________________
पुराण और जैन धर्म [टीका]-आर्हतमतमाह-एतदिति तैर्हि स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादस्ति चनास्ति स्यादस्ति चा वक्तव्यः स्यान्नारित चा वक्तव्यः स्यादरित नास्ति चा वक्तव्यः स्यादवक्तव्यः इति सप्त भंगी नयः सर्वत्र योज्यते । अतएतदेवमिति स्यादस्तीत्युक्तम् । चात् एतन्न एवं च नति सम्बन्धेन स्यानास्ति स्यादवक्तव्य इति चोक्तं । नचोभेहत्त्यनेन स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादरित च नास्ति चा वक्तव्य इतिचोक्तं । नानुमे इति स्यादस्ति चा वक्तव्य स्यान्नास्ति चावक्तव्यः इतिचोक्तं ! कर्मस्था आहता विपयं घटादि एतदेवमस्ति इत्यादि युरिति खम्बन्धः ।।"]
इन श्लोकों का अर्थ स्पष्ट है पुरुषार्थ, कर्म और स्वभाव वाद. आदि का उल्लेख करके छहवें श्लोक मे जैन धर्माभिमत स्याद्वाद के मूल भूत सप्तभंगीनय का वर्णन किया है। उक्त श्लोक से स्यादस्ति स्यानास्ति आदि भंगों का आविर्भाव किस प्रकार से हो सकता है इसका उल्लेख पंडित प्रवर नीलकण्ठाचार्य ने अपनी टीका (जो कि ऊपर दी गई है) में बड़ी ही खूबी के साथ किया है। छठे श्लोक. में जो "कर्मस्थाः " पद है उसका अर्थ "जैन" होता है ऐसा ही टीकाकार ने किया है । इसके सिवा महाभारत शां० मो० अ०२३२ में भी ये श्लोक (जो ऊपर लिखे गये हैं) आय हैं परन्तु वहा शब्दः रचना में थोड़ा सा फर्क है अर्थ में नहीं। वहां पर पंडितनीलकण्ठ, ने जो टीका की है उसमें इस प्रकार लिखा है
- अध्याय २३२ के भोको का पाठ १३ पृष्ठ के नीचे देखिये।