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पुराण और जैन धर्म वृद्धश्रावकनिम्रन्थाः पञ्चरात्रविदोजनाः। . कापालिकाः पाशुपता. पाषण्डा ये च तद्विधाः॥३२॥ यस्याश्नन्ति हवींष्यते दुरात्मानस्तु तामसाः।। न तस्य तद्भवेच्छाई,प्रेत्य चेह फलप्रदम् ॥३३॥
[अध्या०२२] अर्थात्-वृद्धश्रावक, जैन-गृहस्थ, निम्रन्थ जैनसाधु-पाञ्चारात्र कापालिक, पाशुपत तथा इसी प्रकार के अन्य पाखण्डी लोग, ये दुरात्मा तामसी प्रकृति वाले जिसके घर में श्राद्ध का भोजन करते हैं उसका वह श्राद्ध न इस लोक में और न परलोक में ही सुख के देने वाला होता है, इत्यादि। आलोचकः
ऊपर के श्लोकों में श्रावक और निर्ग्रन्थ ये दो शब्द देखने में आते हैं । ये दोनों शब्द क्रमशः जैनगृहस्थ और जैन साधु के लिये जैन ग्रन्थों में विदित किये गये हैं । जैन मत के सिवाय अन्य किसी मत में इन शब्दों का व्यवहार देखने में नहीं आता। इससे कूर्म, पद्म पुराण के समय में जैन धर्म का अस्तित्व प्रमाणित होने के सिवा उसका प्रावल्य तथा तत्समोपवर्ति, पांवरात्र, कापालिक और पाशुपतादि अन्य मतों का भी अस्तित्व और जोर शोर साबित होता है । अन्यया कूर्म पुराण के रचयिता को इन मतों के जाल से अपने निजी मत को सुरक्षित रखने के लिये इस प्रकार का प्रयत्न, करना न पड़ता। सच तो यह है कि संसार में जब मतवाद को
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