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पुराण और जैन धर्म भागवत में तो लिखा है कि ऋषभदेव के चरित्र को सुन और उनको 'शिक्षा को ग्रहण कर अर्हन नाम के किसी राजा ने जैन मत का प्रचार किया, और यहां अमिपुराण का कथन है कि बुद्ध भगवान् ने ही पश्चात् जैन बनकर उक्त मत को चलाया । अब हम दोनो में से सत्य किसे कहें और मिथ्या किसे ठहरायें । इस बात की पाठक खुद आलोचना करें ? हमारे ख्याल में तो इस प्रकार के लेखों में परस्पर विरोध का देखना, और उनमें सन्देह का उत्पन्न करना ही हमारे अधिकार से बाहर है । क्योंकि ये ग्रन्थ ऋषि प्रणात कहे जाते हैं, अतः ऋषियों के रहस्य भरे लेखों को ऋषि ही समझ सकते हैं। हमारे जैसे स्वल्प मेधावी मनुष्यों का उनकी आलोचना में प्रवृत्त होना छोटे मुंह बड़ी बात कहने के मानिन्द है अतः इस विषय में हमें तो 'मौन-सर्वार्थसाधक' ही ठीक जचता है। परन्तु धन्य है उन लोगों को जो इस प्रकार के आधारों पर ही जैन धर्म का इतिहास लिखने बैठ जाते हैं।
लिये विन्णु भगवान् की शरण को पार हुए। तब भगवान् ने मोह और माया के स्वरूप शुद्धोदन सुत (बुद्द ) के अवतार को धारण किया और दैत्यों को मोह कर उनसे वेद धर्म का परित्याग करा दिया। उसके उपदेश से वे दैत्य तथा वेद मार्ग से भ्रष्ट अन्य लोग चौद्धमतानुयायी वने पश्चात वह (बुद्ध) आहेत (जैन) वना और उसने जैन बनाये । इस प्रकार वेद धर्म से भ्रष्ट पारिड लोगों की स्पत्ति हुई।
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