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पुराण और जैन धर्म . के मुख से प्रथम व्यभिचार प्रवृत्ति का उपदेश दिला देना था जिन मे कि उम पर-मुनि पर लगाया गया व्यभिचार-प्रबर्नकता का लांछन सर्वथा निर्मूल सावित न होता ।
इसके अतिरिक्त "हे मुने ! तुम कलियुग के श्रान नक मारवाड़ में जाकर ठहरे रहना, और गढ में अपने धर्म का प्रचार करना" इस कथन पर बहुत कुत्र विचार करने की अावस्यकना है परन्तु वह सब कुत्र पाठको पर ही छोड़ने हुए हम इतना ही कहते हैं कि-"तुरंग,गप्युपपादयदभ्यां नमःपरंम्यो नवपंडितभ्यः'
[मत्स्य पुगण] जैन-धर्म त्रिययिक मल्य पुराण का लेब भी विल नाग है। उसमें जैन धर्म को उत्पत्ति का कोई नया प्रकार नहीं बतलाया । किन्तु "शनि के पुत्रों द्वारा गज्य से न्युन हुए इन्द्र की अभ्यर्थना को सुन, देव गुरु बृहस्पनि ने रजि पुत्री को जिन-धर्म के उपदेश मोहित कर जब सोनम वेट मतको गिग दिया तब इन ने उनको स्ववत्र ने आहत कर अपना राज्य निहलन फिर ने प्राप्त कर कर लिया" का अपूर्व वर्णन ही उममें किया है। बदनापूर्ण का और उसका पाठ इस प्रकार है
लक्ष्मी म्वयंवरं नाम भरतेन प्रवर्तितम् । मनकामुबशी रम्भा नृत्यतेनि तदादिशन ॥२८॥
ननर्न सलयं नत्र लक्ष्मी रूपेणचोर्वशी । - सा पुरवसं दृष्ट्वा नृत्यन्ती कामपीड़िता २॥