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पुराण और जैन धर्म
मार्ग से भ्रष्ट कर दिया । इन्द्र ने भी उनको वेद विहित मार्ग मे भ्रष्ट और श्रद्धा से रहित समझ कर उन सब का विनाश करके वाधिकार प्राप्त कर लिया ।
[आनन्दाश्रम सरिफमत्स्य पु० ० २४ श्लोक २८-४ : ]
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आलोचक
इस सारी कथा में जैन धर्म से सम्बन्ध रखने वाला "जिन धर्म समास्थाय वेदवाह्यं स धर्मवित्" बस यह आधा श्लोक है । अगर "जिन" के स्थान में कोई अन्य शब्द रख दिया जाय तो इतना भी नहीं ! एवं कृत्रिम जैन वन कर वृहस्पति ने रजि के पुत्रों को क्या उपदेश दिया, और उसकी जैन धर्म विषयिक किन बातों का उनके हृदय पर प्रभाव पड़ा, जिनके कारण वे वैदिक धर्म से विमुख होकर इन्द्र के वज्र से आहत हुए। इस बात का उक्त कथा में कुछ भी जिकर नहीं यह बड़ा आश्चर्य है । फिर यह भी समझ में नहीं आता कि बृहस्पति के इस माया जाल रूप अमोघान्त्र का लक्ष जैन धर्म ही क्यो बनाया गया । सच पुंद्रिये तो हमें तो यह सब द्वेप और दुराग्रह की ही लीला प्रतीत होती है ।
अस्तु यदि ऊपर दी गई कथा सत्य है [वस्तुतः होनी ही चाहिये] तो इससे जैन धर्म की प्राचीनता पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है । मत्स्य पुराण के "जिनधर्म 'समास्थाय वेदवाह्यं स धर्मवित्" इस आलोक से ज्ञात होता है कि उस समय [मत्स्यपुराण के निर्माकाल में] जैन धर्म बहुत कुछ प्रचार में आ चुका था । अतः मम्य पुराण के रचना काल से जैन धर्म की उत्पत्ति का समय अधिक प्राचीन है, यह बात उक्त कथा से स्पष्ट प्रतीत होती है यद्यि