Book Title: Puran aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 105
________________ .पुराण और जैन धर्म ९१ "अथवा मनमाना उसका अर्थ बदल कर अपने ही कक्के को खरा • नवना कथमपि उचित नहीं कहा जा सकता। अच्छा इस अप्रासंगिक आलोचना का छोड़ कर अब इस बात पर विचार करना चाहिये कि क्या सचमुच ही महाभारत में जैन-मतका जिकर नहीं ? क्या स्वामीजी जो कुछ फरमाते हैं वह बिलकुल ठीक ही है। मगर इसमें विश्वास दिलाने की क्या पावश्यकता है महाभारन का पोथा ही सब बात का निर्णय कर देने में समर्थ है। इस समय महाभारत हमारे सामने मौजूद है। उसमें अन्यान्य पुराण अन्यों की तरह जैन-मत की उत्पत्ति अयया उसके प्रवर्तक किसी महा पुरुष विशेष के सम्बन्ध का उल्लेख तो हमारे देखने में नहीं आया, परन्तु महाभारत में जैन-मत का जिस चरह पर जिकर है वह अन्य पुराणों मे विलक्षण और बड़े महत्व का है उममें अन्यमतों के मायर जैन मत के मूल सिद्धान्न (समभंगी नय ) का वर्णन बड़ी ही मुन्दरता मे किया है । तथाहि । " पौरुष कारणं केचिदाहुः कर्मसु मानवाः । दैवमेके प्रशंसन्ति, स्वभावमपरे जनाः ॥क्षा पौरुषं कर्म दैवं च कालवृत्ति स्वभावतः । त्रयमेतत् पृथग्भूतमविवेकंतु केचन ॥५॥ एतदेवं च नैवं च नचोभे नानुभे तथा । कर्मस्था विषय युःसत्वस्थाः समदर्शिनः ॥६॥" Nic ५० अ० २३८ म. २४४० ४५-६ निर्णय सागर प्रेन]

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