प्रकारैर्बहुभिस्तथा । व्युत्थापिता यथा नैषांत्रयीं कश्चिद्ररोचयत् ॥२६॥ इत्यमुन्मार्गयातेषु तेषु दैत्येषु तेऽमराः । उद्योगं परमं कृत्वा युद्धाय समुपस्थिताः ॥ ३० ॥ ततो देवासुरं युद्धं पुनरेवाभवद्विज ! | हताश्वतेऽसुरा देवैः सन्मार्गपरिपन्थिनः ||३१||
[ ० १८ अंश ३]
भावार्थ:- एक वक्त देवता और असुरों का बड़ा भारी युद्ध -हुआ उसमें देवों का पराजय और असुरा की जीत हुई । परानित हाकर देवता लोग विष्णु भगवान की शरण में आये और आकर विष्णु की बहुत सी स्तुति करने के बाद, श्रमुरा पर विजय प्रा करने के लिये उनसे प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना को सुन विष्णु ने
अपने शरीर से "माया मोह" नाम के एक पुरुष का उत्पन्न करके देवताओं से कहा कि प्रान इसे ले जाइये | यह "मायामोह " सभा दैत्यों का मोह लेगा, फिर वेद मार्ग से भ्रष्ट हुए दैत्य लोग (आपके द्वारा) बब किये जा सकगे । हे देवों ! देव अथवा दानव जितने भी वेद मर्यादा के विरोधी हैं वे सभी मेरे द्वारा वध करने के योग्य
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२८
पुराण और जैन धर्म है । इसलिये आप लोग जाओ, किसी प्रकार का भय मत करो.।। आपके उपकारार्थ यह "मायामोह"आपकेसाथ जाताहै।४१-४४||
इस प्रकार विष्णु ने जब उनको समझाया तब सभी देवगण उनको प्रणाम कर अपने २ स्थान को चले और “मायामोह" भी उनके साथ हो लिये । वे सब वहां आ पहुंचे जहां पर असुर लोग तप कर रहे थे। ___पाराशर जी कहते है हे मैत्रेय ! नर्मदा के किनारे पर तपस्या में लगे हुए असुर लोगों को मायामोह ने आकर देखा और शरीर से नग्न, सिर मुडा हुआ और हाथ में मोर पंखी लिये हुए, बड़े मधुर स्वर से "मायामोह" ने उन दैत्य लोगो से कहा कि, हे दैत्य लोगो! आप यहां किस लिये तप कर रहे है ? आपको ऐहिकः इस लोक में होने वाले] फल की इच्छा है वा पारलौकिक [पर लोक मे होने वाले] पल की अभिलाषा है ? यह सुन असुरो ने कहा कि हमने यह तपश्चर्या, पारलौकिक फल की इच्छा से प्रारम्भ की है, आप कहे श्रापको इस में क्या वक्तव्य है ? इस पर"माया-- मोह" ने कहा कि यदि आपको मोक्ष की इच्छा है तो आप मेरे कथन को मानो ? आप लोग इस (आहत-जैन) धर्म का सेवन करो। यह धर्म मोक्ष का खुला दरवाजा है । मुक्ति के लिये इसके बढ़कर और कोई धर्म नहीं । इसी धर्म मे आरूढ़ हुए आप लोग स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कर सकोगे ? इसलिये आप इसी धर्म का अनुष्ठान कीजिये । इस प्रकार अनेक युक्तियों द्वारा “मायामोह"" ने उन दानवो को वेद मार्ग से.पराड्मुख कर दिया। जैसे कियह धर्म के लिये है और अधर्म के लिये भी । यह वस्तु सत् है।
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पुराण और जैन धर्म २९ _ 'और असत् भी है। यह कर्म मोक्ष के लिये है और मोक्ष का
विरोधी भी है । यह परमार्थ है और परमार्थ नहीं भी । यह करने योग्य है और नहीं करने लायक भी है । एवं यह इस प्रकार है
और नहीं भा । यह न्यावाद] दिगम्बरा और श्वेताम्बरों का समान धर्म है । हे मैत्रेय ! इस तरह अनेक प्रकार से अनेकान्तवाद को चतलाते हुए उस मायामोह ने देत्यां से स्वयम वेद विहित धम] का परित्याग करा दिया। जिस लिये मायामोह ने अमरों से "इम धर्म अर्हथ" [इस धर्म का पूजन करो] इसमें "अर्हथ" ऐने कहा, इसलिये उस धर्म के अनुयायी आहेत-जैन-कहलाये । इस प्रकार मायामोह ने जिन अनुरों से वैदिक धर्म का परित्याग कराया वे तन्मय होकर अन्यो को उपदेश करने लगे और उन्होंने औरों को उपदेश दिया इस तरह थोड़े ही दिनों में प्राय. सभी देत्य, वैदिक धर्म का त्याग कर बैठे ॥१-१४॥
फिर वही माया मोह [जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है] रक्त वस्रो को धारण कर, अन्य असुरों के पास जा, बड़ी मधुर वाणी से कहने लगे कि, हे श्रपुर लोगो ! यदि चारको स्वर्ग अथवा मोक्ष की अभिलाषा है तो आप इस पशु वधादि दुष्ट कर्म को छोड़ दा । मुनी ! यह सम्पूर्ण जगन विज्ञान मात्र है । प्राय लाग मेरे कथन को अच्छी तरह से समझो । विद्वानो का कथन है कि यह जगत
आधार से शून्य और भ्रान्ति मात्र ही है। यह मनुष्य रागादि ने दुप हुयाही संसार में भ्रमण कर रहा है। तुम लोग समझने लायक जो है उसे समझो ? इस प्रकार पहने हुए मायामोह ने. उन दैत्यों को प्रश्ने धर्म से गिरा दिया। वह "मायामाह-"
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पुराण और जैन धर्म अनेक प्रकार की उक्ति-युक्तियों से भरे हुए वचन, जैसे २ उन-दैत्योंको सुनाता गया, वैसे २ वे अपने धर्म का परित्याग करते गये। जिन असुरों ने अपने धर्म को त्याग दिया, वे अन्यों को उपदेश करने लगे अन्य औरों को, इसी तरह हे मैत्रेय ! बहुत से दैत्यों ने वेद विहित धर्म को त्याग दिया। तथा उस मायामोह ने बहुत प्रकार के अन्यान्य पाखण्डों के उपदेश द्वारा अन्य असुरों को भी मोह लिया, जिससे थोड़े ही समय में मायामोह द्वारा मोहित हुए असुर लोग वेदोक्त धर्म को सर्वथा त्याग बैठे। उनमें से बहुत सं तो वेदों की निन्दा करने लग गये और बहुत से देवों की, तथा कितने, एक यज्ञ कर्म कलाप और कई एक ब्राह्मणों की निन्दा में प्रवृत्त हो गये । जैसे कि-यह वेदोक्त कथन युक्ति सह नहीं, और. वेदोक्त हिसा धर्म के लिये नहीं हो सकती, अग्नि में डाले हुए हविः का स्वर्गादिपल होता है यह कथन बालकों के कथन के समान है। अनेक यज्ञों के अनुष्ठान द्वारा देवत्व को प्राप्त हुआ इन्द्र यदि शमि आदि काष्ठ का भक्षण करता है तो, उससे पत्रभोजी पशुही श्रेष्ट है। यदि यज्ञ में मारे हुए पशु को स्वर्ग मिलता है तो यजमानः ( यज्ञ कर्ता) अपने पिता को ही यज्ञ में क्यों नहीं मार डालता ? यदि श्राद्ध में एक मनुष्य का खाया हुआ भोजन, दूसरे को तृप्त कर देता है तो मुसाफिरो को साथ में खाना उठाने की क्या श्रावश्यकता ? क्योकि उसके नाम से घर में किसी दूसरे को खिला देने से ही उसकी तृप्ति हो जायगी। ।। १५-२८ ॥
इस प्रकार, अनेक तरह की उक्तियों द्वारा मायामोह ने उन असुर लोगों को ऐसा बना दिया कि उनमें से किसी की भी श्रद्धारा
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३६ वेदोक्त धर्म पर न रही । इस प्रकार नब सब दैत्य लोग सन्मान छोड़, कुमार्ग गामी हो गये तब देवताओं ने पुनः युद्ध के लिये उद्योग किया और असुरों के साथ फिर से उनका बड़ा भारी युद्ध हुआ । परन्तु इस वक्त [स्वधर्म द्वेपी और कुमार्ग सेवी] अमुरो का देवों ने जीत लिया। अर्थात् इस समय के देवासुर संग्राम में अमरों की हार और देवों की जीत हुई।
थालोचक-पाठको ने विष्णु पुराण की जैन-धर्म विपरिणी उक्ति को सुनलिया । इसका संक्षिप्त सार यही है कि, विष्णु भगवान ने अपने शरीर से उत्पन्न किये मायामोह नाम के एक पुरुष विशेष द्वारा जैन और बौद्ध धर्म का उपदेश दिलाकर असुर लोगो ने बंद विहित यन यागादि धर्मों का परित्याग करा दिया। वेदोक्त मार्ग का परित्याग कर देन से असुर लोग निर्बल हो गये, अतः दूसरी बार के युद्ध मे देवताओं ने उनको जीत लिया। [विष्णु पुराण के लेखका भागवत और आग्नेय.
पुराण से विरोध] विष्णु पुराण के उक्त लेख की श्रीमद्भागवत और आग्नेय पुराण के पूर्वोक्ति लेखों के साथ तुलना करते हुए बहुत कुछ विरोध मालूम पड़ता है।
(१) श्रीमद् भागवत में जैन धर्म का प्रवर्तक कोई बहन नाम का राजा बतलाया है वह भी भागवत के निर्माण काल में प्रथम नहीं किन्तु बहुत समय पीछे जयफि घोर कलियुग का समय होगा इस प्रकार भविप्य वारणी की घोपणा की है परन्तु विष्णु पुराण
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- का ध्यान पूर्वक अवलोकन करने से जान पड़ता है कि जैन धर्म के प्रचारक साक्षात विष्णु भगवान ही हैं दूसरा कोई नहीं ?
(२) श्रीमद् भागवत में अर्हन् राजा के जैन होने और जैन-धर्म का प्रचारक बनने का मूल कारण ऋषभावतार की शिक्षा और चरित्र को बतलाया है मगर विष्णु पुराण में इस बात का जिकर तक नहीं । एवं आग्नेय पुराण में लिखा है कि विष्णु भगवान ने प्रथम बुद्ध के अवतार को धारण कर बौद्ध-धर्म का उपदेश दिया ओर बाद में आई जिन बनकर जैन धर्म का प्रचार किया । तात्पर्य कि अग्नि पुराण के कथनानुसार वौद्ध धर्म के बाद जैन-धर्म का होना सावित होता है । परन्तु विष्णु पुराण का लेख इससे उलटा है अर्थात् उसके अनुसार जैन धर्म के अनन्तर वौद्ध-धर्म का होना प्रतीत होता है । अत्र इन कथनों की संगति किस प्रकार लगाई जा सके यह हमारी तुच्छ बुद्धि से बाहर है, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रकार के लेख महर्षि पुंगव भगवान् वेद व्यास के नाम को तो कुछ न कुछ अवश्य लांछित करते हैं । अतः विद्वानों को उचित हैं कि वे इस विनय पर अवश्य प्रकाश डालें ? |
[विष्णु पुराण के लेख में विचित्रता ]
हमारे पाठकों ने जैन धर्म विषयक श्रीमद्भागवत और अग्निपुराण के कथन का अवलोकन कर लेने के बाद, विष्णु पुराण के उस लेख को भी पढ़ लिया है जोकि जैन धर्म की उत्पत्ति और विषय से संबन्ध रखता है। तथा इनमें परस्पर जो विरोध है उसका भो दिग्दर्शन ऊपर के लेख में करा दिया गया है अत्र मात्र विष्णु पुराण
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धुगण और जैन धर्म कलेख में जो परम्पर विरोध मूलक वैविध्य है उसकी और भी पाठक ध्यान दें। वि.गुपुराण में उल्लेख किये "दिवाससामयं धर्मो धर्मोऽi बहुवाससाम्" नया "अहमं महाधनं मायागोहेन तेयनः । प्राकाम्नमात्रियन नाहनातन नेऽभवन्” इन दो वाक्यों को ध्यान पूर्वक देखन से बहुत कुछ विचित्रता प्रतीत होती है। ऊपर के आध श्लोक में ना जैन धर्माभिमत सप्त भंगीनय का संक्षित स्वरूप बतज्ञान हुए यह कहा है कि यह [अनेकान्तवाद-स्याद्वाद] दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों का समान धर्म-मन है। दूसरे शोक में जो कुछ कहा है उसका तात्पर्य यह है कि इस स्याद्वाद रूप] महा धर्म के जो अनुयायी बने वे आईन्-जैन कहलाये । इनमे इस दूसरे श्लोक के कथन से तो यह साबित होता है कि जैन धर्म के प्रथम प्रवर्तक विष्णु भगवान के शरीर से उत्पन्न हुए "मायामोह" नाम के कोई पुम्प विशप है, उन्होंने ही असुरो को प्रथम इस धर्म का उपदेश दिया। विही बाद में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक हुए] परन्तु ऊपर के अर्द्ध नाक मे तो कुछ और ही प्रतीत होता है । उस पर विवार करने से मालूम होना है कि इससे बहुत समर पूर्व ही जैन धर्म के सिद्धान्त प्रचार में पा चुके थे। जहां तक कि "मायामाह' के उपदंश समय में नो यह दिगन्धर पोर श्रनाम्बर इन ना मुख्य शाग्याओं में भी विभक्त हो चुका था। तात्रय यह है
कि बहुत समय से चले आते जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्त काही । मायामाह ने अमुरो को उपदेश किया, न कि निजमति से उन्होंने किसी एक नवीन मत की नीव डाली । इसलिये इन विरोधी कयनी की नंगनि किस प्रकार लगाई जाय । इमरा विचार भी पाठकों के
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पुराण और जैन धर्म लिए आवश्यक है ? हमारे ख्याल में तो इस प्रकार के विरोधों की - उपस्थिति और उसकी संगति के लिए अनेक प्रकार की वाधायें
तभी हमारे सामने उपस्थित होती हैं जब कि हम इस प्रकार के परामर्श के लिए ऐतिहासिक दृष्टि को अपने सामने रखते हैं, नहीं तो धार्मिक दृष्टि के सामने इस प्रकार के विरोधी को पूछता ही कौन है ? वढ़े हुए धार्मिक दृष्टि रूप नदी के प्रचण्ड वेग में तो शंकाओं के बड़े २ पहाड़ भी वह जाते हैं तो फिर एक मामूली से विरोध रूप एक क्षुद्र तृण की तो गणना ही व्यर्थ है। अतः विष्णु पुराण के उक्तलेख मे विरोध देखने वाले सज्जनों को ऐतिहासिक छष्टि की जगह धार्मिक दृष्टि से काम लेना चाहिये ! बस धार्मिक चष्टि के सामने आते ही सब विरोध काफूर हो जावेगे। सज्जनो! धार्मिक दृष्टि कोई बुरी चीज़ नहीं, धार्मिक दृष्टि मनुष्य जीवन का सर्वोत्तम गुण है, धार्मिक विश्वास मनुष्य के लिए उतनाही उपयोगी है जितना कि धूप मे मुझोये हुए एक छोटे से पौदे के लिये जल । इसलिये जिस जीवन में धार्मिक विश्वास नहीं वह नीरस है, शुल्क है और निकम्मा है ! अतः हमारा कटाक्ष धार्मिक दृष्टि पर नहीं किन्तु उसकी निर्यादता और दुरुपयोगिता पर है। आशा है कि सहृदय पाठक इतने ही में हमारे असली अभिप्राय को समझ गये होंगे ?
विष्णु पुराण के उक्त लेख का समय] विष्णु पुराण की रचना किस समय में हुई इस बात का यद्यपि अभी तक कुछ निश्चय नहीं हुआ और न इसका यथावत निर्णय होना कुछ शक्य ही प्रतीत होता है, तथापि उक्त लेख के
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पुराण और जैन धर्म
विषय में इतना निःशंक कहा जा सकता है कि यह लेख, जैन पश्चाद्भावी बौद्ध-धर्म के भी बहुत समय पीछे का है। क्योंकित लेख में सत्र जगह प्राय भूतकाल की क्रिया का ही प्रयोग दृष्टिगोचर होता है।
[द्वेष की पराकाष्ठा ] विष्णु पुराण के देखने में एक बात और भी प्रतीत होती है वह यह कि उस समय जैन और बौद्ध धर्मानुयायियों के साथ अन्य धर्मानुयायियों का इनना विरोध बढ़ रहा था कि वे इनके साथ पर्श और सम्भापण करने में भी पाप समझतं थे। (तस्मादेतान्नरोनग्नांस्त्रयीसंत्यागदूपितान् । सर्वदा वर्जयेत् प्राज्ञः पालाप स्पर्शनादिपु ॥]
[घ०१८ अंश ३] तबाहि-इम सम्बन्ध में वहां एक कया है कि शत धनुः राजा और उसकी "दीच्या" नाम की भाया दोनों बडे धर्मामा तया विष्णु के परम भन थे। एक समय कार्तिकी पालिमा को उन दोनों ने उपवाम किया दोनों गगा ने स्नान करने को गये जब वे वहां ने म्नान कर लौटे तो राम्न में उनको एक पाखण्डी-जैन अथवा बौद्ध साधु मिल गया । वह राजा के धनुविद्याचार्य का मित्र था इस लिये राजा को उनके नार बोलना पड़ा. नगर रानी ने उनसे मिनी प्रकार का नन्भारण नहीं किया। गनी तो मर कर गाशीगज की पुत्री बनी और राना कुना बना रानी को जाति का स्मरण नान होने के कारण उसने गजागे पूर्व जन्म रा बोध गया।
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पुगण और जैन धर्म किर मर कर क्रमशः गीदड़, व्यान, गृध्र, काफ, और मयूरादि की योनि में फिरता हुआ अन्त में जनक राजा के घर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ । परन्तु यह मनुष्य योनी उसे तब मिली जब कि अश्वमेध यज्ञ के अन्त में होने वाले अवभृथ स्नान का उसे सौभाग्य प्राप्त हुआ | "पाराशर ऋषि कहते हैं हे मैत्रेय ! मैंने यह पाखंडी के साथ सम्भाषण करने का दोष और अश्वमेध में होने वाले अवभृध स्नान का माहात्म्य तुमको सुना दिया"
एष पाषाण्डिसम्भाषदोषः प्रोक्तो मया द्विज!। तथाश्वमेधावभृथस्नानमाहात्म्यमेवच ॥
[अं०३ अ०१८] अब पाठक इससे नतीजा निकाल सकते हैं अथवा समझ सकते हैं उस समय में आपस का द्वेप किस सीमा तक पहुंचा हुआ था । हमारे ख्याल में तो वर्तमान समय में, जैन तथा अन्य धर्मावनस्त्रियों मे जो द्वेप की मात्रा प्रति दिन बढ़ रही है अथवा बढ़ी हुई है उसका कारण इस प्रकार की भद्रकथायें और यत्र तत्र दिये गय (श्लोको द्वारा) सभ्य उपदेश ही हैं। क्योंकि "नह्यमूला प्रवृत्ति" कुछ भी हो दुःख सिर्फ इतना ही है कि इस प्रकार की उक्तियों की पुष्पमाला भी महर्षि व्यासदेव जी के ही गले में डाली जाती है जिसके लिये वे सर्वथा योग्य नहीं ? क्या ही अच्छा होजो कि इस अमृल्य भेट से उन विचारों को वंचितही रखा जाय । इसके सिवाय उक्त लेखकी बहुत सी बाते परीक्षा करने के योग्य हैं परन्तु विस्तार भय से हम उनका यहां पर जिक्र नहीं करते। हमारे सुज्ञ पाठकों के लिये इतना ही पर्याप्त है।
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पुगग और जैन धर्म [ शिव पुराण []
शिव पुराण में भी जैन धर्म की उत्पत्ति का कुछ जिकर है। उसमें जो कुछ लिखा है वह पूर्वोक्त पुराण ग्रन्थों के लेख में भी विलक्षण है । पाठकों के विनोदार्थ उसे भी हम यहां पर उद्धत करते हैं:- तथाहि
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सनत्कुमार उवाच:
श्रमृजच्च महातेजाः पुरुपं स्वात्मसम्भवम् । एकं मायामयं तेषां धर्मविनार्थमच्युत ॥१॥ मुण्डिनं म्लानवस्त्रं च गुम्फिपात्र समन्वितम् । दधानं पुंजिकां हरते चालतं पदे पढ़े ||२|| वस्त्रयुक्तं तथा हस्तं क्षिप्यमाणं मुखेसदा । धर्मेति व्याहरन्तं तं वाचा किल्लवया मुनिम् ॥ ३॥ स नमस्कृत्य विष्णुं तं तत्पुरस्संस्थितोऽथवै । उवाच वचनं तत्र हरिं सः प्रांजलिस्तदा ||४||
रिहन्नच्युतं पूज्यं किं करोमि तदादिश । कानि नामानि मे देव स्थानं वापि वद प्रभो ॥५॥ इत्येवं भगवान् विष्णुः श्रुत्वा तस्य शुभं वच । 'प्रसन्नमानसो भूत्वा वचनं चेदमत्रवीत् ॥६॥
[कलकत्ता बंगाल प्रावृत्ति शिवपुराण ज्ञान मं० ० २१-२२ पु० ८३ थोड़े फेर फार से मिलता है ।]
वृष्टि इति पाठः ।
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पुराण और जैन धर्म विगुरुवाचः
यदर्थं निामतोसि त्वं निबोध कथयामि ते । ; मदंगज महाप्राज्ञ मद्भपस्त्वं न संशय |७|| - ममांगाच्च समुत्पन्नो मत्कार्यं कर्तुमर्हसि । मदीयस्त्वं सदा पूज्यो भाविष्यसि न संशयः ॥८॥ अरिहन्नाम ते स्यात्तु ह्यन्यानि च शुभानि च । स्थानं वक्ष्यामि ते पश्चाच्छृणु प्रस्तुतमादरात्॥६॥ मायिन् ! मायामयंशास्त्रं तत्षोडशसहस्रकम् । श्रौतस्मातविरुद्धं च वर्णाश्रमविवर्जितं ॥१०॥ अपभ्रंरामयं शास्त्रं कर्मवादमयं तथा । रचयेति प्रयत्नेन तद्विस्तारो भविष्यति ॥११॥ ददामि तव निर्माणे, सामर्थ्यं तद्भावष्यति । माया च विविधा शीघ्रं त्वदधीना भविष्यति॥१२॥ तच्छुत्वा वचनं तस्य, हरेश्च परमात्मनः।
नमस्कृत्य प्रत्युवाच स नायीतं जनार्दनम् ॥१३|| मुण्डयुवाचः
यत्कर्तव्यं मयाण्ड्युदेव द्रुतमादिश तत्प्रभो!। त्वदाज्ञयाऽखिलं कर्म सफलञ्च भविष्यति॥१४॥
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पुराण और जैन धर्म
मनकुमार उवाच:
इत्युक्त्वा पाठयामास शास्त्रं मायामयं तथा। इहैवस्वर्गनग्कप्रत्ययोनान्यथा पुनः ॥१५॥ तमुवाच पुनविष्णुः स्मृत्वा शित्रपदाम्बुजम् । मोहनीया इमे दैत्याः सर्वे त्रिपुरवासिनः ॥१६॥ कार्यास्ते दीक्षिता नूनं पाठनीयाः प्रयत्नतः । मदाज्ञया न दोपस्ते भविष्यति महामते ॥१७॥ धर्मास्तत्र प्रकाशन्ते श्रौतस्माता न संशय । अनया विद्यया सर्वे स्फोटनीया ध्रुवं हि तो॥१८॥ गन्तुमर्हसि नाशार्थ मुण्डिन् ! त्रिपुर वासिनाम् । तमोधर्म सम्प्रकाश्य नाशयस्त्र पुरत्रयम् ॥१६॥ ततश्चैव पुनर्गत्वा मरुस्थल्यां त्वया विभो ! स्थातव्यं च स्वधर्मेण कलिर्यावत् समाव्रजेत् ॥२०॥ प्रवृत्ते तु युगे तस्मिन् स्वीयोधर्म प्रकाश्यताम् । शिप्यैश्च प्रतिशिप्यैश्च वर्द्धनीयस्त्वया पुन. ॥२१॥ मदाज्ञया भडुमा विरतारं यास्यति ध्रुवम् ।। मदनुज्ञापरो नित्यं गति प्राप्स्यसि मामक्रीम् ॥२२॥ • पु० येन भ्रश चं।
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पुराण और जैन धर्म
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एवमाज्ञा तदा दत्ता विष्णुना प्रभविष्णुना । शासनाद्देवदेव य हृदात्त्रन्तर्दधे हरि ||२३||
ततः स मुण्डी परिपालयन् हरे, राशां तथा निर्मितवांश्च शिष्यान् । यथा स्वरूपं चतुरस्तदानीं,
मायामयं शास्त्रमपाठयत् स्वयम् ||२४|| यथास्त्रयं तथा ते च चत्वारो मुण्डिनः शुभाः । नमस्कृत्यास्थिता स्तत्र हरये परमात्मने ||२५|| हरिश्चापि मुनेस्तत्र चतुरस्तांस्तदा स्वयम् | उवाच परमप्रीतः शिवाज्ञापरिपालकः ॥२६॥ यथा गुरुस्तथा यूयं भविष्यथ मदाज्ञया । धन्याःस्थ सद्गतिमिह सम्प्राप्स्यथ न संशयः॥२७॥ चत्वारो मुण्डिनस्तेऽथ धर्मपाषण्डमाश्रिताः । हस्ते पादधानश्च तुण्डवस्त्रस्य धारकाः ||२८|| मलिनान्येव वासांसि धारयन्तोऽल्पभाषिण. । धर्मोलाभः परन्तत्वं वदन्तस्त्वतिहर्षतः ॥२९॥ मार्जनींध्रियमाणाश्च वस्त्रखण्डविनिर्मताम् । शनैःशनैश्चलन्तो हि जीवहिंसा मयादुद्भवम् ॥३०॥
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पुराणं और जैन धर्म -
४१
तं सर्वे च यदा देवं भगवन्तं मुदान्विताः । नमस्कृत्य पुनस्तत्र सुने तस्थुस्तदग्रतः ||३१|| हरिणा च तदा हस्ते धृत्यां च गुरवेऽर्पिताः । अन्यधायी च सुप्रीत्या तन्नामापि विशेषतः ॥३२॥ यथा त्वं च तथैवैते मदीया वै नसंशयः । श्रादिरूपं च तन्नाम पूज्यत्वात्पूज्य उच्यते ॥ ३३॥ ऋपिर्यतिस्तथाकार्य उपाध्याय इतिस्वयम् । इमान्यपितु नामानि प्रसिद्धानि भवन्तु वः ||३४|| ममापि च भवद्भिश्च नामग्राह्यं शुभं पुनः | - अरिहन्निति तन्नाम ध्येयं पापप्रणाशनम् ||३५|| भवद्भिश्चैव कर्तव्यं कार्यं लोकसुखावहम् । लोकानुकूलं चरतां भविष्यत्युत्तमागतिः ||३६||
सनत्कुमार उवाच
ततः प्रणम्य तं मायी शिप्ययुक्तः स्वयं तदा ।
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शिवेच्छाकरिणं मुदा ||३७|
जगाम त्रिपुरं सद्यः प्रविश्य तत्पुरं तूर्णं विष्णुना नोदितो वशी ।महामायाविना तेन ऋषिर्मायां तदाकरोत् ||३८|| नगरोपवने कृत्वा शिष्यैर्युक्तः स्थिति तदा । -
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पुराण और जैन धर्म मायां प्रवर्तयामास मायिनामपि मोहिनीम् ॥३६॥ शिवार्चनप्रभावन तन्माया सहसा मुने! । त्रिपुरे न चचालाशु निर्विएणोऽभूत्तदायतिः॥४०॥ श्रय विष्णुं च सस्मार तुष्टाव च हृदाबहुः । नष्टोत्साहो विचेतस्को हृदयेन विदूयता ॥४१॥ तत्स्मृतस्त्वरितं विष्णुः सस्मार शंकरं हृदि । प्राप्याज्ञा मनसा तस्य स्मृतवान्नारदं द्रुतम् ॥४२॥ स्कृतमात्रेण विष्णोश्च नारदःसमुपस्थितः। नत्वा स्तुत्वा पुरस्तस्य स्थितोभूत् सांजलिस्तदा॥४३ अथ तं नारदं प्राह विष्णुसंतिमतांवरः । लोकोपकारनिरतो देवकार्यकरस्तदा ॥ ४४ ॥ शिवाशयोच्यते तात गच्छ त्वं त्रिपुरं द्रुतम् ।
ऋषिस्तत्र गतः शिष्यैर्मोहार्थं तत्सुवासिनाम् ॥४५॥ सनत्कुमार उवाचइत्याकर्ण्य वचस्तस्य नारदो मुनिसत्तमः । गतस्तत्र द्रुतं यत्र स ऋषिर्मायिनां वरः ॥४६॥ नारदोपि तथा मायी नियोगान्मायिनः प्रभो। प्रविश्य तत्पुरं तेन मायिना सह दीक्षितः ॥४७॥ .
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पुगण और जैन धर्म ततश्च नारदो गत्वा त्रिपुराधीशसन्निधौ । नेमप्रश्नादिकं कृत्वा राजे सर्व न्यवेदयत, ॥४॥ नारद उवाच"कश्चित्समागतश्चात्र यतिधर्मपरायण । सर्वविद्याप्रकृष्टो हि वेदविद्या परान्त्रितः ॥४६॥ दृष्टाश्च बहवो धर्मा नैतेन सदृशाः पुनः । वयं सुदीनिनाश्चात्र दृष्ट्वा धम सनातनम् ॥५०॥ तवेच्छा यदि वर्तेत तद्धर्मे दैत्यसत्तम ! । तद्धर्मस्य महाराज ग्राह्या दीक्षा त्वया पुनः ॥५॥ सनत्कुमार उवाचतदीयं स वचःश्रुत्वा महदर्थसुगर्भितम् । विस्मितो हृदि दैत्येशो जगौ तत्र विमोहितः १.५२॥ नारदो दीक्षितो यामाद्वयं दीक्षामवानुम | इत्येवं च विदित्वा – जगाम स्वयमेव ह ५३॥ तद्रूपं च नदा दृष्ट्वा मोहितो मायया तथा ।
उवाच वचनं तम्मै नमस्कृत्य महात्मने ॥५४॥ त्रिपुराधिप उवाचदीना देया त्वया मह्यं निर्मलाशय ! भाऋप!। अहं शिप्यो भविप्यामि सत्यं सत्यं न संशयः॥५५॥
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पुराण और जैन धर्म इत्येवं तु वचःश्रुत्वा दैत्यराजस्य निर्मलम् । . प्रत्युवाच सुयत्नेन ऋषिः स च सनातनः ॥५६॥ मदीया करणीयास्याद्यद्याज्ञा दैत्यसत्तमः। . तदा देया मया दीक्षा नान्यथा.कोटियत्नतः ॥५७॥ "इत्येवं तु वचः श्रुत्वा राजा मायामयोऽभवत् ।
उवाच वचनं शीघ्रं यतिं तं हि कृतांजलिः ॥५॥ दैत्य उवाच:यथाज्ञां दास्यति त्वं च तत्तथैव न चान्यथा । त्वदाज्ञां नोल्लंघयिष्ये सत्यं सत्यं न संशयः ॥५६॥ सनत्कुमार उवाच:इत्याकये वचस्तस्य त्रिपुरार्धाशितुस्तदा । दूरीकृर्त्य मुंखाद्वस्त्रमुवाच ऋषिसत्तमः ॥६०॥ दीक्षां गृह्णीष्व दैत्येन्द्र सर्वधर्मोत्तमोत्तमाम् । । येन दीक्षाविधानेन प्राप्स्यसि त्वं कृतार्थताम् ॥६१॥ सनत्कुमार उवाच:इत्युक्त्वा स तु मायावी दैत्यराजाय सत्वरम् । ददौ दीक्षां स्वधर्मोक्तां तस्मै विधिविधानतः ॥६२॥
दैत्यराजे दीक्षिते च तस्मिन् स सहजे सुने ! ।। · · सर्वे च दीक्षिता जातास्तत्र त्रिपुरवासिनः॥६३॥
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पुराण और जैन धर्म मुनेः शिष्यैः प्रशिष्यैश्च व्याप्तमासीद्भुतं तदा । महामायाविनस्तत्तु त्रिपुरं सकलं मुने ! ||६||
[अ० ४] व्यास उवाचः
दैत्यराजे दीक्षिते च मायिना तेन मोहिते। किमुवा च तदा मायी किं चकार स दैत्यपः ।१।। सनत्कुमार उवाच:दीक्षां दत्त्वा यतिस्तस्मा अरिहन्नारदादिभिः । शिष्यैः सेवितपादाजो दैत्यराजानमब्रवीत् ॥२॥ अरिहन्नुवाचःश्टणु दैत्यपते वाक्यं मम सद्ज्ञानगर्भितम् । वेदान्तसारसर्वस्वं रहस्यं परमोत्तमम् ॥३॥ अनादिसिद्धसंसारः कतृकर्मविवर्जितः। वयं प्रादुर्भवत्येव स्वयमेव विलीयते ॥४॥ ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं यावदेहनिवन्धनम् ।
आत्मैवैकेश्वरस्तत्र न द्वितीयस्वदीशिता ॥५॥ यद्ब्रह्मविष्णुरुद्राख्या स्तदाख्या देहिनामिमाः। आख्या यथाऽमदादीनामरिहन्नादिरुयते ॥६॥ देहो यथाऽम्मदादीनां स्वकालेन बिलीयते ।
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पुराण और जैन धर्म ब्रह्मादिमश कान्तानां स्वकालालीयते तथा ॥७॥ विचार्यमाणे देहेऽस्मिन्न किञ्चिदधिकंकचित् । आहारो मैथुनं निद्रा भयं सर्वत्र यत्समम् ॥ ८ ॥ निराहारपरीमाणं प्राप्य सर्वो हि देहभृत् सदृशीमेव सन्तृप्तिं प्राप्नुयान्नाधिकेतराम् ॥ ९ ॥ यथा वितृषिता स्याम पीत्वा पेयं मुदावयम् । तृषितास्तु तथान्येपि न विशेषोऽल्पकोधिकः ॥ १०॥ सन्तुनार्यः सहस्राणि रूपलावण्यभूमयः । परं निधुवने काले ह्येकैवेोपभुज्यते ॥ ११ ॥ अश्वाः परःशताः सन्तु सन्त्वने केप्यनेकधा । अधिरोहे तथाप्येको नद्वितीयस्तर्थांत्मनः ॥ १२ ॥ पर्यंकशायिनां स्वापे सुखं यदुपजायते । तदेव सौख्यं निद्राभि- भूतभूशायिनामपि ॥ १३॥ यथैव मरणाद्भीति, रस्मदादिवपुष्मताम् । ब्रह्मादिकटिकान्तानां तथा मरणतो भयम् ॥ १४ ॥ सर्वेतनुभृतास्तुल्या यदि बुद्ध्या विचार्यते । इदं निश्चित्य केनापि नाहिंस्यः कोपि कुत्रचित् ॥ १५ ॥ धर्मो जीवदयातुल्यो न क्वापि जगतीतले ।
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पुराण और जैन धर्म तस्मात्सर्वप्रयत्नेन कार्या जीवदया नृभिः ॥१६॥ एकस्मिन् रक्षिते जीवे त्रैलोक्यं रनितं भवेत् । घातिते घातितं तद्वत्तस्माद्रजेन्न घातयेत् ॥१७॥ अहिंसा परमो धर्मः पापमात्मप्रपीडनम् । अपराधीनता मुक्तिः स्वर्गोऽभिलपिताशनम् ।।१८॥ पूर्वसूरिभिरित्युक्तं सत्प्रमाणतया ध्रुवम् । तस्मान्न हिंसा कर्तव्या नरैनरकभीरुभिः ||१६|| न हिंसा सदृशं पापं त्रैलोक्ये सचराचरे । हिंसको नरकं गच्छेत् स्वर्ग गच्छेदहिंसकः॥२०॥ सन्ति दानान्यनेकानि किं तैस्तुच्छफलप्रदैः । अभीतिसदृशं दानं परमेकमपीह न ॥ २१ ॥ इह चत्वारि दानानि प्रोक्तानि परमर्षिभिः। विचार्य नाना शास्त्राणि शर्मणेऽत्र परत्र च ॥२२॥ भीतेभ्यश्चाभयं देयं, व्याधितेभ्यस्तथौषधम् | देया विद्यार्थिनां विद्या दयमन्नं सुधातुर ॥२३॥ यानि यानीह दानानि वहुमुन्युदितानिच । जीवाभयप्रदानस्य कलां नार्हन्ति पोडशीम् ॥२०॥
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४८ पुराण और जैन धर्म
अविचिन्त्य प्रभाव हि मणिमंत्रौषधं बलम् । । तदभ्यस्यं प्रयत्नेन नामार्थोपार्जनाय वै ॥२५॥ अर्थानुपायं बहुशो द्वादशायतनानि वै । परितःपरिपूज्यानि किमन्यैरिह पूजितैः ॥ २६ ॥ पञ्चकर्मेन्द्रियग्रामः पञ्चबुद्धीन्द्रियाणि च । मनो बुद्धिरिह प्रोक्तं द्वादशायतनं शुभम् ॥२७॥ . इहैव स्वर्गनरकं प्राणिनां नान्यतः क्वचित्।। सुखं स्वर्ग:समाख्यातो दुःखं नरकमेवहि ॥२८॥ सुखेषु भुज्यमानेषु यत्स्यादेहविसर्जनम् । अयमेव परोमोक्षो विज्ञेयस्तत्वचिन्तकै ॥ २६ ॥ वासनासहिते क्लेशसमुच्छेदे सति ध्रुवम् । अज्ञानोपरमो मोक्षो विज्ञेयस्तत्वचिन्तकैः ॥३०॥ प्रामाणिकी श्रुतिरियं प्रोच्यते वेदवादिभिः । न हिंस्यात्सर्वभूतानि नान्याहिंसाप्रवर्तिका ॥३१॥ अग्निष्टोमीयमिति या भ्राभिका साऽसतामिह । न सा प्रमाणं ज्ञातॄणां पश्वालम्भनकारिका ॥३२॥ वृक्षांश्छित्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । दग्ध्वा वह्नौ तिलाज्यादि चिरं स्वर्गोऽभिलप्यते॥३३॥
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पुराण और जैन धन इत्येवं स्वमतं प्रोच्य यतिस्त्रिपुरनायकम् । श्रावयित्वाऽस्त्रिलान् पौरानुवाच पुनरादरात् ॥३॥ दृष्टार्थप्रत्ययकरान् देहसौख्यैकसाधकान । बौद्धागमविनिर्दिष्टान् धर्मान् बेदपरांस्ततः ॥३५॥ श्रानन्दं ब्रह्मणोरूपं श्रुत्यैवं यन्निगद्यते ।। तत्तथैवेह मन्तव्यं मिथ्या नानात्वकल्पना ॥३६॥ यावस्वस्थमिदंवम यावन्नेन्द्रियविलवः ।। यावज्जरा च दूरेऽस्ति तावत्सौख्यं प्रसाधयेत् ॥३७॥ अस्वास्थ्येन्द्रिय वैकल्ये वार्धिक्येतु कुतः सुखम । शरीरमपि दातव्यमर्थिभ्योऽतः सुखेप्सुभिः ॥३८॥ याचमानमनोवृत्तिप्रीणने यस्य नोजनिः । तेनभूर्भारवत्येपा समुद्रागट्ठमैनहि ॥३६॥ सत्वरं गत्वरो देहः संचयाः सपरित्ययाः । इति विज्ञाय विज्ञाता देहसौख्यं प्रसाधयेत् ॥१०॥ श्ववायसकृमीणांच प्रातर्भाज्यमिदं वपुः । भस्मात्तं तच्छरीरं च वेदे सत्यंप्रपठ्यते ॥११॥ मुधाजातिविकल्पोयं लोकेषु परिकल्प्यते । मानुष्ये सतिसामान्ये कोऽधमाकोऽथचोत्तमः।।४२॥
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५०
पुराण और जैन धर्म
सनकुमार उवाचइत्थमाभाष्य दैत्येशं पौरांश्च स यतिर्मुने । सशिष्यो वेदधर्माश्च नाशयामास चादरात् ॥४॥ स्त्रीधर्म खंडयामास पातिव्रत्यपरं महत् । जितेन्द्रियत्वं सर्वेषां पुरुषाणां तथैव सः ॥५०॥ देवधर्मान् विशेषेण श्राद्धधर्मास्तथैव च । मखधर्मान् व्रतादींश्च तीर्थश्राद्धं विशेषतः ॥५१॥ शिवपूजां विशेषेण लिंगाराधनपूर्विकाम् | विष्णुसूर्यगणेशादिपूजनं विधिपूर्वकम् ॥५२॥ स्नानदानादिकं सर्वं पर्वकालं विशेषतः । खंडयामास स यतिर्मायी मायाविनांवरः ॥५३॥ । विवहूक्तेन विप्रेन्द्र त्रिपुरे तेन मायिना । वेदधर्माश्च ये केचित्ते सर्वे दूरतःकृताः ॥५४॥
[रुद्र सं० २ युद्ध खं०५ अध्या० ४-५] बंगाली आवृत्ति 'शिव पुराण' वंगवासी इलेक्ट्रो मशीन प्रेस मुद्रित
ज्ञान सं० अ० २१-२२ पृ० ८० । भावार्थ-सनत्कुमार कहने लगे कि हे ऋपि! तव महा तेजस्वी विष्णु ने उन दैत्यों के धर्म में विघ्न डालने के लिये अपनी माया से शिरसे मुंडित, मलीन वस्त्र पहनेहुए, काष्ठ के पात्र और पुंजिका रजोहरण हाथ में रखते हुए, पदपद पर उसे चलायमान करते हुए
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पुराण और जैन धर्म हाय में एक वस्त्र लेकर उससे मुख को ढांके हुए और "धर्मलाभ" पसे कहते हुए एक पुरुष को उत्पन्न किया ॥३॥ वह मुनि विगु जी को प्रणाम कर उनके धागे स्थित हुआ, कहने लगा ॥४॥ अरियों के नाश करने वाले अच्युत ! श्राप मुझ पाना दें, मैं क्या का ? हे देव ! मेरे क्या क्या नाम होगे ? और मेरा न्धान भी श्राप कहिये ॥५॥ विष्णु भगवान् उसके इस मुन्दर वचन को सुनकर प्रसन्न मन से इस तरह बोले ॥ ६ ॥ मैंने तुमको जिसलिंग निर्माण किया है सोनुम सुनो, हे महाप्राज तुम मेरे अग ने उत्पन्न होने के कारण निस्सन्देह तुम मेरे ही रूप हो ।।। मेरे अङ्ग ने उत्पन्न होने के कारण तुम मेरा कार्य करने के योग्य हो, तुम मेरे हो इसलिये सदा पूज्य होगे, इसमें सन्देह नहीं । तुम्हारा मुख्य नाम अरिहन होगा तया और भी मुन्दर नाम होगे, पाछे से तुम्हारे स्थान को भी कहूंगा, प्रथम तुम प्रस्तुत कार्य को मुनी ॥९॥ मायावी! तुम सोलह हजार लोको में एक मायामय शान्त्र की की रचना करो जो कि श्रुति स्मृति में विद्ध और वर्णनम की मर्यादा से रहित हो ॥१०॥वह शास्त्र अपभ्रंशभाषामे हो पोर उसमें कर्मवाद का उल्लेख हो, गेले शास्त्र को तुम प्रयत्न ने रचो. पागे उसका विस्तार होगा ||११|| मैं उसके निर्माण की तुनको मामय देता हूँ तथा अनेक प्रकार को माया भो तुम्हारे आधीन होगो ॥१॥ इस प्रकार हरि परमात्मा के इन वचनों को सुन कर प्रगान पूर्वक वह मायावी जनार्दन ने कहने लगा ।।१३।। हे देव ! जो कर मुझे करना हो, उसे शीन कहिये. नापको प्राा मेमय कार्य शीन नित होगा ॥१क्षा सनकुमारजी बोले कि यह मुन भगवान ने उनी
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पुराण और जैन धर्म
मायामय शास्त्र पढ़ाया, स्वर्ग नरक यहीं हैं अन्यत्र उनकी सत्ता नहीं ॥१५॥ फिर विष्णु ने शिवजी के चरण कमल का स्मरण करके कहा कि इस त्रिपुर में निवास करने वाले सभी दैत्य जनों को तुम अपनी माया से मोहित करदो ॥१६।। तुम उनको दीक्षा देकर यत्न सहित यह शास्त्र पढ़ाओ, हे महामते ! मेरी आज्ञा से तुमको इसमें कुछ दोष नहीं लगेगा ॥१७॥ इसमें सन्देह नहीं कि उनमें श्रौत और ' स्मात धर्मों का प्रकाश हो रहा है, हे यतिराज ! तुम इस विद्या से उन सबको विच्छिन्न करदो ॥१८॥ हे मुण्डी ! तुम उन त्रिपुरवासियों के विनाशार्थ गमन करो, उनमें तमोगुणी धर्म का प्रकाश करके त्रिपुर का नाश कर डालो ॥१९॥ हे विभों ! फिर तुम यहां से मरुस्थल में जाकर कलियुगके आने तक स्वधर्मसे निवास करना,और कलियुग के आजाने पर तुम अपने धर्म का प्रकाश करना, तथा शिष्य प्रशिष्यों द्वारा अपने धर्म का प्रचार करना ।।२१।। मेरी आज्ञा से आपके धर्म का निश्चित ही विस्तार होगा, मेरी आज्ञा में तत्पर रहने से तुम को अवश्य ही सद्गति मिलेगी ।।२२।। इस प्रकार देव देव महादेव की आज्ञा से हृदय में प्रेरित होकर हरि उसके प्रति यह आदेश देकर अन्तर्धान हो गये ॥२३॥ तब मुनि ने हरि की आज्ञा पालन करने के निमित्त अपने चार शिष्य बनाये और उनको यथायोग्य अपना मायामय शास्त्र पढ़ाया ॥२४॥ जैसे वह था वैसे ही उसके चारों शिष्य हुए, परमात्मा हरि को नमस्कार कर वहां स्थिति हुए ॥२५॥ हरि ने भी शिवजी की आज्ञा पालन करने के निमित्त उन चारों शिष्यों से बड़ी प्रसन्नता पूर्वक कहा।।।
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पुराण
और जैन धर्म
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मेरी श्राज्ञा से जैसे तुम्हारे गुरु हैं वैसे ही तुम होगे और तुम धन्य हो निम्सन्देह तुम सद्गति को प्राप्त होगे ||२७|| बाद में वे चारों मुनि भी पापण्ड धर्म में स्थिति हुए, हाय मे पात्र लिये और मुख पर वस्त्र धारण किये, मलिन वस्त्र पहने हुए स्वल्प बोलने वाले, "धर्मलाभ " ही परम तत्व है प्रसन्नता पूर्वक ऐसे कहते हुए तथा वस्त्र के टुकड़ो से बनी हुई मार्जनी (रजोहरण) की धारण करते हुए जीव हिंसा के भय से धीरे २ पांव रखकर चलने वाले, वे सब भगवान् को नमस्कार कर उनके आगे बैठ गये ॥ ३१ ॥ तत्र हरि ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें गुरु के सुपुर्द किया और प्रीतिपूर्वक उनके नाम को भी कहा ||३२|| जैसे तुम हो वैसे ही यह चारों भी मेरे हैं । तुम्हारा नाम यादि रूप हैं और पूज्य होने से तुम पूज्य भी कहलाओगे । तथा ऋपि, यति, कीर्य, उपाध्याय इत्यादितुम्हारे प्रसिद्ध नाम होंगे ||३४|| और मेरा शुभ नाम भी आपने प्रहण करना, अरिहन् इस पाप नाशक नाम का सदा ध्यान करना चाहिये ||३५|| तुमको भी लोगो के सुखदायक कार्य को करना चाहिये, लाक के अनुसार कार्य करने में उत्तम गति की प्राप्ति होगी ||३६|| सनमकुमार बोले कि, तब वह मायी, शिष्यो के सहित बड़े प्रेम से भगवान को प्रणाम करके शीघ्र ही त्रिपुर को गया ||३७|| विष्णु की प्रेरणा ने वह शीघ्र हो त्रिपुर में प्रवेश करके, मायावी होने के कारण उसने रूप से अपनी माया फैलाई ||३८|| हे मुने! शिवजी के प्रर्चन के प्रभाव मे सहसा त्रिपुर में वह माया न चल नकी, तब यति बहुत व्याकुल हुए ||४०|| तब उत्साह से रहित, चित्त में व्याकुलता और हृदय में दुख होने से उसने विष्णु का स्मरण किया ||४०| उसके म्मर
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करने से विष्णु ने शंकर का स्मरण किया और उनको मन से प्रांत
करके नारद को याद किया ॥४२॥ विष्णु के स्मरण मात्र से नारद • जी वहां उपस्थित हुए और प्रणामपूर्वक हाथ जोड़ उनके सामने
आ खड़े हुए ॥४ा विष्णु ने नारद जी से कहा कि लोकोपकार में निरत रहते हुए तुम सदा ही देव कार्य करते हो ॥४४॥ हे तात ! मैं तुमसे शिव जी की आज्ञा से कहता हूं, तुम शीघ्र ही त्रिपुर में जाओ, वहां एक ऋषि अपने शिष्यों सहित वहां के निवासियों को मोहित करने के लिये गये हैं ।।४५|| सनकुमार जो बोले कि भगवान के इन श्रेष्ठ वचनों को सुनकर मुनि-पुंगव नारद बड़ी शीघ्रता से वहां गये जहां कि वह मायावी ऋषि थे।४६||इस प्रकार मायाधीश भगवान् विष्णु की आज्ञा से उस पुर में प्रविष्ट होकर उस मायी से दीक्षित हुए ॥४७॥ इसके अनन्तर नारद जी ने, त्रिपुराधीश के समीप जाकर, क्षेम कुशल आदि पूछ कर ( आगे लिखा ) सब वृत्तान्त सुनाया ॥ ४८ ॥ नारदजी ने कहा कि आपके नगर में धर्म परायण कोई एक यति ।
आया है, वह सर्व विद्या सम्पन्न तथा वेद विद्या में निपुण है ।।४९॥ हमने बहुत से धर्म देखे परन्तु इसके समान कोई धर्म हमारी दृष्टि में नहीं आया। हमने इस सनातन धर्म को देख कर ही दीक्षा ग्रहण की है ॥५०॥ हे दैत्य सत्तम! यदि आपकी इच्छा हो तो
आप भी उस धर्म की दोक्षा ग्रहण कीजिये ? ॥५१॥ सनत्कुमार बोले कि नारद जी के इन वचनों को सुन कर वह दैत्यपति बड़ा हा विस्मित हुआ और मोहित हो जाने से वहां माया ॥५२॥ जबकि नारद जी ने दीक्षा ला है तब हम भी वहा
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जायंगे ऐसा विचार कर त्रिपुराधीश स्वयं ही वहां गया ||१३|| उन महात्मा को देख कर उनकी माया से मोहित होकर उनसे नमस्कार कर वह कहने लगा कि - हे निर्मालय ऋषि ! मुझे आप दीना दीजिये ? मैं आपका शिय हॅगा, यह बात निस्सन्देह सत्य है ॥ ५५॥ 'दैत्यराज के इस वचन को सुन कर वे सनातन ऋषि बोले ||२३|| हे दैत्यराज ! तुम यदि मेरी यात्रा को सर्वथा स्वीकार करोगे तो मैं दीक्षा दूंगा अन्यथा कोटि चल्न से भी नहीं ||१७|| यह सुन राजा तो मायामय हो गया, हाथ जोड़ कर शीघ्रता से उन यतिराज जी से बोला कि हे भगवन् ! आप जो श्राता देंगे उसका मैं कभी उल्लंघन नहीं करूंगा, यह बात सर्वथा सत्य है ।।५८-५९ ॥ सनत्कुमार जी बोले कि - त्रिपुराधीश के इन वचनों को सुन कर, मुख से वस्त्र की दूर हटा कर वे ऋषि कहने लगे ॥६०॥ है. दैत्येन्द्र ! सब धर्मों में उत्तम इम दोना को श्राप ग्रहण कीजिये, इस दीक्षा विधान से तुम कृत्य कृत्य हो जाओगे ||३१|| सनत्कुमार जी बोले कि - इस प्रकार कहकर उस मायावी ने अपने धर्म के अनुमार विधिपूर्वक उस राजा को दीक्षा दी ॥ ६॥ हे मुने ! आपने भाई के सहित दैत्यराज के दीनित हो जाने पर सभी त्रिपुर निवासी उस धर्म में दीक्षित हो गये, और उस ममय उस मायावी के शिष्यो प्रशिष्यों से वह सारा ही त्रिपुर भर गया ।।६६-६४|| व्यास जी बोले कि सनकुमार ! जिन नमव दैन्यराज को ढोता देकर उस मायावी ने मोहित कर लिया तब उसने क्या कहा और नैन्य राज ने क्या किया ? ||१|| मनकुमार जी बोले कि है पे ! नारदादि शिष्यों में परिलंबित प्रति मुनि उस देवराज
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का दीक्षा देकर बोले कि, हे दैत्यराज ! तुम हमारे ज्ञान सम्पन्न वचनों को सुनो, यह वेदान्त का सर्वस्व और परमोत्तम रहस्य है ॥२-३॥ यह संसार अनादि काल से चला आता है, कर्ता और कर्म से यह रहित है, यह आप ही प्रकट होकर आप ही लय हो. जाता है ।।४॥ ब्रह्मा से लेकर स्तम्ब पर्यन्त यह जितना देह का वन्धन है इसमें एक आत्मा ही ईश्वर है दूसरा कोई नहीं ॥५॥ तथा जो ब्रह्मा विष्णु और रुद्र नाम है ये सब देह धारियों के नाम हैं जैसे कि हमारे नाम हैं आदितो अरिहन् है ||६||
जैसे हम सरीखों के देह समय आने पर विलीन हो जाते हैं, ऐसे ही ब्रह्मा से लेकर मशक पर्यन्त सभी के शरीर समय आने पर लय हो जाते हैं । यदि इस देह का विचार किया जाय तो कहीं पर भी कुछ अधिक नहीं है आहार निद्रा, भय और मैथुन ये सर्वत्र समान हैं ।।८। सव ही देहधारी निराहार के परिमाण को प्राप्त होकर समान ही तृप्ति को प्राप्त होते हैं, इस में कुछ न्यूनाधिक नहीं है ।।९।। जैसे हम प्यासे होकर जल पीने से प्रसन्न होते हैं, वैसे ही दूसरे प्यासे भी होते हैं, इस में कुछ भी अन्तर नहीं ॥१०॥ रूप यौवन सम्पन्न चाहे सहस्रों खिये क्यों न हों परन्तु रति के समय में तो एक हो भोगी जाती है ।।११।। घोड़े चाहे सैकड़ों असंख्य हा पर अधिरोहण में एक ही काम आता है ।।१२।। पलंग पर सोने वालों को पलंग पर सोने से जो सुख मिलता है वही सुख पृथिवी पर सोने वालों को भीप्राप्त होता है ।।१३।। जैसा हम प्राणधारियों को मरण से भय है, ब्रह्मा से लेकर कीट पर्यन्त को भी वैसा ही मरण से भय है ॥१४|| यदि बुद्धि से विचार किया जाय
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तो सभी शरीर धागे समान है, ऐसा सोच कर कभी भी को किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिये ||१|| जीवों पर दया करने के समान पृथ्वी पर कोई धर्म नहीं है. इसलिये सर्व प्रयत्न से मनुष्य को जीवों पर दया करनी चाहिये ||१६|| एक जीव की रक्षा करने से मानो त्रिलोकी के जीवों की रक्षा होती है एवं एक के वध करने से त्रिलोकी के घात का दोष लगता है. धतः रक्षा करनी चाहिये मारे नहीं ||१७|| हिसा, परम धर्म है और आत्मा को पीड़ा देनी पाप है, पराधीन न होना मुक्ति और अभिलपित भोजन की प्राप्ति स्वर्ग है ||१८|| सत्यमारा से पुराने विद्वानों ने ऐसा कहा हैं, इसलिये नरक से डरने वालो को कभी हिंसा न करनी चाहिये ||१९|| चराचर संसार में हिंसा से बढ़कर पाप नहीं है. हिनक मनुष्य नरक और अहिसक स्वर्ग को जाता है ||२०|| दान तो बहुत है परन्तु उन तुच्छ फल देने वालों से क्या मतलब ! श्रभय दान के समान दूसरा दान कोई नहीं है ||२१|| ऋषियो ने अनेक शास्त्री ने विचार कर इस लोक परलोक में सुख देने वाले चार प्रकार के दान कहे हैं । (१) डरे हुए को अभयदान, (२) रोगीको प्रौषधि, (३) विद्यार्थी को विद्या और (४) भूने को अन्न दान ॥२२-२३|| ऋषि मुनियों ने जो जो दान कहे हैं वे अभय दान की सोलहवीं क्ला के बराबर भी नहीं है ||२४|| अचिन्त्य प्रभाव रखने वाले af मंत्र और औषधि का नाम और धन प्राप्ति के निमित्त प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना चाहियं ॥२५॥ बहुत ना धन इकट्टा करके उसके द्वारा द्वादशायवनों की पूजा करनी चाहिये.
अन्य पूजन किमी
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काम का नहीं ॥रा पांच कर्मेन्द्रिय, पांच ज्ञानेन्द्रियमन पार बुद्धि यही द्वादश आयतन स्थान हैं ॥२७॥ प्राणिमात्र के लिये स्वर्ग और नरक यही पर है और कहीं नहीं, सुख का ही नाम स्वर्ग और दुःख का नरक है ॥२८॥ सुख भोगते २ यदि देह छूट जाय तो इसी का नाम तत्वचिन्तकों ने परम मोक्ष कहा है ।।२९॥ जिस समय वासना सहित सब क्लेश नष्ट हो जाय, अज्ञान का नाश हो जाय, तत्व चिन्तकों ने इसी को मोक्ष माना है ॥३०॥ वेदवादी इस श्रुति को प्रमाण में देते हैं कि, किसी प्राणी की हिंसा न करनी चाहिये, "किसी की हिंसा में प्रवृत्ति न हो ॥३१॥ जो अग्निष्टोम में पशु का 'पालम्भन-वध है वह भ्रम की बात है । यह कथन असत्पुरुषों का है, ज्ञानी पुरुषों को पशु का वध स्वीकृत नहीं ॥३२॥ वृक्षों को छेदन कर, पशुओं को मार कर और रुधिर का कीचड़ कर तथा घी ओर तिलों को अग्नि में डाल कर स्वर्ग की इच्छा करना बड़ी ही विचित्र वात है ॥३४॥ इस प्रकार उस यतिराज ने उस असुर नायक तथा अन्य त्रिपुर निवासियों को अपना यह सिद्धान्त सुना कर फिर कहा कि प्रत्यक्ष अर्थ में ही विश्वास होना चाहिये, यही एक मात्र देह सुख के साधक हैं, यह धर्म वेद से परे और बौद्ध शाखों में निर्दिष्ट हुए हैं ॥३५॥ आनन्द ही ब्रह्म का रूप है, ऐसा जो श्रुति में कहा गया है वह वैसा ही मानना चाहिये, नानात्व कल्पना व्यर्थ है ॥३६|| जब तक यह शरीर स्वस्थ है, जब तक ‘इन्द्रिय निर्वल नहीं हुई, जब तक वृद्धावस्था दूर है तब तक सुख के साधन को प्राप्त करना चाहिये ॥३७॥ जिस समय इन्द्रियां
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पुरारा और जैन धर्म
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स्वस्थ हो गईं और बुढ़ापा आ गया तो फिर सुख कहां, इसलिये -सुख की इच्छा रखने वालों को तो श्रर्थी के निमित्त अपना शरीर -भी दे देना चाहिए ||३८|| याचना करते हुए को देख कर जिसका मन उसकी पीड़ा से दुःखी नहीं होता उसी के बोझ से यह पृथ्वी • दवती है। वृन, पर्वत और समुद्रों का उसे बोझ नहीं है ||३९|| यह देह शीघ्र हो जाने वाला है, संचित किये हुए पदार्थ तय होने वाले हैं ऐसा समझ कर ज्ञानी पुरुष अपने शारीरिक सुख की साधना करे ||१२|| यह शरार कुते, कौवे और कीड़ों का प्रातः -समय का भोजन होगा। वेद में ही पढ़ा जाता है कि, शरीर अन्त में भस्म होने वाला है ||११|| लोगों में यह जाति कल्पना व्यर्थ है सामान्य रूप से सब मनुष्यों में कौन अधम और कौन उत्तम है || ४२॥ मनकुमार जी बोले हे मुने ! उस यति ने इस प्रकार राजा और त्रिपुर निवासियां का उपदेश दे कर वेद विहित धर्मों का नाश किया और पतिव्रत धर्म, पुरुषों का जितेन्द्रियत्व धर्म तथा विशेष कर के देव-धर्म, श्राद्ध-धर्म, यश, तीर्थ और व्रत यादि का खंडन किया ||१० - ११ || शिव पूजन और विष्णु, सूर्य तथा गणेश आदि के पूजन, स्नान दान और पर्वकाल का भी उस नायात्री ने मंडन • किया ||२३|| हे विनेन्द्र ! अधिक कहने से क्या त्रिपुर में उस यतिराज के कहने से वेद विहित समस्त धर्मों का परित्याग हो गया । इत्यादि आगे बहुत कुछ वर्णन है ।
श्रालोचक-शिवपुराण के लेस को पाठकों ने पढ़ लिया इस साल में जिन बातों का उल्लेख किया गया है वे अन्य
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पुराण और जैन धर्म
पुराणों-पुराणस्थ लेखो की अपेक्षा कुछ नई और विस्मय-जनक होने के साथ २ ऐतिहासिक दृष्टि से भी कुछ काम की हैं।
शिव पुराण के इस विस्तृत लेख का संक्षेप से सार अंश; इतना है कि दैत्यों से दुःखी हुए, देवता लोगों की प्रार्थना और शिवजी की प्रेरणा से विष्णु भगवान् ने मायास्वरूप एक पुरुष विशेष को उत्पन्न करके उसे त्रिपुर वासियों को वेद मार्ग से भ्रष्ट करने का आदेश दिया । विष्णु भगवान की इस आज्ञा को पाकर उस पुरुप ने अपने जैसे चार शिष्य और पैदा किये-बनाये । परन्तु शिवार्चन के प्रभाव से त्रिपुर में उस पुरुष को अपने कार्य में सफलता प्राप्त न हुई ! तव विष्णु ने उसकी सहायता के लिये नारद को भेजा । नारद की सहायता से उसने फिर अपना कार्य शुरू किया
और त्रिपुर नरेश तथा उसकी निखिल प्रजा को बहुत शीघ्र ही वैदिक धर्म से सर्वथा विमुख-विचलित कर दिया ! बस इसके सिवाय अन्य जो कुछ लिखा है वह इसी का विस्तार मात्र है। .
उक्त पुरुष के मत का विचार ।
सव से पहले हमें इस बात का निर्णय करना बहुत जरूरी है कि विष्णु भगवान् ने जिस माया रूप पुरुष विशेष को उत्पन्न किया वह कौन था। इसके निर्णय करने के लिये शिव पुराण के उक्त लेख का मनन करना बहुत आवश्यक है । उसमें उक्त पुरुप के वेप और उपदेश, दोनों का ही उल्लेख किया गया है। परन्तु त्रिपुराधीश के समक्ष उस मुण्डी पुरुप के मुख से जो उपदेश दिखाया है उससे तो उसके किसी मत विशेष का पता नहीं चलता किन्तु उसके वेप का
imate
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पुराण और जैन धर्म जो नमूना दिया है उससे तो यही विदित है कि निस्संदेह वह श्वेताम्बर जैन मत का साधु होना चाहिये परन्तु उस मायामय के मत का कुछ भी निर्णय नहीं हो सकता, तात्पर्य कि उसके वेष
और उपदेश में बहुत अन्तर है। अब हन इसी बात की कुछ 'विस्तार मे आलोचना करते हैं। शिव पुराण में उक्त मुनि के मुख से जनता के समक्ष जो उपदेश दिलाया गया है वह सर्वथा संदिग्ध है। इसलिये हमें इस बात के समझने में बड़ी दिकत पड़ती है कि उसने किम मत का उपदेश किया ? शिव पुराण के लेख से वह चापाक मत का प्रगरक भी सिद्ध होता है, कहीं कहीं पर उसने बौद्ध मत का भी उपदेश किया है और साथ २ वह जैन मत का उपदेशक भी सावित होता है।
उदाहरणार्थ-प्रथम श्लोक से लेकर पैंतीस लोक तक जो वर्णन है उसके देखने से तो मायामय के जैन होने में कुछ मन्नेह नहीं क्योंकि उसमें उन पुरुष का जिन तरह का वेप बनलाया है वह प्रायः जैन ग्रन्यों ने मिलता और वर्तमान नमय के जैन साधुओं से कुर मिलता जुन्नता भी है । एवं प्रागे पञ्चम अध्याय के २४ श्लोकों में अहिंसा धर्म का मर्म और महत्त्व तथा संसार का अनादित्व वर्णन करते हुर भी उसे जैन ही मावित किया है परन्तु इसके विरुद्ध
इहैव स्वर्गनरकं प्राणिनां नान्यतः क्वचित् । सुखं स्वर्गः समाख्यातो दुःखं नरकमेबहि ॥२८॥
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पुराण और जैन धर्म
सुखेषु भुज्यमानेषु यत्स्याद्देहविसर्जनम् । अयमेव परोमोक्षो विज्ञयेस्तत्वचिन्तकैः॥२६॥ इन दो श्लोकों से उसका चार्वाक-नास्तिक होना सिद्ध होता। है और जब हमः
अर्थानुगmबहुशो द्वादशा यतनानिवै । परितः परिपूज्यानि किमन्यरिह पूजितैः॥
वासनासहिते क्लेशसमुच्छेदेसति 'गुवम् । अज्ञानोपरमो मोक्षो विज्ञेयातत्वचिन्तकैः ॥२८॥
बौद्धागमविनिर्दिष्टान् धर्मान् वेदपरांस्ततः॥३४॥ ___इस प्रकार का उल्लेख देखते हैं तब हमे उसको बौद्ध धर्म का समझना पड़ता है । तात्पर्य कि शिव पुराण के इस लेख से यह निश्चित नहीं होता कि उस ऋपिने किस मत का उपदेश किया। क्योंकि कहीं पर तो वह चार्वाक के मत का उपदेश देता है और कहीं बुद्ध के मत का तथा कहीं पर वह अहिंसा धर्म के उच्च सिद्धान्त का प्रतिपादन करता हुआ प्राणि-मात्र को उसके पालन करने का आदेश देता है जिससे कि वह जैन सावित होता है इस
* प्राणि मात्र के तिो स्वर्ग और नरक यहो पर है अन्यत्र नहीं। सुख का नाम स्वर्ग और दुःत्र का नाम नरक है। सुख भोगते हुए देह का छूट जाना ही नोद है।
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पुराण और जैन धर्म
દર
लिये उसके मत विशेष का निश्चय होना कठिन हैं । अतएव शिव
पुराण के इस परस्पर विरोधी लेख की समस्या लगानी भी मुश्किल है।. ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते समय तो हम इसी नतीजे पर पहुंचते हैं कि शिव पुराणका यह लेख जिसने लिखा है उसकी चार्वाक बौद्ध और जैन मन के पौर्वापर्य और परस्पर भेद की तमीज नहीं थी । अन्यथा वह इतनी भूल न करता ! चार्वाक, जैन और बौद्ध को एक ही समझना निम्संदेह भूल है ! हां वेद मत के साथ विरोध रखने से ही विचार माला में पिरो देना ग्रन्थकार को अभी हो तो हम विवश है ।
शिव पुराण के सिवा अन्यान्य पुराणों की भी बहुधा यही दशा है । उसमें भी जैन और बौद्ध के परस्पर भेद की कुछ तमीज नहीं की गई। कहीं पर तो जैन और बौद्ध को भिन्न २ अवतार माना है कहीं पर जैन से बौद्ध और बौद्ध से जैन मत की उत्पत्ति का उल्ले किया है। एवं किसी पुराण मे तो जैन और बौद्ध का उत्पादक एक ही पुरुष को बतलाया गया है कहने की आवश्यकता नहीं कि इस दशा में हम किस परिणाम पर पहुँचते हैं ।
[ असभ्य श्राक्षेप ]
शिव पुराल की इस लेख माला में उक्त मुनि- जिमं विष्णु भगवान् ने त्रिपुरासुर के विमोहनार्थ उत्पन्न किया के उपदेश पर एक बड़ी ही विचित्र बात कही है। यात क्या है इस व्याज ने जैन और बौद्ध मत पर बड़ा ही अनभ्य आक्षेप किया है । पाठको को इस बात के यतलाने की अब तनिक भी आवश्यकता प्रतीत
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पुराण और जैन धर्म
नहीं होती कि मायामय नाम के ऋषि ने त्रिपुराधीश के समक्ष 'असुर सभा में जो उपदेश दिया है वह कितना सार युक्त और हृदय ग्राही है। उसमें प्राणि मात्र पर समान भाव रखने रूप अमूल्य उपदेश के सिवा "भीतेभ्यश्वमयं देयं, व्यावितेभ्यस्तयोपवं । देया विद्यार्थिनां विद्या, देयमनं क्षुधातुरे" इत्यादि कथन तो विशेष रूप से मनन और आचरण करने योग्य है । परन्तु शिवपुराण की इस लेख माला में उक्त उपदेश पर बड़ा ही अनुचित आक्षेप किया है । "लोवर्म खंडयामास पातित्रयरं महत, जितेन्द्रिय त्वं सर्वेषां पुरुषाणां तथैव सः" | "अर्थात् उस मुनि ने अपने उपदेश से स्त्रि यो के परमोत्तम पतिव्रता धर्म ओर मनुज्यां के जितेन्द्रियत्व का खंडन किया इत्यादि" मगर मायामय ने जो कुछ उपदेश दिया है उसमें कहीं पर भी ऐसा उल्लेख नहीं कि जिसमें कि स्त्री और पुरुषों को 'व्यभिचार में प्रवृत्त होने की आज्ञा हो । हमें जो कुछ भी इसे
सम्बन्ध (मायामय की उत्पत्ति और उसका उपदेश आदि) में मालूम हुआ है वह सब शिव पुराण की इस लेख माला के ही बदौलत मालूम हुआ है । उक्त मुनि के उपदेश में हमें तो व्यभिचार प्रवृत्ति की गन्ध तक भी नहीं आती और नही अन्य कोई वुद्धिमान् इसे बात को स्वीकार करने के लिये त्यार हो सकता है फिर उक्त ऋपि के उपदेश को पतिव्रता धर्म और ब्रह्मचर्य का विघातक किस 'प्रकार से बताया गया यह हमारी समझ में नहीं आता। हमारे ख्याल में तो यह बड़ा भारी असभ्य आक्षेप है जो कि एक प्रतिष्ठित समाज पर किसी व्याज से लगाया गया है और जो सर्वथा निर्मूल "और निरर्थक है। हां यदि ऐसा ही करना अभीष्ट था तो उक्त मुनि
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पुराण और जैन धर्म . के मुख से प्रथम व्यभिचार प्रवृत्ति का उपदेश दिला देना था जिन मे कि उम पर-मुनि पर लगाया गया व्यभिचार-प्रबर्नकता का लांछन सर्वथा निर्मूल सावित न होता ।
इसके अतिरिक्त "हे मुने ! तुम कलियुग के श्रान नक मारवाड़ में जाकर ठहरे रहना, और गढ में अपने धर्म का प्रचार करना" इस कथन पर बहुत कुत्र विचार करने की अावस्यकना है परन्तु वह सब कुत्र पाठको पर ही छोड़ने हुए हम इतना ही कहते हैं कि-"तुरंग,गप्युपपादयदभ्यां नमःपरंम्यो नवपंडितभ्यः'
[मत्स्य पुगण] जैन-धर्म त्रिययिक मल्य पुराण का लेब भी विल नाग है। उसमें जैन धर्म को उत्पत्ति का कोई नया प्रकार नहीं बतलाया । किन्तु "शनि के पुत्रों द्वारा गज्य से न्युन हुए इन्द्र की अभ्यर्थना को सुन, देव गुरु बृहस्पनि ने रजि पुत्री को जिन-धर्म के उपदेश मोहित कर जब सोनम वेट मतको गिग दिया तब इन ने उनको स्ववत्र ने आहत कर अपना राज्य निहलन फिर ने प्राप्त कर कर लिया" का अपूर्व वर्णन ही उममें किया है। बदनापूर्ण का और उसका पाठ इस प्रकार है
लक्ष्मी म्वयंवरं नाम भरतेन प्रवर्तितम् । मनकामुबशी रम्भा नृत्यतेनि तदादिशन ॥२८॥
ननर्न सलयं नत्र लक्ष्मी रूपेणचोर्वशी । - सा पुरवसं दृष्ट्वा नृत्यन्ती कामपीड़िता २॥
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पुराण और जैन धर्म विस्मृताभिनयं सर्वं यत्पुरा भरतोदितम् । शशाप भरताक्रोधात् वियोगादस्य भूतले ॥३०॥ पञ्चपञ्चाशदव्दानि, लता सूक्ष्मा भविष्यास । पुरूरवाः पिशाचत्वं तत्रैवानुभविष्यति ॥३॥ ततस्तमुवंशी गत्वा, भर्तारमकशोच्चरम् । शापान्ते भरतस्याथ उर्वशीबुधसूनुतः ॥३२॥ अजीजनत्सुतानष्टौ नामतस्तान्निबोधत । आयुर्टदायुरश्वायुर्धनायुधृतिमान् वसुः ॥३३॥ शुचिविद्यः शतायुश्च सर्वे दिव्यबलौजसः । आयुषो नहुषः पुत्रो वृद्धशर्मा तथैव च ||३४॥ रजिर्दम्भो विपाप्माच वीराःपञ्च महारथाः। . राजः पुत्रशतं यज्ञे राजेयमिति विश्रुतम् ॥३५॥. रजिराराधयामास नारायणमकल्मषम् ।। तपसा तोषितो विष्णुर्वरान् प्रादान्महीपतेः ॥३६॥ देवासुरमनुष्याणामभूत्स विजयी तदा । अथ देवासुरं युद्धमभूद् वर्षशतत्रयम् ॥३७॥ प्रल्हादशकयोभीमं न कश्चिद्विजयी तयोः। ततो देवासुरैः पृष्टः प्राह देवश्चतुर्मुखः ॥३॥
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पुराण और जैन धर्म अनयोविजयी कः स्याद्राजिय।तिसोऽब्रवीत् । जयाय प्रार्थितो राजा सहायस्त्वं भवस्त्र नः ॥३६॥ दैत्यैः प्राह यदि स्वामी बोभवामि ततस्त्वलम् । नासुरैःप्रतिपन्नं तत् प्रतिपन्नं हि सुरैस्तथा ॥४०॥ स्वामी भवत्वमस्माकं संग्रामे नाशय द्विपः।। ततो विनाशिताः सर्वे येऽवध्या वज्रपाणिना ॥४॥ पुत्रत्वमगमत्तुष्टस्तस्येन्द्रः कर्मणा विभुः । दत्वेन्द्राय तदा राज्यं जगाम तपसे राजिः ॥४२॥ रजिपुत्रैस्तदाच्छिन्नबलादिन्द्रस्य वैभवम् । यज्ञभागं च गज्यं च तपोबलगुणान्वितः ॥४॥ राज्याद् भ्रष्टस्तदाशको रजिपुनर्निपीडितः। प्राह वाचस्पति दीनः पीडितोऽस्मि रजे मुतैः॥४॥ न यज्ञभागो राज्यं मे निर्जितं च बृहस्पते । राज्यलाभाय मे यत्नं विधत्स्व धिपणाधिप ॥४॥ ततो वृहस्पतिः शक्रमकरोडलदर्पितम् । ब्रहशान्तिविधानेन पौष्टिकेन च कर्मणा ||१६|| गत्वाय मोहयामास राजिपुत्रान् वृहस्पतिः। जिनधर्म समास्थाय वेदवाहां सवेदवित ॥४॥
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पुराण और जैन धर्म वेदत्रयीपरिभ्रष्टांश्चकार धिषणाधिपः ।
वेदवाह्यान् परिज्ञाय हेतुवादसमन्वितान् ॥४८॥ 'जघान शक्रो वज्रेण सर्वान् धर्मबहिस्कृतान् ।
[अध्याय २४] इन श्लोकों का भावार्थ यह है कि किसी समय भरत महाराज ने लक्ष्मी स्वयंवर रचा। उसने मेनका, उर्वशी और रम्भा को नृय करने के लिये आज्ञा दी। वहाँ लयपूर्वक नृत्य करती हुई उर्वशी पुलरव को देखकर कामदेव के वशीभूत हो जाने से भरतोदित अभिनय [भरत के कहे हुए नृत्य प्रकार] को सर्वथा भूल, मनमाना कृत्य करने लगी। उसके इस कृत्य को देख भरत को बड़ा क्रोध चढ़ा । इसलिये उसने उर्वशी को शाप दिया कि, तू इससे (पुरुरव से)वियुक्त हुईमृत्यु लोक में साढ़े पांच सौ वपे तक लता बनी रहेगी,और यह-पुरुरव-भीवहीं पर पिशाच बन कर रहेगा। भात का शाय पूरा होने के अनन्तर उर्वशी ने बुध पुत्र के नयोग से आयुः, चढ़ायुः, अश्वायुः, धनायुः, धृतिमान, वमु, शुचिविध और शतायु ये आठ पुत्र उत्पन्न किये । उनमें से आयु के पांच पुत्र हुए 'जो कि बड़े शूरवीर थे। उनके क्रमशः नहुप, वृद्धशर्मा, रजि, दम्भ
और विपाप्मा ये नाम हैं। इनमें से तीसरे रजि ने सौ पुत्र उत्पन्न किये । रजि ने विष्णु भगवान का बहुत आराधन किया उसका तपश्चर्या से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने उसको ऐसा वर दिया जिसके प्रभाव से वह देव, असुर और मनुष्यों में सबको जीतने वाला हुआ। कुछ समय बाद देवों और दैत्यों का बड़ा भारा युद्ध हुआ।
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पुरान और जैन धर्म
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यह युद्ध तीन सौ वर्ष तक होता रहा ! इनमें देव और चोंके नायक इन्द्र और प्रह्लाद का बड़ा भारी युद्ध हुआ । जब इन दोनो मे से कोइ हाग नहीं तव देव और दानवों ने घाजी के पान जाकर पूंछा कि इन दोनों में से किसकी विजय होगी। इसके उत्तर में ब्रह्माजी ने कहा कि जिन पक्ष की ओर होगा उनकी जयं होगी । यह सुन दोनों ही दल के लोग राज के पान गये और अपनी सहायता के लिये प्रार्थना की।
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"जि" ने कहा कि में उस पत्र की धार हूँगा जी नायक बनायेगा | बान पर यर तो नहमत नहीं परन्तु देवी ने इसकी सीकारकर लिया । रजि के देव सेना के नाय होने के बाद फिर युद्ध इम हुआ। बस फिर क्यामरने उन असुरो का भी विनाश कर दिया जिनरा वध करने मश्रण था। रजि के कर्म से प्रसन्न
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कृति पुन बन गया । रजि ने भी इन्द्र को राज्य कर स्वयं जगल का राम्ना लिया। इधर गंजे के पुत्र को यह बात हुई।
उनि जवरदस्ती
से उनका राज्यहीन लिया।
मे हुआ उन्द्र देवगुरु और कहने लगा कि
पति के पार विविया रजि के पुत्रों ने बहुत ही किया है
मे। सम्पूर्ण राज्य ले लिया और नल का भाग भी मुझे नही मिलता। इसलिये मुके राज्य मिले इसके वाले या कोई न कर शान्ति र पुष्टि फर्म के विधान द्वा
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सुन प्रहस्पति ने
वान और नामी बनाया तथा स्वयं रजि
इन्द्र को फिर से पुत्रों के पास जारी वैद वा जिन धर्म का उपदेश कर दो
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पुराण और जैन धर्म
मार्ग से भ्रष्ट कर दिया । इन्द्र ने भी उनको वेद विहित मार्ग मे भ्रष्ट और श्रद्धा से रहित समझ कर उन सब का विनाश करके वाधिकार प्राप्त कर लिया ।
[आनन्दाश्रम सरिफमत्स्य पु० ० २४ श्लोक २८-४ : ]
Co
आलोचक
इस सारी कथा में जैन धर्म से सम्बन्ध रखने वाला "जिन धर्म समास्थाय वेदवाह्यं स धर्मवित्" बस यह आधा श्लोक है । अगर "जिन" के स्थान में कोई अन्य शब्द रख दिया जाय तो इतना भी नहीं ! एवं कृत्रिम जैन वन कर वृहस्पति ने रजि के पुत्रों को क्या उपदेश दिया, और उसकी जैन धर्म विषयिक किन बातों का उनके हृदय पर प्रभाव पड़ा, जिनके कारण वे वैदिक धर्म से विमुख होकर इन्द्र के वज्र से आहत हुए। इस बात का उक्त कथा में कुछ भी जिकर नहीं यह बड़ा आश्चर्य है । फिर यह भी समझ में नहीं आता कि बृहस्पति के इस माया जाल रूप अमोघान्त्र का लक्ष जैन धर्म ही क्यो बनाया गया । सच पुंद्रिये तो हमें तो यह सब द्वेप और दुराग्रह की ही लीला प्रतीत होती है ।
अस्तु यदि ऊपर दी गई कथा सत्य है [वस्तुतः होनी ही चाहिये] तो इससे जैन धर्म की प्राचीनता पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है । मत्स्य पुराण के "जिनधर्म 'समास्थाय वेदवाह्यं स धर्मवित्" इस आलोक से ज्ञात होता है कि उस समय [मत्स्यपुराण के निर्माकाल में] जैन धर्म बहुत कुछ प्रचार में आ चुका था । अतः मम्य पुराण के रचना काल से जैन धर्म की उत्पत्ति का समय अधिक प्राचीन है, यह बात उक्त कथा से स्पष्ट प्रतीत होती है यद्यि
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पुराण और जैन धर्म मत्स्यपुराण का वना, इसका निर्णय अभी तक नहीं हुआ [और न होना ही सम्भव है] जथापि अन्यपुराणों को अपेक्षा वह कुत्र अधिक प्राचीन है ऐसा कई एक विद्वान मानते हैं ।
[परस्पर विरोध के परिहार का सुगम उपाय ]
हमारे पाठकों में से बहुत से सजनों को मल्यपुराण की इन आख्यायिका का भागवतादि पुराण अन्धों के लेखों के साथ कुछ विरोध भी प्रतीत होगा। परन्तु इसने वे घबड़ायें नहीं। विरोध परिहारार्थ हम उनको एक बड़ा ही सुगम उपाय बतलाते हैं।
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-युगगा की प्राचीनतः । इस देश में ताम्र-पों पर स्कार। हुए जो दान-पत्र मिलते हैं. उनमें भूमि-नान प्रादि में सम्बन्ध गगने गरे कितने ही लोक प्राय एक ही ले उकी रहने हैं । यथा
(१) बहुभिवंमुधा भुक्ता राजभि. मगगटिभिः । (०) पष्टिवर्षमहमागि बगेंमोदति भूमिद । (३) बदना पग्दना वा योहरत यमुन्धगम् । (१) अग्नंगपन्यं प्रथम सुवर्गम् ।
लोक पत्र, भविष्य और प्रखपुगए हैं। जिन दान-गयों पर निमे हुए हैं उनमें में कई एर ४७५ मा मत्री के शोग हुए है। इसमें
सिमान्त निकलता है किम को पांच महीमाडी पहले में न पुगों का मगर भारत में था । निन पुगगों के र पुगतल्या पटित पान पोडेफ पुगग समझो। म मानिनस पुगणादि पोरे लोग मर में पुराना गाकरे न मालम मोर पित पुराने होंगे। [माम्ना मामा
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पुराण और जैन धर्म
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इन - पुराण - प्रन्थो में वर्णन की गई जैन सम्बन्धि कथाओं के परस्पर विरोध में यदि उन्हें किसी प्रकार की आपत्ति की सम्भावना हो तो उनको मुनासिब है कि वे झट से "कल्पभेदेन भेदः" वाली व्यवस्था देवी का स्मरण करलें ? वस फिर क्या, स्मरण करते ही विरोध का भूत भाग निकलेगा ! [ स्कन्द पुराण ]
स्कन्द पुराण में भी जैन धर्म के विषय का कुछ उल्लेख है । परन्तु वह अन्य सव पुराणो की अपेक्षा सर्वथा नवीन और अपने ढङ्ग का एक है । पाठक उसे भी देखे । स्कन्द पुराण - तृतीय ब्रह्म खण्ड -. धर्मारण्य माहात्म्य के ३६-३७-३८ अध्याय में वाद विवाद रूप से एक बड़ी विस्तृत कथा लिखी है, उसका संक्षेप से भावार्थ मात्र हम पाठको की सेवा में निवेदन करते हैं । तथाहि[वंगला आवृत्ति तृ० ब्र० खं० धर्माशय अ० ३६-३७-३८पृ० १८८५]
'कलियुग' के आदि में कान्यकुब्ज देश का अधिपति आम नाम का एक राजा हुआ, वह प्रजा पालन में तत्पर नीतिमान् और बड़ा धर्मात्मा था | परन्तु कलियुग के प्रभाव से उसकी प्रजा की बुद्धि पाप में लग गई अतः वौद्ध धर्मानुयायी सन्यासियों के उपदेश में उसने-प्रजा ने-निजी वैष्णव धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया ।
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(१) इदानी च कलौ प्राप्ते श्रामनाम्ना वभूवह । कान्यकुब्जाधिप. श्रीमान् धर्मज्ञो नीतित्पर ॥१२॥ प्रजानां कलिना तत्र पापे बुद्धिरजायता ॥ ३५॥ - वैष्णवं धर्ममुत्सृज्य बौद्धधमं मुपागताः ।
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पुराण और जैन धर्म
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आम' राजा की "मानादेवी" नाम की एक पटराणी थी. उसके गर्भ से "रवगडा" नाम की बड़ी सुन्दर एक कन्या उत्पन्न हुई।
किसी समय दैवयोग से इन्द्रसूरि नाम के - जैनमाधु-हा गये । उन्होंने देखा कि राजकुमारी सोलह वर्ष की हो चुकी है और (2) जर्ति प्रतियोजिता ॥३६॥
तत्यानाम्येतिविश्रुता । गर्भासाता ॥३३॥ जाताना
सम्पूर्ण
दहिता समये या चन्द्रनिभानना ॥ ३८ ॥ नाममाभूि
एकदा दैवयोगेन देन ॥ ३६ ॥
जन्मना।
॥ ४० ॥
यानी रंग मिनि इन्जीवि । जावरा च कथयामास भारत ॥ ४६ ॥ रचनामा यूनिक विमोहिता ।
नाम नागवणा ॥ ४५ ॥
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पायी ॥ १३ ॥
महादर्शनामिति । arraft देवनानि ॥ ४४ ॥ धर्मान् सभागय राजधानी बनाना । देश स्थापयामास ॥ ४५ ॥ निधा भूता निमाश्रिता 1 बारामैः पूज्यन्ते नांगियोतिम् ॥ ४६ ॥
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पुराण और जैन मंध अभी तक वह अविवाहिता है। किसी दासी के द्वारा इन्द्रसूरि राजकुमारी से मिले औरशावरी मंत्र के प्रभाव से उन्होंने राजकुमारी को अपने वश में करके उसे जैन धर्म में अनुरक्त कर दिया । पश्चात् आम राजा ने उसे ब्रह्मावत के अधिपति कुम्भीपाल राजा के साथ उसका विवाह कर दिया और मोहेरक नाम का स्थान उसके दहेज में दे दिया। कुम्भीपाल ने अपनी राजधानी मोहेरक मे बनाई और वहां पर ही जैन धर्म के पूज्य देवो की स्थापना की । अन्य सब लोग भी जैन धर्म के अनुयायी होने लग गये। अब न तो कोई ब्राह्मणों का ही सत्कार करता है और न शान्स्यादि कमों का ही अनुष्ठान होता है तथा न कोई दान ही देता है ।
न ददाति कदा दानमेवं कालः प्रवर्तते ।। लव्यशासनका विमा लु नवाग्या अहर्निशम् ॥ ४ ॥ समाकुलितचित्तास्ते नृपनानं समाययुः । कान्यकुब्जस्थितंशूरं पाखएई. परिवेटितम् ॥ ४ ॥ चारैश्च कथितास्ते च नृपस्याग्रे समागताः । प्रातराकारिता विप्रा आगता नृपससदि ॥ ५० ॥ प्रत्युत्थानाभिवादादी न चक्रे सादरंनृपः । तिटतो ब्राह्मणान् सर्वान् पर्यपृच्छदसो ततः ॥ ५१ ॥
किमर्थमागता विषा किंधित कार्य ब्रुवन्तु तः ॥ ५२ ॥ विप्रा ऊचुःयारण्यादिहायाता स्वत्समीपं नराधिप ।
गजन् तब सुतायास्तु भर्ता कुमारपालक ॥ ५३ ॥ तेन पलुप्तं विप्राणां शासनमहदद्भुतम् ।
वर्तता जैनधर्मेण प्रेरितेनेन्द्र सृरिणा ॥ ५५ ॥ राजोवाच:-केन वै स्थापिताः यूयंमा स्मिन्मोहेरके पुरं।
एतदि बाड़वाः सर्व चूने वृत्तं यथातथम् ॥ ५५ ॥
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पुराण और जैन धर्म
'परन्तु इस कार्य में ब्राह्मणों को बहुत कट हुआ। जिन्न चिनहर व मब मिल कर श्राम गना के पाम गये । मगर राजा ने अभ्युन्थानादि में उनका उचित मजार नहीं किया । राजा के पूछने पर ब्राह्मणों ने कहा कि हम धमारण्य मे चलकर यहां भागे हैं। आपके जामाता कुमारपाल ने बामणों का शानन लुन कर दिया। बह इन्द्रचूरि की प्रेरणा ने श्रव जैन धर्म का पालन करने लगा गया है। यह मुन गजा ने कहा कि प्रापको मोहरक में प्रथम निसने स्थान दिया ? म पर ब्रामणों ने कहा कि हमको या काजशा और धर्मराज ने प्रथम स्थान दिया । अनन्तर राम ने कहा पुगे की रचना की | राम के शासन को अन्यान्य राजामा ने भा
वारणा ऊचु:-काजग म्यारिता. पुत्र धर्मगजेन धीमना ।
रना चारशुभम्भाने रामेण च नन पुगे ॥ ५६ ॥ गायन गमचन्द्रम्य वान्ग जभिः । पानितं धर्मतीपत्र गामन नृपसनम ! ॥ ५ ॥
दानी नय गमाना विमान पालयने नहि । नागरिमग तु राना मिानपानबीन ॥४ पान्नु जर हि भो मिा ! करायन्तुममाश्या । मो शुमार मार दी। मालपम् ॥६॥ प्रवाशाय नती गिरा पापमुगगता । नग्ननोनिमुदिना पाच नरनिदिनं ॥ ६ ॥
मुरम्य व ग गगनमानीत । गर मार लिा ! पापियामा नहि ॥६." यानि भादगान को
। मम्माटिगिराना मुनम मतिरहिन । ६२ ॥
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• पुराण और जैन धर्म
धर्म पूर्वक पालन किया । परन्तु तुम्हारा जामाता - कुमारपाल - अब ब्राह्मणों का पालन नहीं करता ? यह सुन आम ने ब्राह्मणो से कहा कि आप जाकर मेरी तर्फ से महाराजा कुमारपाल को कहिये कि ब्राह्मणों को उनका पूर्व अधिकार दे दो । ब्राह्मणों ने आकर महाराजा ग्राम की आज्ञा को कुमारपाल से निवेदन किया । उन ब्राह्मणो के द्वारा अपने श्वसुर के वचन को सुनकर राजा कुमारपाल बोले कि मैं राम के शासन का पालन नहीं करूंगा, यज्ञादि में हिंसा, करने वाले ब्राह्मणो का त्याग करना ही उचित है, इसलिये हिंसकों में मेरी श्रद्धा नहीं ? यह सुन ब्राह्मण समुदाय ने कहा कि राजन् ! पाखंड धर्म में प्रवृत्त होकर ब्राह्मणों के शासन का क्यों लोप कर रहे हो ? आप अपनी बुद्धि को पापमें मत लगाइये ? ब्राह्मण समुदायका यह कथन सुन कुमारपाल ने कहा कि, अहिंसा ही परम धर्म है, हिसा ही परम मत है तथा अहिसा ही परम ज्ञान और उत्तम
ब्राह्मणा ऊचुः कथ पाखंडधर्मेण लुप्तशासनको भवान् ।
पाल्यस्य नृपश्रेष्ठ मास्म पापे मन क्रथाः ॥ ६३ ॥ राजोवाच- -हिसा परमोधर्मः हिसा च परं तपः । श्रहिंसा परमं ज्ञानमहिसा परमं जलम् ॥ ६४ ॥ तृणेषु चैव वृक्षेषु पतंगेषु नरेषु च ।
कीटेषु मत्कुणाद्य श्रजाश्वेषु गजेषु च ॥ ६५ ॥ वृतासु चैव संपपु महिप्यादिषु वै तथा ।
संतः सःशा विप्रा सूक्ष्मेषु महत्सु च ॥ ६६ ॥ कथं यूय प्रवर्तध्ये विप्रा हिंसा परायणाः ।
तच्छ्रुत्वा वज्रतुल्यं हि वचनं च द्विजोत्तमाः ॥ ६७ ॥ प्रत्यूचुर्वाड़वाः सर्वे क्रोधरक्तेक्षणादृशा ॥ ६८ ॥
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पुराण और जैन धर्म फल है। तृण,वृक्ष,कीट, पतंग, पशु, पक्षी, और मनुष्यादि सब प्रकार + के छोटे बड़े प्राणियों में एक जैसा ही जीवात्मा विराजमान है । तिन
पर भी न जाने श्राप लोग क्यों हिंसा में प्रवृत हो रहे हैं। कुमार. पाल के इम बत्र तुल्य कथन को सुनकर लाल नेत्र किये हुए ब्राह्मण वर्ग बोला कि-राजन यापन अहिना को जो परम-धर्म बतलाया है मो यद्यपि ठीक है नथापि आर धर्म के मर्म को एकाग्र चिन होकर मुनी ? वेद में जिनका विधान किया गया है वद हिना नहीं प्रत्युन अहिंसा ही है शत्र में वर करने पर जोर को दु.य हाता है, यान यही (शस्त्र वृय करना) अधर्म है मगर गव के बिना वेद मंत्रों के द्वारा जो पशु वध किया जाता है वह दुस
प्रद नही बल्कि वध्य जीव का सुस के देने वाला होता है। पर उप. • कार पुएप घोर पर-पीड़न पाप लिये है । अतः चंद विहित हिमा
का 'प्राचरण करता हुआ मनु य पानी में लिव नहीं होता! इन्यादि बहुत सुन बाद विवाद हान के अनन्तर निगश होकर बटुन में आमणों ने प्ररने कार्य की सिद्धि के लिय रामेश्वर को प्रधान किया। यहा उनको ब्राह्मण रूप में हनुमान जा के दर्शन हुर । ब्रामण वर्ग की सतत प्रार्थना से प्रसन्न होकर हनुमान जा ने उन को अपने अन्य रूप में दर्शन दिया और अपना याई तथा दाई कना (कन्छ ) के बालों (रोम) की दो पुड़िय देकर कहा कि ला यदि वा राजा प्राप को प्रातानुसार काम न करे तो इन बाई पुलिया को उसके द्वार पर फेंक देना इनके फैको ही उमका सभी कुटशिमात-जलकर भस्म होने लगेगा। और यदि उनके शान्न तथा पुनाजीविन फरने की आवश्यकता पड़े नो ममरी पुड़िया
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पुराण और जैन धर्म को वहां भाड़ देना यह कह कर हनुमान जी ने उनको वहां तीन' दिन रखकर अपने स्थान पर पहुंचा दिया इस समय ब्राह्मणों की । प्रसन्नता का कुछ वर्णन नहीं किया जाता ! वे प्रातःकाल सुसज्जित होकर राजा के पास पहुंचे और कहने लगे कि आपको राम और हनुमान ने ब्राह्मणो के पूर्वाधिकार को दे देने के लिये कहा है इस लिये आप हमें हमारा अधिकार दीजिये। इस पर राजा ने कहा मैं तो तुच्छ मात्र भी नहीं दूंगा आप राम और हनुमान के पास ही. जाइये ? यह सुन ब्राह्मणों ने हनुमान जी के कथनानुसार उनकी ही पुड़िया उसके द्वार पर फेंक दी और स्वयं अपने २ घर को चले गये. बस फिर क्या था चारों तर्फ अग्नि की ज्वालायें ही नजन् (१) अग्रिज्यालाकुलं सर्व संजातं चैव तत्रहि ॥१८॥
दहान्ते राजवस्तूनिच्छत्राणि चमराणि च ।। कोशागराणि सर्वाणि श्रायुधागारमेव च ॥१६॥ महिप्यो राजपुत्राश्च गजा अश्वा हानेकशः । रिमानानि च दहान्ते दहान्ते वाहनानि च ॥२०॥ शिविकाच विचित्रावै रथाश्चैव सहयशः। सर्वत्र दह्यमानं च दृष्ट्वा राजापि विव्यथे ॥२१॥ सर्व तज्ज्वलितं दृष्ट्वा ननक्षपणकास्तदा। धुरवा करेण पात्राणि नीत्वा दण्डान्छुभानपि ॥ रक्तकम्बलिका गृह्य वेपमाना मुहुर्मुहुः । अनुपानहिकाश्चैव नष्टाः सर्वे दिशोदश ॥२५॥ मनष्यश्च विवखास्ते वीतरागामित्रुवन् ॥२७॥ अर्हन्तमेके केचिद पलायनपरायणाः ॥ धावस्मरतिः पश्चारितरचेतश्च वै तहा। पदातिरेकः प्रदन् क विमा इति जल्पकः ॥ . . .
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पुगए और जैन धर्म भाने लगी और राज्य का सर मामान जल कर भस्म सान होने लगा। यह देग्य गजा को बहुत दुख हुआ। सब कुछ जलना देन्य नग्न नपणक अपने २ पात्रों और दगडो को लेकर कांपन हम भागने लगे। रक्त वखो को लेकर बार बार कांपते हुए उपानन (जूनी) श्रादि को भी छोड़ कर भाग गये और कितने एक ना वीतराग : वीतराग ! कहते हुए नंगे ही भाग निकल तथा बहुत में अहंन ! अनि ! कहन हुए भागने लगे! इधर राजा भी रुदन करता हुआ वापरणों के पीछे भागा और उनके चरणों में गिर कर गिड़गड़ा ने लगा। मैं गम के दाम का भी दास हूँ, मैं शरण में
गया नु महसा राजन् गृहोत्रा नु चग्गी तदा। जिवाला नृपतिमी मुदिनीन्यपनत्तदा ॥३॥ याच पचन गना रिमान नियन-परः । जपन दागरपि गम गमरामनि पुनः ॥३॥ नम्प टासम्म दामांह रामस्य च द्विजम्य ।। अमाननिमगन नानोम्बन्धी हि माम्मतम् ॥३॥ यन्तिः प्रशाम्पना विमाः गायनं वो ददाम्यहम् ॥३॥ दामोऽस्मि सम्मन विधा मेवागन्यमा भोट । पाया प्रदात्याया. परसागभिगामिनाम ॥८॥ सपा मापाना च मुवनम्नपिना नया । पापापं गुम्मानाना नपापशमन En सम्मिनस रिमा जाना भूपाया। भन्या या पुटिका चामोसा दत्ता गागल ॥४॥ जीधित चैत्र नन्द मात निंपु गेममु । गि: प्राणासमाना: गांना दिनित नः ॥४३॥
[प्याः ३८
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पुराण आर जन धम
आया हूं आप मेरी रक्षा करो। आप इस अग्नि को शान्त कीजिये मैं आपको शपथ पूर्वक आपके सभी अधिकार देता हूं आप अब क्षमा करें। यह सुन ब्राह्मणों को बड़ी दया आई और हनुमान जी की दी हुई दूसरी पुड़िया से उन्होंने अग्नि को शान्त कर दिया और सब कुछ पूर्व के समान ही बन गया इत्यादि ।"*
आलोचक-पाठकों ने स्कन्ध पुराण के विस्तृत लेख को संक्षेप से सुन लिया इससे अधिक बाद विवाद करना व्यर्थ है सिर्फ एक आधि वात पर ही हम यहां थोड़ा सा विचार करेंगे। हम पीछे कह चुके हैं कि अधिकांश जनों में जैन और बौद्ध को एक मानने तथा लिखने का जो अन्ध विश्वास और अन्ध परम्परा चल रही है उसका मुख्य कारण पुराण हैं। हमारे इस कयन को स्कन्ध पुराण मे देखे गये "वर्तता जैनधर्मेण प्रेरितेनेन्द्रसूरिणा" "जामाता तस्य दुष्टो वै नाम्ना कुमारपालकः, पापण्डैर्वेष्टितो नित्यं कलिधर्मेण संमत: 1८५1 इन्द्रसूत्रेण जैनेन प्रेरितो बौद्धधर्मिणा" इन वाक्यों में और भी अधिक प्रमाणित कर दिया है। परन्तु इस बात को इतिहास का जानकर कोई भी निपक्ष विद्वान् मानने के लिये तयार नहीं होगा । अतः स्कन्ध पुराण का यह कथन प्रमाण विरुद्ध और विश्वास के अयोग्य है।
___ * कन्यपुराण में यह लेख बड़ा ही विस्तृत है हमने उसका बहुत ही मंतिप्त सार दिया है वह भी अनुवाद कामे नहीं किन्तु मर्म स्प से। अधिक देखने को इच्छा वाले कन्यपुराण को देखें।
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पुराण और जैन धर्म
म्कन्द पुराण के इस लेग्य से महाराजा आम और कुमारपाल का एक ही समय में होना सिद्ध होता है। आपने अपनी कन्यारत्नगगा का विवाह राजा कुमारपाल से किया यह उल्लेख उक्त कयन की पुष्टि के लिये पर्याप्त है। तया ये दोनों ही राजा वैदिक धर्म के पूर्ण प्रतिपक्षी, अतएव जैन अथवा बौद्ध थे। इसीलिये रामेश्वर को गये हुए बामणों ने हनुमान जी से बर मांगते समय इन दोनों नरपतियों के विषय में हनुमानजी से कहा है कि"यदि तुष्टोसि देवेश ! रामातापालक ! प्रभो ! स्वरूपं दर्शय स्वाध लंकायां यन् कृनं हरे॥ १०॥ तथा विध्वंसयाचवं राजानंपापकारणं, दुष्टं कुमारपालं हि श्रामं चैव न संशयः ॥११॥ अ.२७ । अर्थात् हे प्रभो ! यदि आप हमारे ऊपर प्रसन्न हुए हैं तो अपना लंका वाला स्वरूप दिखाइये और पापी दुष्ट कुमारपाल
और आम का विनाश करिये ? परन्तु इतिहास कथन के सर्वथा विरुद्ध है। महाराजा आम और कुमारपाल का जैन होना तो इनिहास से सिद्ध है परन्तु उनके समय में बड़ा अन्तर है। जैन के ऐतिहासिक प्रन्यों में प्राम राजा का जिकर आया है और कुमारपाल का तो विशेष रूप से उल्टोव है मगर ये दोनों भिन्न २ समय में हुए हैं। "प्रभावक चरित" नाम का एक प्रसिद्ध जैन-मन्य है उसमें बहुत से प्रभाविक आचारों का बड़ी ही मुबोध और सरम (सन्हन)
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___ * इस कथन मे
माना कि उन पर (निम बस यह रोत या गया) जैन पौर और हि पापियों का पारिस. गिर भरनी सीमा को गुन हनन पर पुरा रोगा।
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पुराण, और जैन-धर्म
भाषा में वर्णन है । इसको चन्द्रप्रभसूरि नाम के किसी जैन विद्वान् ने 'विक्रम सम्वत् १३३४ में लिखकर समाप्त किया है उक्त ग्रन्थ में. "वप्पभट्टि" नाम के एक प्रभाविक आचार्य के प्रबन्ध का वर्णन करते. हुए लिखा है कि "विक्रम सम्वत् ८११ के चैत्र मास की कृष्णाष्टमी. के दिन बप्पभट्ट को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया और राजा के मंत्री के अनुरोध से संघ की अनिच्छा होने पर भी गुरु ने. उनको श्रम राजा के पास भेजा " "श्राम महाराजा चन्द्रगुप्त के वंशीय कान्यकुब्जाधीश यशोवर्मा के पुत्र थे इससे सिद्ध.. होता है कि आम राजा विक्रम की आठवीं शताब्दी के अन्त में हुआ, है। तथा स्कन्ध पुराण के "एतच्छ्रुत्वा गुरोरेव कान्यकुब्जाधिपोवली, राज्यं प्रकुरुते तत्र आमो नाम्ना हि भूतले" इस श्लोक में कान्यकुब्जाधीश जिस आम का उल्लेख है यह सम्भवतः वही आम है जिसका कि जिकर "प्रभावक चरित" में आया है और कोई नहीं । अब 'रही कुमारपाल की बात सो उसका समय तो बिलकुल ही निश्चित है कुमारपाल, जैन राजाओं में 'एक आदर्श राजा हुए हैं इनका जन्म विक्रम सं० ११४९ और राज्याभिषेक' ११९९ में हुआ था और १२२३ में इनका स्वर्गवास हुआ।
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(१) एकादशाधिके तत्र जाते वर्ष शताष्टके ।
विक्रमात् सोऽभवत्सूरिः कृष्णचैत्राष्टमी दिने ॥ ११५ ॥ श्रीमदाम महाभूप श्रेष्ठामात्योपरोधत: । श्रन्च्छितोपि संघस्य प्रैषीत्तैः सह तं गुरुः ॥ ११६ ॥ (२) श्रीचन्द्रगुप्त भूपालवंश मुक्तामणिश्रियः ।
कान्यकुब्ज यशोवर्म भूपतेः सुयशींगभूः ॥...... लेखीदाम नामस्वं क्षितौ खटकयाततः ॥४६-४७॥
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पुराण और जन धर्म कुमारपाल राजा को जैन धर्म का प्रतिवांध देने वाले हमचन्द्राचार्य नाम के एक नम्बर जैन विद्वान थे इनका वि.सं. २०४५ में जन्म १९५४ में दीक्षा, ११६. प्राचार्य पद और १२३९ में शरीरान्त हुआ। ११४५ शावईश्वरं वर्षे कार्तिक पूर्णिमानिशि. जन्माभवन्प्रभो व्योमवाण शंभी बन नथा ११५० ।। ८४८ ॥ ११६६ रसपकेश्वरं मूरि प्रतिष्टाममजायत, नन्दस्य रवीवऽवसानमवभवन प्रभाः ।। ८४९ ॥ प्रभा० च० महाराजा कुमारपाल की राजधानी "अनादिलपुर पाटन" में थी और वि० सं० १२१६ में इन्होंने गुम हेमचन्द्राचार्यजी जैन-धर्म की गृहस्पटीक्षामहरण की धी अर्थान् इन समय से आप सर्वथा प्रसिद्ध रूप में जैन धर्म के अनुयायी बने । मोह पराजय नाटक में लिया है कि धर्मराज की कृपा सुन्दरी नान की कन्या ने इनका विवाह हुआ और अन्य चरित्रों में इनकी नी का नाम भोपल दीवी लिया है।
इन प्रमाणो से सात होता है कि कान्यकुब्जाधीश पान और महाराजा कुमारपाल के समय में लगभग तीन शताब्दी का अन्तर है अर्धान् महाराजा घाम इतना ममय पहले और चौटक्य वंशावतंस राजा पुमारपाल पीद हुए हैं। इसलिये परन्थ पुराएका इन दोनों की समकालीन बतलाना तथा प्रामरमारी रगलाने
मारपाल के विवाह का उपरना क्सिी प्रकार विधास योग्य प्रतीत नहीं होता।
___यहां पर कई एफ सजना का विचार है कि जैन-धर्म. गनिहासिक प्रन्यों में जिस आम और एनारसाल का रिफर है के
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ডম
पुराण और जैन धर्म
स्कन्ध पुराण के आम और कुमारपाल से भिन्न हैं स्कन्ध पुराण में जिस आम और कुमारपाल का उल्लेख है वे तो कलियुग के आदि में और एक ही समय में हुए हैं । परन्तु इस बात के लिये सिवा स्कन्ध पुराण के अन्य कोई बलिष्ट प्रमाण नहीं और स्कन्ध पुराण के लेख पर इसलिये विश्वास करने को मन नहीं करता कि उसमें इन्द्रसूरि नाम के जैन साधु द्वारा कुमारपाल के जैन धर्मानुयाया होने का जो वर्णन है वह किसी भी जैन ग्रन्थ में देखने' में नहीं आता इसलिये बलात् यही मानना पड़ता है कि इन्द्रसूरि यह हेमचन्द्र का ही नाम है जो भूल से इन्द्रसूरि लिखा गया है और यह कुमारपाल वही है जिसने कि अपने शासन काल में जैन धर्म की असाधारण रूप से उन्नति करके बारहवीं शताब्दी के जैन इतिहास, को सदा के लिये अमर और उज्वल किया है। आशा है पाठक इस पर अवश्य विचार करेंगे ।
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[ राजा और ब्राह्मणों के विवाद की आलोचना' ]
ब्राह्मणों के साथ कुमारपाल राजा का हिंसाऽहिंसा के विषय में जो विवाद हुआ है । वैदिको हिंसा हिंसा न भवति - वेद में कही गई हिंसा, हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा ही है इस सिद्धान्त पर ननु नच करना व्यर्थ है क्योंकि ब्राह्मण ग्रन्थों से लेकर पुराणों तक में इसी सिद्धान्त की घोषणा की है अतः इन सब की अवहेलना करनी हमारे लिये अशक्य है ? शस्त्र द्वारा वध करने पर हिंसा, अधर्म और वेद मंत्रों से वध करने पर अहिंसा एवं शस्त्र द्वारा वध किये गये पशु को दुःख होता है और मंत्रों द्वारा मारे जाने पर उसे.
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पुराण और जैन धर्म दुःख नहीं प्रत्युत सुन्न होता है इत्यादि जो उत्तर ब्राह्मण समुदाय ने दिया है वह कितना युक्ति संगत और सन्तोषप्रद है इमरा विवार पाठक खुद ही करें। क्योंकि हमारी तुच्छ बुद्धि में इमरी मंगति लगाने का सामर्थ्य नहीं इसके सिवा राजा के द्वारा अपमानित हुए ब्राह्मण समुदाय की प्रार्थना पर हनुमान जी की दी। पुड़ियों से राजभवन तथा अन्य राज्य-सामग्री जलाना और पुनरुजीवित करना एवं अग्नि भय से व्यस्त हुए कुमारपाल का ब्राह्मण की शरण लेते हुए जैन धर्म को छोड़कर पुनः ब्रामण धर्म में प्रविष्ट होना आदि कहाँ तक सत्य और विश्वासार्ह है इसका भी पाठक ही विचार करें ? हमारे ख्याल में तो उक्त कथन इतिहास में बहुत पिछुड़ा हुआ है प्रथम जब तक किसी प्रबल ऐतिहासिक प्रमाण में इन्द्रसूरि नामक जैन साधु के शिष्य कुमारपाल नाम के किसी जैन राजा का कलियुग के आदि में होना सावित न हो सके तत्र तक उसके पिछलगु समाचार का कुछ मूल्य प्रतीत नहीं होता। हां श्रद्धातिरेक की बात दूसरी है।
अस्तु इससे यह मालूम होता है कि स्कन्ध पुराण की रचना ने पहले जैन धर्म का प्रचार पूर्ण रूप से हो चुका था और उन पुराण यदि व्यास की रचना है तो निसंदेह मानना पंगा जि. पाज से पांच हजार पाले मंमार में पूर्ण रूप में जैन धर्म फैल चुका था।
[कृर्म पुराण ] कर्म पुराण में जैन धर्म की उपनि, 'प्रथवा मिसान्त प्रादि के विषय में कुछ भी लिन्ग देखने में नही प्राना । परन्तु उसमें भार प्रकरण में लिया है
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पुराण और जैन धर्म वृद्धश्रावकनिम्रन्थाः पञ्चरात्रविदोजनाः। . कापालिकाः पाशुपता. पाषण्डा ये च तद्विधाः॥३२॥ यस्याश्नन्ति हवींष्यते दुरात्मानस्तु तामसाः।। न तस्य तद्भवेच्छाई,प्रेत्य चेह फलप्रदम् ॥३३॥
[अध्या०२२] अर्थात्-वृद्धश्रावक, जैन-गृहस्थ, निम्रन्थ जैनसाधु-पाञ्चारात्र कापालिक, पाशुपत तथा इसी प्रकार के अन्य पाखण्डी लोग, ये दुरात्मा तामसी प्रकृति वाले जिसके घर में श्राद्ध का भोजन करते हैं उसका वह श्राद्ध न इस लोक में और न परलोक में ही सुख के देने वाला होता है, इत्यादि। आलोचकः
ऊपर के श्लोकों में श्रावक और निर्ग्रन्थ ये दो शब्द देखने में आते हैं । ये दोनों शब्द क्रमशः जैनगृहस्थ और जैन साधु के लिये जैन ग्रन्थों में विदित किये गये हैं । जैन मत के सिवाय अन्य किसी मत में इन शब्दों का व्यवहार देखने में नहीं आता। इससे कूर्म, पद्म पुराण के समय में जैन धर्म का अस्तित्व प्रमाणित होने के सिवा उसका प्रावल्य तथा तत्समोपवर्ति, पांवरात्र, कापालिक और पाशुपतादि अन्य मतों का भी अस्तित्व और जोर शोर साबित होता है । अन्यया कूर्म पुराण के रचयिता को इन मतों के जाल से अपने निजी मत को सुरक्षित रखने के लिये इस प्रकार का प्रयत्न, करना न पड़ता। सच तो यह है कि संसार में जब मतवाद को
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पुराण और जैन धर्म ऋबल धारा बहने लगती है तत्र सत्य, मर्यादा और प्रेम की मजबूत दीवारें भी उमम वह निकलती हैं। इसी पुराण के अध्याय २६ में लिया है
"नवार्यपि प्रयच्छेत, नास्तिके हैतुकेपि च । पाखण्डेषु च सर्वपु, नावेदविदि धर्मवित् ।।६७॥"
अर्थात्-नास्तिक (वेदों को न मानने वाला)कुनी, पाखण्डी और वेदों के न जानने वाले को धर्मात्मा मनुष्य जल तक भी न देवे इस श्लोक का मतलब स्पष्ट है इस पर किमी प्रकार की टीका टिप्पणी करनी व्यर्थ है। मतबाद की प्रबल निरङ्गशता का इसने अधिक जीवित उदाहरण शायद ही कोई हो । परन्तु धर्म विपयिक अन्ध-विश्वास सभी कुछ करा देता है इसलिये इस पर खेद प्रकट करना अथवा इम निमित्त मे किसी पर दोष लगाना व्यर्थ है। [क्या महाभारत में जैन-मत का जिकर नहीं ?]
अन्यान्य पुराण प्रन्यों के अवलोकन के पश्चात् जब हमारा ग्यान महाभारत की ओर जाता है तब हमें वर्तमान पार्यदल के पिता, श्रद्धास्पद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के एक ऐतिहासिक पिचार का स्मरण हो पाता है। प्राप कहते हैं कि रामायण और महाभारत के जमाने में जैन-मत नहीं या, यह मत इनके बहुत पीछ 'निकला है। यदि रामायण और महाभारत के समय में इस मतता अस्तित्व होता तो गन प्रन्यों में उसका कहीं न कही पर टिकर प्रपश्य किया होता परन्तु रामायण और महाभारत में लेन-मत
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पुराण और जैन धर्स का कहीं पर भी जिकर नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि जैन-मत की उत्पत्ति महाभारत एवं रामायण काल से बहुत पीछे हुई है । तथा आपका यह भी कथन है कि "मूर्ति पूजाका आरम्भ जैनों से हुआ" जैनों से पहले मूर्ति पूजा का संसार में प्रचार नहीं था इत्यादि ! आपकी असली इबारत इस प्रकार है
[वाल्मीकीय और महाभारतादि में जैनियों का नाम मात्र भी नहीं लिखा और जैनियो के ग्रन्थों में बाल्मीकीय और भारत कथित "राम, कृष्णादि" की गाथा बड़े विस्तार पूर्वक लिखी है इससे यह सिद्ध होता है कि यह मत इनके पीछे चला क्योंकि जैसा अपने मत को बहुत प्राचीन जैनी लोग लिखते हैं, वैसा होता तो बाल्मी-- कीय आदि ग्रन्थों में उनकी कथा अवश्य होती इसलिये जैन-मत इन प्रन्थों के पीछे चला है। कोई कहे कि जैनियों के ग्रन्थों में से कथाओं को लेकर वाल्मीकीय आदि ग्रन्थ बने होंगे तो उनसे पूछना चाहिये कि बाल्मीकीय आदि में तुम्हारे प्रन्थों का नाम लख भी क्यों नहीं ? और तुम्हारे ग्रन्थों में क्यों है ? क्या पिता के. जन्म का दर्शन पुत्र कर सकता है ? कभी नहीं। इससे यही सिद्ध होता है कि जैन, बौद्ध-मत शैव, शाक्तादि मतों के पीछे चला है ।। सत्यार्थ प्रकाश अनुभूमिका पृट ३९५।] पापाणादि मूर्ति पूजाः की जड़ जैनियों से प्रचलित हुई । स० प्र० पृ०२८५] इत्यादि। समालोचकः
पाठकगण स्वामीजी के कथन को आपने सुन लिया ? उसके अनुसार रामायण और महाभारत में मूर्ति-पूजा का भी.
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पुराण और जैन धर्म जिकर नहीं होना चाहिये क्योंकि उसका शुरू होना आप जैनो में बतलाते हैं और जैन-मत आपके ख्याल के मुताविक रामायण और
और महामारत के रचनाकाल के बाद निकला है । इसलिये आपके मन्तव्यानुसार रामायण और महाभारत में मूर्ति पूजा का उल्लेख नहीं! परन्तु इस बात को कोई भी ब्राह्मण (जिसने रामायण और महाभारत को देखा होगा) मानने को तय्यार न होगा, ऐसा हमार विश्वास है।
[दोनों लेखों में परस्पर विरोध] हमारा इस विषय मे सभ्य संसार और विशेषतः वर्तमान आर्य समाज से निवेदन है कि यदि रामायण और महाभारत में मूर्ति पूजा विपयिक लेख मिल जाय तो स्वामी जी के "मूर्ति पूजा जैनों से चली" और "जैन-मत रामायण और महाभारत के बाद निकला" इस परस्पर विरोधी उल्लेख की संगति किस प्रकार लग सकंगी क्योंकि "मूर्ति पूजा जैनों से चली" स्वामीजी के यदि इस कथन पर विश्वास कर लिया जाय तो महाभारत के समय में जैन धर्म का होना बलात् प्रमाणित हो जाता है। एवं यदि यही मान लिया जाय कि रामायण और महाभारत के जमाने में जैन-मत का अस्तित्व नहीं था तो स्वामी जी का "मूर्ति पूजा जैनों से चली" यह कथन बिलकुल मिल्या ठहरता है। प्रतः इस विरोध की शक्ति के लिये किसी उचित उपाय का आलम्बन करना, (जो कि हमारी समझ से बाहर है ) उनके लिये आवश्यक है। हमारे स्थान में ना स्वामीजी का उक्त लेव फुल मूल्यवान प्रतीत नहीं होता अन. इस इम पर अधिक दृष्टिक्षप निरर्थक है।
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पुराण और जैन धर्म जो लोग स्वामीजी के कथन को वेद वाक्य के समान समझते हुए उस पर सन्देह उठाना पाप समझते हैं उन भद्र पुरुषों के लिए रास्ता बहुत खुला है, वे महानुभाव बिना संकोच कह उठेंगे कि अव्वल तो रामायण और महाभारत में मूर्ति पूजा का वर्णन ही नहीं, यदि कहीं पर उसका जिकर भी हो तो वह प्रक्षिप्त है । किसी स्वार्थी ने उसे पीछे से मिला दिया है। इसलिए स्वामीजी के कथन में किसी प्रकार के विरोध की आशंका करना निरी भूल है !
पाठकगण ! ऐसे सत्पुरुषों के सम्बन्ध मे कुछ कहना सुनना व्यर्थ है। . . यस्यनास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य कराोतकिम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ॥ . जहाँ तक हमारा विश्वास है रामायण और महाभारत में मूर्ति सूजा का सम्बन्ध वर्णन अवश्य है * परन्तु उसे प्रक्षिप्त ठहरा कर (१) वा० मी० रामायण उत्तर काण्ड
यत्र यत्र च यातिस्म रावणो राक्षसेश्वरः । जम्बुनदमयं लिंग तत्र तत्र स्म नीयते ॥१॥ वालुका वैदिमध्येतु तल्लिंग स्थाप्य रावण ।
अचंयामास गन्धैश्च पुष्पैशास्तगन्धिभिः ॥२॥ ((0) महाभारत वि० पर्व अ०७४
ततोरमभिश्व प्रतिमा कारयित्वाहिभक्तिन. । शुभूपिप्यन्ति ये नित्यं, मम यास्यन्ति ते गतिम् ॥ ५१ ॥ पापाणैः प्रतिमा तात, कारयित्वाच कौरव । शुभ्रपन्ति कृतात्मानो, विन्णुलोकाभिकांदिणः ॥ ५२ ॥
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.पुराण और जैन धर्म
९१ "अथवा मनमाना उसका अर्थ बदल कर अपने ही कक्के को खरा • नवना कथमपि उचित नहीं कहा जा सकता।
अच्छा इस अप्रासंगिक आलोचना का छोड़ कर अब इस बात पर विचार करना चाहिये कि क्या सचमुच ही महाभारत में जैन-मतका जिकर नहीं ? क्या स्वामीजी जो कुछ फरमाते हैं वह बिलकुल ठीक ही है। मगर इसमें विश्वास दिलाने की क्या पावश्यकता है महाभारन का पोथा ही सब बात का निर्णय कर देने में समर्थ है। इस समय महाभारत हमारे सामने मौजूद है। उसमें अन्यान्य पुराण अन्यों की तरह जैन-मत की उत्पत्ति अयया उसके प्रवर्तक किसी महा पुरुष विशेष के सम्बन्ध का उल्लेख तो हमारे देखने में नहीं आया, परन्तु महाभारत में जैन-मत का जिस चरह पर जिकर है वह अन्य पुराणों मे विलक्षण और बड़े महत्व का है उममें अन्यमतों के मायर जैन मत के मूल सिद्धान्न (समभंगी नय ) का वर्णन बड़ी ही मुन्दरता मे किया है । तथाहि । " पौरुष कारणं केचिदाहुः कर्मसु मानवाः । दैवमेके प्रशंसन्ति, स्वभावमपरे जनाः ॥क्षा पौरुषं कर्म दैवं च कालवृत्ति स्वभावतः । त्रयमेतत् पृथग्भूतमविवेकंतु केचन ॥५॥ एतदेवं च नैवं च नचोभे नानुभे तथा । कर्मस्था विषय युःसत्वस्थाः समदर्शिनः ॥६॥" Nic ५० अ० २३८ म. २४४० ४५-६ निर्णय सागर प्रेन]
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पुराण और जैन धर्म [टीका]-आर्हतमतमाह-एतदिति तैर्हि स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादस्ति चनास्ति स्यादस्ति चा वक्तव्यः स्यान्नारित चा वक्तव्यः स्यादरित नास्ति चा वक्तव्यः स्यादवक्तव्यः इति सप्त भंगी नयः सर्वत्र योज्यते । अतएतदेवमिति स्यादस्तीत्युक्तम् । चात् एतन्न एवं च नति सम्बन्धेन स्यानास्ति स्यादवक्तव्य इति चोक्तं । नचोभेहत्त्यनेन स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादरित च नास्ति चा वक्तव्य इतिचोक्तं । नानुमे इति स्यादस्ति चा वक्तव्य स्यान्नास्ति चावक्तव्यः इतिचोक्तं ! कर्मस्था आहता विपयं घटादि एतदेवमस्ति इत्यादि युरिति खम्बन्धः ।।"]
इन श्लोकों का अर्थ स्पष्ट है पुरुषार्थ, कर्म और स्वभाव वाद. आदि का उल्लेख करके छहवें श्लोक मे जैन धर्माभिमत स्याद्वाद के मूल भूत सप्तभंगीनय का वर्णन किया है। उक्त श्लोक से स्यादस्ति स्यानास्ति आदि भंगों का आविर्भाव किस प्रकार से हो सकता है इसका उल्लेख पंडित प्रवर नीलकण्ठाचार्य ने अपनी टीका (जो कि ऊपर दी गई है) में बड़ी ही खूबी के साथ किया है। छठे श्लोक. में जो "कर्मस्थाः " पद है उसका अर्थ "जैन" होता है ऐसा ही टीकाकार ने किया है । इसके सिवा महाभारत शां० मो० अ०२३२ में भी ये श्लोक (जो ऊपर लिखे गये हैं) आय हैं परन्तु वहा शब्दः रचना में थोड़ा सा फर्क है अर्थ में नहीं। वहां पर पंडितनीलकण्ठ, ने जो टीका की है उसमें इस प्रकार लिखा है
- अध्याय २३२ के भोको का पाठ १३ पृष्ठ के नीचे देखिये।
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पुराण और जैन धर्म "कर्मस्था इत्याहतानां यौगिकंनाम तेहि कमष्टिकवादेव : जीवानां बन्धः तपशिला रोहणादिना निर्जराश्येन धर्मणैवच मान्न इति वदन्ति" अर्थान् “कर्मस्त" यह जैनों का यौगिक नाम है।
समालोचक-हमारा विश्वाम था कि स्वामी दयानन्द-सरस्वती जी का कयन बहुधा सत्य पर ही प्रतिष्ठित होगा। परन्तु महाभारत के इस (ऊपर दिये गये) लेख ने हमारे विश्वास की जड़ को बिलकुल खोखला कर दिया! स्वामी जी के लेन्द्र को प्रमाण विधुर और सत्य से नितान्त गिरा हुआ नावित करने में उक्त (महाभारतस्थ ) लेख ने किमी प्रकार की भी त्रुटि नहीं रखी। महाभारत के समय में जैन धर्म के अस्तित्व को प्रमाणित करने चाला इस मे अधिक स्पष्ट लेख और क्या हो सकता है? गहाभारत के इस (ऊपर कहे गये)लेख का ययावन परामर्श करने में प्रतीत होता है कि महाभारत के रचना काल में जैन-धर्म मात्र चाल दशा में ही नहीं था किन्तु उसके अभिमत मिद्धान्तों का क्रम बन गया था और वे दर्शन-शास्त्र के सर में जनता के मानने
पंचित्रकारं नु मार कर्ममु मानमः । दैभियप मि. मनायं भूनचिन्नाः ॥१६॥ पौर पर अपनारति भावन । प्रचएन भभूना र नु कंचन ॥.cn नवं न ममनोभेनानभेन । कर्मधा मिया पर: ॥ २१ ॥
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पुराण और जैन धर्म
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प्रस्तुत किये जा चुके थे । जनता में से बहुतों ने ता उन्हें अपनाय और बहुतों ने उनका बड़ी प्रबलता से प्रतिवाद भी किया । इसलिये महाभारत के समय में जैन धर्म के अस्तित्व का सन्देह करना कम्फ से कम हमें तो भ्रमपूर्ण प्रतीत होता है ।
•
हम अपने पाठकों को इतना और भी स्मरण करा देते हैं कि जैन मत की प्राचीनता अथवा अर्वाचीनता के लिये हमें किसी प्रकार की आह नहीं हमारे विचारानुसार प्रत्येक मत में अपेक्षाकृत प्राचीनता और नवीनता बनी हुई है। अतः वह ( 'जैन मत ) आज उत्पन्न हुआ हो चाहे हजार वर्ष से, इस पर हमें कुछ विवाद नहीं किन्तु "महाभारत के जमाने में जैन-धर्म का अस्तित्व नहीं या वह उसके बाद निकला" यह बात हमें किसा प्रकार 'उचित' प्रतीत नहीं होती ।'
"
( वा० सं० १४ - १२
अर्थात् राजा दशरथ के यज्ञ में ब्राह्मण, शूद्र, तापस और
श्रम आदि नित्य भोजन करने लगे। यहां पर श्लोक में जो श्रम
शब्द आया है वह अधिकांश जैन साधुओं के हो लिये उपयुक्त हुआ
है । जैन ग्रन्थों में साधु के लिये श्रमण शब्द का अधिक प्रयोग देखा गया है और टीकाकारने तो यहां श्रमण शब्द का अर्थ
" वौद्ध सन्यासी वौद्ध साधु " किया है । तथाहि "श्रमणः बौद्ध
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अब रही रामयण की बात सो उसमें भी एक स्थान पर लिखा है"ब्राह्मणा भुजते नित्यं, नाथवन्तश्च भुंजते । . तापसा भुंजते चापि, श्रमणाश्चैवभुंजते ॥"
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पुराण और जैन धर्म.
सन्यासिनः" टी० कार के कथनानुसार उस समय बौद्ध धर्म के साधु मौजूद थे इस से सिद्ध हुआ कि उस समय बौद्ध धर्म था। बौद्ध मत का प्राविभाव जैन मत के बाद हुआ, यह वात आज निर्विवाद सिद्ध हो चुकी है इसलिये रामायण के समय में भी. जैन धर्मका अस्तित्व इस हेतु से मानना होगा ऐसा हमारा न्याल है:
प्रसंगोपात। सिंहजी की जैन मत विषयिणी अनभिज्ञता।
बड़े दुःख से कहना पड़ता है कि इस समय साधारण जनता के अतिरिक्त बहुतसा विद्वान वर्ग भी जैन धर्म के कतिपय (जोकि बहुत स्थूल और जानने लायक हैं) सिद्धान्तों से बहुधा अपरिचित ही दिखाई पड़ता है, जिसके कारण किसी समय उनके समझने में बड़ी गोलमाल सी हो जाती है। पाठकों को पंडित उदयनारायण मिह जी के नाम का स्मरण होगा, अथवा उन्होंने सुना होगा,
आप मधपुरा-जिला मुजफ्फर नगर के रहने वाले हैं। आपको अन्य प्रन्थों को छोड़ दर्शन प्रन्यो की भाषा पनाने का बड़ा शौक मालूम देता है तदनुसार एक दो दर्शन प्रन्धों की भाषा आपने कर भी डाली है एवं सर्व दर्शन संग्रह का मापानुवाद भी आपकी ही गपा का फल है ! सर्व दर्शन संग्रह में अन्यान्य दर्शनों के साथ कम प्राम जैन दर्शन का भी वर्णन है प्राचार्य प्रवर माधव ने इसमे जैन सिद्धान्तों को बड़ी ही सरलता से समझाया है। जैन धर्म की दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो मुख्य शायरामों में स्यूल
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•९६.
पुराण और जैन धर्मः अन्तर कितना है, इस बात को समझाने के लिये जैन विद्वान मुनि जिनदत्त-सूरि प्रणीत विवेक विजास ग्रन्थ के कतिपय श्लोक उद्धृत किये हैं उनमें का एक श्लोक है
नभुक्ते केवली न स्त्री मोक्षमति दिगम्बराः। प्राहुरेषामयं भेदो महान् श्वेताम्बरैः सह ॥१॥
इस श्लोक का सिंहजी ने जो भाषा में अनुवाद किया है वह सचमुच देखने के काविल है और वह इस प्रकार है"अकेला न भोजन करते और नस्त्रीभोगते ऐसा दि० मोक्षको पाते हैं यह भड़ा भेद श्वेताम्बरों के साथ कहा है" __हम नहीं समझते कि सिंह जी ने इस प्रकार का (सर्व दर्शन संग्रह की भाषा टीका करने का ) दुस्साहस क्यों किया? संस्कृत श्लोकों का षष्टी चतुर्थी का अर्थ करना कुछ और बात है तथा उसके सिद्धान्त गत तात्पर्य को समझ कर उसका अनुवाद करना अन्य बात है। सर्व दर्शन संग्रह के इस भाषानुवाद से आपका संसार में बड़ा यश वढ़ा होगा परन्तु इन पंक्तियों (अकेला नभोजन करते इत्यादि) ने उसकी दुर्दशा भी खूब कर डाली। आपकी इस अनभिज्ञता पर बड़ा दुःख होता है। हम आपसे सर्वथा अपरिचित हैं और हमें तो यह भी खबर नहीं कि इस समय आप अपने दर्शनों से नगर निवासियों को अथवा देसवासियों को कृतार्थ कर रहे हैं या किसी स्वर्ग विशेष के विशिष्ट अतिथि बन रहे हैं। अन्यथा हम आप से कुछ न कुछ प्रार्थना किये विना न रहते ।
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३
पुराण और जैन धर्म
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ऊपर लिखे का यथार्थ तात्पर्य और अक्षरार्थ, हमने स्वामी दयानन्द और जैन धर्म" नाम की पुस्तक में लिख दिया है, पाठक वहाँ से ही देखने की कृपा करें वहाँ उनको
और कुछ भी देखने
को मिलेगा ।
[ निष्कर्ष ]
जैन-धर्म से सम्बन्ध रखने वाले जितने भी उल्लेख पुराणों में पाये जाते हैं, उन सब पर सम्यकतया विचार करने से निम्नलिखित बातें प्रकट होती हैं ।
२ - पुराणों के जमाने मे जैन-धर्म विद्यमान था ।
(क) जिस समय पुराणों की रचना हुई है उस समय जैनमत अपनी यौवन दशा में था ।
(स) उस समय में आपस का विरोध कल्पनातीत दशा को पहुँच चुका था ।
२ -- पुराणों में जैन-धर्म की उत्पत्ति के जितने भी लैस हैं वे एक दूसरे से विभिन्न और प्रतिकूल हैं ।
(क) उनमें ऐतिहासिक सत्यता बहुत ही कम है अतएव उन पर अधिक विश्वास करने को मन नहीं कहता !
३- जैन धर्म की उत्पत्ति विपचिक अनेक प्रकार को जो मिथ्या पहनायें प्रचलित हो रही है उनका कारण भी पुरा गठ जैन-धर्म विषयिक लेग्य ही है जैसे
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पुष्प भी गाना ० ० इव पने
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पुराण और जैन धर्म (क) जैन-मत बौद्ध-मत से निकला और उसका शाखामात्रहै। , (ख) जैन और बौद्ध-मत एक ही हैं, इनके चलाने वाले एक
ही पुरुप है वह प्रथम बुद्ध था बाद में जैन बन गया
इत्यादि। ४-इसके सिवा पुराणों के उल्लेख से एक बात यह भी प्रकट होती है कि उस समय की वैध पशु हिसा का बड़ा जोर था जैन
और उसके परवर्ति बुद्ध धर्म ने उसे रोकने के लिये बड़ा प्रयत्न किया और इस कार्य में उसे बड़ी भारी सफलता प्राप्त हुई।
[जैन समाज के नेताओं का कर्तव्य
जैन-धर्म के विषय में अनेक प्रकार के जो मिथ्या विचार फैल रहे हैं उनका अधिकांश दोप वर्तमान समय के जैन विद्वानों और मुख्य नेताओं पर है। यदि वे चाहते तो इस विषय में बहुत सा अन्धकार दूर हो सकता था, परन्तु शोक है कि उन्हें आपस की गृहकलह से ही मुक्ति नहीं मिलती । अतः उनको मुनासिब है कि जैन सिद्धान्तों को यथार्थ और स्पष्ट रूप से जनता के समक्ष रखने का प्रयत्न करें ? समय का प्रवाह अव बदल रहा है । जैन समाज के हृदय से मतवाद के भाव कुछ कम हो रहे हैं, जिज्ञासा की तरंगें प्रति दिन उमड़ रही हैं । हर एक मत के सिद्धान्तों को प्रेम पूर्वक
नने और उपयुक्त एवं यथार्थ सिद्धान्त को अपनाने के लिए अब जनता तैयार है। अतः यह समय चूकने का नहीं। यदि जैन सिद्धान्तों में सच्चाई होगी, यदि जैन दर्शन में अन्य दर्शनो की
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}
पुराण और जैन धर्म
९९ अपेक्षा अधिक सार' और अधिक महत्व की बातें होंगी तो सभ्य संसार उन्हें बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार करेगा और उनके सामने सिर मुकायेगा, तु और कुछ नहीं तो जनता में फैले हुए मिथ्या विचारों में तो कमी होगी !
[ उपसंहार ]
हम
मध्यस्थ वाद माला के इस द्वितीय पुष्प की समाप्ति करते हुए अपने पाठकों से यत्किचित् और भी निवेदन करें देते हैं। पुराणों में जैन धर्म विपथिक जो भी उल्लेस हमें मिला उसे हमने इस लेख में उद्धृत कर दिया है। उसका मनन करना तथा अपने विचारों का उस पर प्रकाश डालना अब पाठकों का काम है । हमारे विचारानुसार तो "हस्तिना ताव्यमानोपि न गन्छेज्जैनमंदिरम्" इत्यादि उक्तियों तथा जैन-मत की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाली विविध प्रकार की मिथ्या कल्पनाओं का उद्भव स्थान पुराणों के वे लेस हो प्रतीत होते हैं जिनका कि पहले जियर आ चुका है।
पुराणों में थाये हुए जैन-धर्म सम्बन्धी लेखों को उद्धत करते समय हमने कहीं कहीं पर अपना विचार भी प्रकट किया है परन्तु वह अच्छा है या बुरा, मके लिए हम कुछ नहीं कह मक । सम्भव वह पार्थ दा, सम्भव है उसमें बहुत मां भूलें हों, इस बात की मीमांसा करना निःश्च समालोचकों का काम है, हमारी परिमित बुद्धि में जो शुद्र आया उसे हमने जनता के सम राप दिया, उसके उचिवानुचित के विवेचन का भार
पाठकों
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१०० पुराण और जैन धर्म पर है । आशा है सभ्य पाठक हमारी इस प्रार्थना को स्वीकृति प्रदान कर सफल करते हुए हमें अनुगृहीत करेंगे। शिवमस्तु सर्व जगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणा: दोषाःप्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः॥
-विनीत हंस
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१३
हि
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शांति संबंधी
९०
१२
नोट-(१) पृ० ६३ प०८ से [विचार माला में] को जगह [विचारों
को एक माला में पढ़ना । (२) १०८१५० १३ [इतिहास कथन] के स्थान में "इतिहास इस
कधन"--ऐसा पढ़ना ।
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