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पुराण और जैन धर्म जिकर नहीं होना चाहिये क्योंकि उसका शुरू होना आप जैनो में बतलाते हैं और जैन-मत आपके ख्याल के मुताविक रामायण और
और महामारत के रचनाकाल के बाद निकला है । इसलिये आपके मन्तव्यानुसार रामायण और महाभारत में मूर्ति पूजा का उल्लेख नहीं! परन्तु इस बात को कोई भी ब्राह्मण (जिसने रामायण और महाभारत को देखा होगा) मानने को तय्यार न होगा, ऐसा हमार विश्वास है।
[दोनों लेखों में परस्पर विरोध] हमारा इस विषय मे सभ्य संसार और विशेषतः वर्तमान आर्य समाज से निवेदन है कि यदि रामायण और महाभारत में मूर्ति पूजा विपयिक लेख मिल जाय तो स्वामी जी के "मूर्ति पूजा जैनों से चली" और "जैन-मत रामायण और महाभारत के बाद निकला" इस परस्पर विरोधी उल्लेख की संगति किस प्रकार लग सकंगी क्योंकि "मूर्ति पूजा जैनों से चली" स्वामीजी के यदि इस कथन पर विश्वास कर लिया जाय तो महाभारत के समय में जैन धर्म का होना बलात् प्रमाणित हो जाता है। एवं यदि यही मान लिया जाय कि रामायण और महाभारत के जमाने में जैन-मत का अस्तित्व नहीं था तो स्वामी जी का "मूर्ति पूजा जैनों से चली" यह कथन बिलकुल मिल्या ठहरता है। प्रतः इस विरोध की शक्ति के लिये किसी उचित उपाय का आलम्बन करना, (जो कि हमारी समझ से बाहर है ) उनके लिये आवश्यक है। हमारे स्थान में ना स्वामीजी का उक्त लेव फुल मूल्यवान प्रतीत नहीं होता अन. इस इम पर अधिक दृष्टिक्षप निरर्थक है।