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पुराण और जैन धर्म नीय रचरन गणी की प्रार्थना पर किया था भगवान् श्री ऋषभ प्रसन्न हों।
[जिल्द पहली पृष्ट ३८६] ___इन शिला लेखों से मालूम होता है कि दो हजार वर्ष के करीब जैनधर्म में ऋपभदेव जी की पूजा प्रचलित थी, वे जैनधर्म के श्राद्य प्रवर्तक समझे जाते थे, जैसा कि आज कल के जैनों का विश्वास है। कुछ भी हो इन लेखों से जैनधर्म के श्राद्य प्रवर्तक कोई ऋपभदेव अवश्य सिद्ध होते हैं, वे चाहे भागवत में उल्लेख किये गये ऋषभ देव हों या कोई अन्य हों, परन्तु अर्हन नाम का कोई अन्य राजा जैनधर्म का प्रवर्तक नहीं हुआ। इसी बात पर और भी प्रकाश डालने वाला, उक्त दोनो शिला लेखों में भी प्राचीन और विस्तृत हाथी गुफा का शिलालेख है परन्तु वह इस माला के किसी अन्य पुष्प मे उद्धत किया जावेगा । भागवत के लेख की मीमांसा के लिये तो इतना ही पर्याम है।
[श्रीमद् भागवत के लेख पर विचार ]
अब रहा श्रीमद्भागवत का लेख, सो एक प्रकार से ता उसकी जांच हो चुकी उसकी सत्यता अनिश्चित है । अर्हन नाम की किसी राजव्यक्ति द्वारा जैन धर्म को उत्पत्ति का कथन सर्वथा कल्पित प्रतीत होता है । इसमें कोई प्रबल प्रमाण नहीं प्रत्युत उसके विरुद्ध ही प्रमाण मिलते हैं। जिनका कि ऊपर दिग्दर्शन कराया गया है। परन्तु बहुत से विद्वानो का ख्याल इस विषय में विचित्र है, उनके विचार का अनादर करना भी हमारे लिये उचित नहीं। अतः उनके विचार की आलोचना के लिये भी प्रकारान्तर से उक्त लेखपर विचार करना हमें प्रावश्यक और उचित प्रतीत होता है।