Book Title: Puran aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Sharma
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 50
________________ । पुगण और जैन धर्म किर मर कर क्रमशः गीदड़, व्यान, गृध्र, काफ, और मयूरादि की योनि में फिरता हुआ अन्त में जनक राजा के घर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ । परन्तु यह मनुष्य योनी उसे तब मिली जब कि अश्वमेध यज्ञ के अन्त में होने वाले अवभृथ स्नान का उसे सौभाग्य प्राप्त हुआ | "पाराशर ऋषि कहते हैं हे मैत्रेय ! मैंने यह पाखंडी के साथ सम्भाषण करने का दोष और अश्वमेध में होने वाले अवभृध स्नान का माहात्म्य तुमको सुना दिया" एष पाषाण्डिसम्भाषदोषः प्रोक्तो मया द्विज!। तथाश्वमेधावभृथस्नानमाहात्म्यमेवच ॥ [अं०३ अ०१८] अब पाठक इससे नतीजा निकाल सकते हैं अथवा समझ सकते हैं उस समय में आपस का द्वेप किस सीमा तक पहुंचा हुआ था । हमारे ख्याल में तो वर्तमान समय में, जैन तथा अन्य धर्मावनस्त्रियों मे जो द्वेप की मात्रा प्रति दिन बढ़ रही है अथवा बढ़ी हुई है उसका कारण इस प्रकार की भद्रकथायें और यत्र तत्र दिये गय (श्लोको द्वारा) सभ्य उपदेश ही हैं। क्योंकि "नह्यमूला प्रवृत्ति" कुछ भी हो दुःख सिर्फ इतना ही है कि इस प्रकार की उक्तियों की पुष्पमाला भी महर्षि व्यासदेव जी के ही गले में डाली जाती है जिसके लिये वे सर्वथा योग्य नहीं ? क्या ही अच्छा होजो कि इस अमृल्य भेट से उन विचारों को वंचितही रखा जाय । इसके सिवाय उक्त लेखकी बहुत सी बाते परीक्षा करने के योग्य हैं परन्तु विस्तार भय से हम उनका यहां पर जिक्र नहीं करते। हमारे सुज्ञ पाठकों के लिये इतना ही पर्याप्त है।

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