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पुराण और जैन धर्म
नहीं होती कि मायामय नाम के ऋषि ने त्रिपुराधीश के समक्ष 'असुर सभा में जो उपदेश दिया है वह कितना सार युक्त और हृदय ग्राही है। उसमें प्राणि मात्र पर समान भाव रखने रूप अमूल्य उपदेश के सिवा "भीतेभ्यश्वमयं देयं, व्यावितेभ्यस्तयोपवं । देया विद्यार्थिनां विद्या, देयमनं क्षुधातुरे" इत्यादि कथन तो विशेष रूप से मनन और आचरण करने योग्य है । परन्तु शिवपुराण की इस लेख माला में उक्त उपदेश पर बड़ा ही अनुचित आक्षेप किया है । "लोवर्म खंडयामास पातित्रयरं महत, जितेन्द्रिय त्वं सर्वेषां पुरुषाणां तथैव सः" | "अर्थात् उस मुनि ने अपने उपदेश से स्त्रि यो के परमोत्तम पतिव्रता धर्म ओर मनुज्यां के जितेन्द्रियत्व का खंडन किया इत्यादि" मगर मायामय ने जो कुछ उपदेश दिया है उसमें कहीं पर भी ऐसा उल्लेख नहीं कि जिसमें कि स्त्री और पुरुषों को 'व्यभिचार में प्रवृत्त होने की आज्ञा हो । हमें जो कुछ भी इसे
सम्बन्ध (मायामय की उत्पत्ति और उसका उपदेश आदि) में मालूम हुआ है वह सब शिव पुराण की इस लेख माला के ही बदौलत मालूम हुआ है । उक्त मुनि के उपदेश में हमें तो व्यभिचार प्रवृत्ति की गन्ध तक भी नहीं आती और नही अन्य कोई वुद्धिमान् इसे बात को स्वीकार करने के लिये त्यार हो सकता है फिर उक्त ऋपि के उपदेश को पतिव्रता धर्म और ब्रह्मचर्य का विघातक किस 'प्रकार से बताया गया यह हमारी समझ में नहीं आता। हमारे ख्याल में तो यह बड़ा भारी असभ्य आक्षेप है जो कि एक प्रतिष्ठित समाज पर किसी व्याज से लगाया गया है और जो सर्वथा निर्मूल "और निरर्थक है। हां यदि ऐसा ही करना अभीष्ट था तो उक्त मुनि