Book Title: Puran aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 82
________________ - . ........ पुराण और जैन धर्म वेदत्रयीपरिभ्रष्टांश्चकार धिषणाधिपः । वेदवाह्यान् परिज्ञाय हेतुवादसमन्वितान् ॥४८॥ 'जघान शक्रो वज्रेण सर्वान् धर्मबहिस्कृतान् । [अध्याय २४] इन श्लोकों का भावार्थ यह है कि किसी समय भरत महाराज ने लक्ष्मी स्वयंवर रचा। उसने मेनका, उर्वशी और रम्भा को नृय करने के लिये आज्ञा दी। वहाँ लयपूर्वक नृत्य करती हुई उर्वशी पुलरव को देखकर कामदेव के वशीभूत हो जाने से भरतोदित अभिनय [भरत के कहे हुए नृत्य प्रकार] को सर्वथा भूल, मनमाना कृत्य करने लगी। उसके इस कृत्य को देख भरत को बड़ा क्रोध चढ़ा । इसलिये उसने उर्वशी को शाप दिया कि, तू इससे (पुरुरव से)वियुक्त हुईमृत्यु लोक में साढ़े पांच सौ वपे तक लता बनी रहेगी,और यह-पुरुरव-भीवहीं पर पिशाच बन कर रहेगा। भात का शाय पूरा होने के अनन्तर उर्वशी ने बुध पुत्र के नयोग से आयुः, चढ़ायुः, अश्वायुः, धनायुः, धृतिमान, वमु, शुचिविध और शतायु ये आठ पुत्र उत्पन्न किये । उनमें से आयु के पांच पुत्र हुए 'जो कि बड़े शूरवीर थे। उनके क्रमशः नहुप, वृद्धशर्मा, रजि, दम्भ और विपाप्मा ये नाम हैं। इनमें से तीसरे रजि ने सौ पुत्र उत्पन्न किये । रजि ने विष्णु भगवान का बहुत आराधन किया उसका तपश्चर्या से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने उसको ऐसा वर दिया जिसके प्रभाव से वह देव, असुर और मनुष्यों में सबको जीतने वाला हुआ। कुछ समय बाद देवों और दैत्यों का बड़ा भारा युद्ध हुआ।

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