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________________ धुगण और जैन धर्म कलेख में जो परम्पर विरोध मूलक वैविध्य है उसकी और भी पाठक ध्यान दें। वि.गुपुराण में उल्लेख किये "दिवाससामयं धर्मो धर्मोऽi बहुवाससाम्" नया "अहमं महाधनं मायागोहेन तेयनः । प्राकाम्नमात्रियन नाहनातन नेऽभवन्” इन दो वाक्यों को ध्यान पूर्वक देखन से बहुत कुछ विचित्रता प्रतीत होती है। ऊपर के आध श्लोक में ना जैन धर्माभिमत सप्त भंगीनय का संक्षित स्वरूप बतज्ञान हुए यह कहा है कि यह [अनेकान्तवाद-स्याद्वाद] दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों का समान धर्म-मन है। दूसरे शोक में जो कुछ कहा है उसका तात्पर्य यह है कि इस स्याद्वाद रूप] महा धर्म के जो अनुयायी बने वे आईन्-जैन कहलाये । इनमे इस दूसरे श्लोक के कथन से तो यह साबित होता है कि जैन धर्म के प्रथम प्रवर्तक विष्णु भगवान के शरीर से उत्पन्न हुए "मायामोह" नाम के कोई पुम्प विशप है, उन्होंने ही असुरो को प्रथम इस धर्म का उपदेश दिया। विही बाद में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक हुए] परन्तु ऊपर के अर्द्ध नाक मे तो कुछ और ही प्रतीत होता है । उस पर विवार करने से मालूम होना है कि इससे बहुत समर पूर्व ही जैन धर्म के सिद्धान्त प्रचार में पा चुके थे। जहां तक कि "मायामाह' के उपदंश समय में नो यह दिगन्धर पोर श्रनाम्बर इन ना मुख्य शाग्याओं में भी विभक्त हो चुका था। तात्रय यह है कि बहुत समय से चले आते जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्त काही । मायामाह ने अमुरो को उपदेश किया, न कि निजमति से उन्होंने किसी एक नवीन मत की नीव डाली । इसलिये इन विरोधी कयनी की नंगनि किस प्रकार लगाई जाय । इमरा विचार भी पाठकों के
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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