Book Title: Puran aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 107
________________ पुराण और जैन धर्म "कर्मस्था इत्याहतानां यौगिकंनाम तेहि कमष्टिकवादेव : जीवानां बन्धः तपशिला रोहणादिना निर्जराश्येन धर्मणैवच मान्न इति वदन्ति" अर्थान् “कर्मस्त" यह जैनों का यौगिक नाम है। समालोचक-हमारा विश्वाम था कि स्वामी दयानन्द-सरस्वती जी का कयन बहुधा सत्य पर ही प्रतिष्ठित होगा। परन्तु महाभारत के इस (ऊपर दिये गये) लेख ने हमारे विश्वास की जड़ को बिलकुल खोखला कर दिया! स्वामी जी के लेन्द्र को प्रमाण विधुर और सत्य से नितान्त गिरा हुआ नावित करने में उक्त (महाभारतस्थ ) लेख ने किमी प्रकार की भी त्रुटि नहीं रखी। महाभारत के समय में जैन धर्म के अस्तित्व को प्रमाणित करने चाला इस मे अधिक स्पष्ट लेख और क्या हो सकता है? गहाभारत के इस (ऊपर कहे गये)लेख का ययावन परामर्श करने में प्रतीत होता है कि महाभारत के रचना काल में जैन-धर्म मात्र चाल दशा में ही नहीं था किन्तु उसके अभिमत मिद्धान्तों का क्रम बन गया था और वे दर्शन-शास्त्र के सर में जनता के मानने पंचित्रकारं नु मार कर्ममु मानमः । दैभियप मि. मनायं भूनचिन्नाः ॥१६॥ पौर पर अपनारति भावन । प्रचएन भभूना र नु कंचन ॥.cn नवं न ममनोभेनानभेन । कर्मधा मिया पर: ॥ २१ ॥

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