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पुराण और जैन धर्म
सुखेषु भुज्यमानेषु यत्स्याद्देहविसर्जनम् । अयमेव परोमोक्षो विज्ञयेस्तत्वचिन्तकैः॥२६॥ इन दो श्लोकों से उसका चार्वाक-नास्तिक होना सिद्ध होता। है और जब हमः
अर्थानुगmबहुशो द्वादशा यतनानिवै । परितः परिपूज्यानि किमन्यरिह पूजितैः॥
वासनासहिते क्लेशसमुच्छेदेसति 'गुवम् । अज्ञानोपरमो मोक्षो विज्ञेयातत्वचिन्तकैः ॥२८॥
बौद्धागमविनिर्दिष्टान् धर्मान् वेदपरांस्ततः॥३४॥ ___इस प्रकार का उल्लेख देखते हैं तब हमे उसको बौद्ध धर्म का समझना पड़ता है । तात्पर्य कि शिव पुराण के इस लेख से यह निश्चित नहीं होता कि उस ऋपिने किस मत का उपदेश किया। क्योंकि कहीं पर तो वह चार्वाक के मत का उपदेश देता है और कहीं बुद्ध के मत का तथा कहीं पर वह अहिंसा धर्म के उच्च सिद्धान्त का प्रतिपादन करता हुआ प्राणि-मात्र को उसके पालन करने का आदेश देता है जिससे कि वह जैन सावित होता है इस
* प्राणि मात्र के तिो स्वर्ग और नरक यहो पर है अन्यत्र नहीं। सुख का नाम स्वर्ग और दुःत्र का नाम नरक है। सुख भोगते हुए देह का छूट जाना ही नोद है।